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यशवंत सिंह.. वही यशवंत भड़ासी। मीडिया पर आधारित मशहूर पत्रिका मीडिया विमर्श में जिन मीडिया के नायकों की फेहरिस्त है, उनमें से एक नाम यशवंत का भी है। मीडिया में यशवंत की एक हैसियत तो यही है कि मीडिया में नौकरी करते हुए बहुत कम लोगों की हिम्मत होगी, जो सार्वजनिक रूप से ये कह सके कि हां, यशवंत मेरे दोस्त हैं, या यशवंत को मैं अच्छी तरह जानता हूं। वजह….एक तो यशवंत का उद्दंडता के स्तर तक जा पहुंचने वाला बिंदास स्वभाव और दूसरे यशवंत का कर्मक्षेत्र।
यशवंत सिंह से मेरी मुलाकात नहीं बल्कि मुठभेड़ हुई थी। 2003 का साल था, मैं मेरठ दैनिक जागरण का सिटी इंचार्ज था। खैर, मैं शाम को दफ्तर पहुंचा था तो पता चला कि डेस्क पर नए साथी आए हैं यशवंत सिंह। पहले ही दिन एक खबर को लेकर हम दोनों में भिड़ंत हो गई। कुछ दिन साथ में गुजरे तो दोनों को लगा कि नहीं, पहला ख्याल गलत है। दोस्ती होनी चाहिए। फिर तो दोस्ती हो गई। बीच-बीच में तकरार भी हुई, लेकिन पटी अच्छी। जोड़ी जम गई। कुछ लोगों ने बड़ी प्लानिंग के साथ दरार डालने की कोशिशें कीं, बाद में उनकी बातें करके हम खूब ठहाके लगाया करते थे। मुझे नौकरी के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता था, यशवंत में हमेशा कुछ नया करने का कीड़ा कुलबुलाता था। यहां तक कि जागरण में ये नियम था कि कानपुर से आया पहला पेज सभी एडीशन फालो करेंगे। यशवंत ने इसे मानने से इनकार कर दिया, खुद पहला पेज बनाते थे। फिर तो ये आलम हो गया कि मेरठ का पहला पेज सभी एडीशन फॉलो करने लगे। गजब की प्रतिभा, गजब का हुनर, लेकिन कभी निर्माण की तरफ तो कभी विध्वंस की तरफ। ये यशवंत ही थे, जिन्होंने जागरण में एडीटोरियल के लोगों के विज्ञापन लाने के खेल में इन्वाल्व होने का खुलकर विरोध किया था।
कई बार रात में एक बजे के बाद चिंतन होता था, सपने बुने जाते थे। मेरी बाइक देर रात तक मेरठ शहर में घूमती रहती। वहीं ये सपना बुना गया था कि अब चलेंगे दिल्ली। वहां नौकरी करेंगे। प्रिंट में नहीं, इलेक्ट्रॉनिक में । बहुत हो गई मिशनरी पत्रकारिता। अब मोटी तनख्वाह का इंतजाम करेंगे। उन्हीं दिनों दैनिक जागरण ने इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल की दुनिया में कदम रखा था चैनल-7 के साथ। फरवरी 2005 में मैं दिल्ली आ गया। करीब साल भर के भीतर यशवंत भी वाया कानपुर दिल्ली पहुंच गए।
उस वक्त मैं न्यूज 24 में था, यशवंत की विनोद कापड़ी से घमासान हो गई। विनोद जी उस वक्त इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर थे। यशवंत से उनका एसएमएस पर युद्ध हो गया। शिकायत संजय गुप्ता तक पहुंच गई। अंजाम ये हुआ कि यशवंत जागरण से बाहर हो गए। इसके बाद यशवंत ने किसी मीडिया संस्थान में न तो नौकरी की और न ही कोशिश की। एक मार्केटिंग कंपनी में कुछ दिनों तक काम किया। भड़ास नाम का एक ब्लॉग जरूर बना लिया था। मार्केटिंग कंपनी वाली नौकरी भी छूट गई । दुर्दिन ने डेरा डाल दिया। अपने अक्खड़ स्वभाव के चलते यशवंत ने कई दोस्तों को दुश्मन बना लिया था। उस हालत में कोई भी टूट सकता था, लेकिन यशवंत किसी दूसरी ही मिट्टी के बने थे। यशवंत ने उसी वक्त भड़ास 4 मीडिया वेबसाइट लांच की। हिंदी की मीडिया पर पहली वेबसाइट। देखते ही देखते उसकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी। मीडिया दफ्तरों में बैन होने लगी। यशवंत न सिर्फ सामाजिक रूप से मजबूत हुए, बल्कि आर्थिक हालत भी सुधरी। जो बड़े पत्रकार, जो संपादक कल तक यशवंत का फोन नहीं उठाते थे, या दो शब्द बोलकर फोन रख देते थे, वो अब यशवंत से दोस्ती गांठने लगे थे। यशवंत का फोन पहुंचने पर सब कुछ छोड़कर उनसे बातें करने लगे थे। हर दफ्तर के विभीषण यशवंत के संपर्क में थे। यहां तक कि अपने चैनल में जो खबर मुझे पता नहीं होती थी, वो भड़ास में छपी मिलती थी। भड़ास 4 मीडिया देखते ही देखते शोषित पत्रकारों की आवाज बन गया। कई बार भड़ास ने आवाज उठाकर स्ट्रिंगरों, पत्रकारों को उनके हक का पैसा उनके मालिकानों से दिलवाया। पहली बार कोई ऐसा मीडिया आया, जो उनकी खबर लेता था, जो सबकी खबर लेते थे।
यशवंत की प्रोफाइल बदल गई, लेकिन यशवंत खुद रत्ती भर नहीं बदले। शराब पीकर बहक जाना नहीं छूटा। पीकर सड़क पर हजारों रुपये लुटा देना नहीं छूटा। किसी की मदद में किसी भी हद तक गुजर जाना नहीं छूटा। अक्खड़पन में कोई कमी नहीं आई। जो पसंद आ गया उसके लिए जान हाजिर। जो पसंद नहीं आया, उससे चाहे जितने फायदे का रिश्ता क्यों न हो, यशवंत ने उसको लात लगाने में कोई कोताही नहीं की। इसी उद्दंडता में यशवंत ने एक बार फिर विनोद कापड़ी को फोन किया, मैसेज किया था। इस बार पंगा बढ़ गया। यशवंत पर कई धाराएं लगीं, जेल में पहुंच गए। हम लोग परेशान थे, परिवार परेशान था, लेकिन पुलिस की गिरफ्त में भी यशवंत का वही अंदाज था। यशवंत करीब तीन महीने जेल में रहे और इस दौरान कानून का चकलाघर हम लोगों ने खूब देखा। कई मीडिया संस्थान एकजुट हो गए कि किसी तरह से वेबसाइट बंद हो जाए और यशवंत बाहर न निकलने पाए। लेकिन ये हो नहीं पाया। वेबसाइट चलती रही, यशवंत जेल से बाहर आए तो जानेमन जेल नाम की किताब भी लिखी।
यशवंत सिंह के किराए के घर के अलावा मयूर विहार फेज थ्री में एक छोटी सी कोठरी में दफ्तर भी था। जो भी रिश्तेदार, परिचित, पुराने दोस्त दिल्ली अपने किसी काम या नौकरी के सिलसिले में आते थे, यशवंत उन्हें वहीं रोकते थे। खाना खिलवाते थे, दारू भी पिलवाते थे। बहरहाल अब वो कोठरी अस्तित्व में नहीं है। हां यशवंत बताते हैं कि गाजीपुर में एक भड़ास आश्रम जरूर खुल रहा है। यशवंत का एक रॉबिनहुड चरित्र भी है। तीन-चार लोग हैं, जिनके घर का खर्च यशवंत के पैसे से चलता है, पैसे का जुगाड़ उन दोस्तों से होता है, जिनकी जेब मोटी है, मुसीबत में जिनकी मदद यशवंत कर चुके होते हैं। यशवंत ये कहने में नहीं हिचकते कि फलां को सेलरी नहीं मिली है दो महीने से, इतने पैसे दे दीजिए और भूल जाइए।
यशवंत के भीतर भी तमाम पत्रकारों की तरह एक आम इंसान है। ठीक उसी तरह, जैसे हर इंसान के भीतर कहीं न कहीं यशवंत सिंह बैठा है। फर्क बस ये है कि बाकी लोग भीतर के यशवंत को मारकर, उसे अनुशासित करके जिंदगी के मजे ले रहे हैं, लेकिन यशवंत पर कोई बंधन नहीं है। खुद अपना भी नहीं। जो मन में आता है, करते हैं, जैसे जीने का मन करता है, वैसे जीते हैं। कोई यशवंत को झुका नहीं पाया, कोई तोड़ नहीं पाया, कोई बदल नहीं पाया। हम लोगों की शायद हिम्मत न हो सच्चाई के साथ ये कहने की हम अपने अलावा भी किसी के लिए जीते हैं, लेकिन यशवंत छाती ठोंककर कह सकते हैं-हां.. हम आपके लिए जीते हैं। हर मजलूम के लिए जीते हैं। जो परेशान है, सिस्टम का मारा है, उसके लिए जीते हैं। यशवंत को आप कुछ भी कह लीजिए, कितना भी कोस लीजिए, गालियां दे लीजिए, लेकिन आसान नहीं है यशवंत बनना। बकौल दुष्यंत कुमार-‘हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था, कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।’

लेखकः विकास मिश्र

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