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कार्यकारी संपादक की कलम सेः मैंने RM Lala लिखित जमशेद जी टाटा की जीवनी का अनुवाद किया है, तो कुछ चीजें मैं भी जानता हूँ। उस वक्त भारत की जनता, देसी पूँजीपतियों के हित बहुत कुछ एक जैसे रहे हैं। टाटा के कारखानों में पीएफ-ईएसआई वगैरह थी। टाटा ने कई संस्थान खड़े किए। टाटा नेशनल बुर्जुआ थे। लेकिन, मैं कोई ऐक्टिविस्ट नहीं हूँ, जो हैं उन्हें भी पढ़ा जाए।

नरेंद्र कुमार, बिहार निर्माण व असंगठित श्रमिक यूनियन के नेता


* रत्न टाटा के पूर्वजों और खुद वह भी किसानों की जमीन छीन कर अपने उद्योग के बढ़ाने की मुहिम में हमेशा दमनकारी रास्ते को अपनाया है। सभी उद्योगपतियों के बीच जो कल्याणकारी काम करने की एनजीओ मार्का मुहिम चला है, वह दरअसल मजदूरों की मजदूरी से लूटा हुआ अधिकतम हिस्सा होता है। पूंजीपतियों का एक हिस्सा इतना आत्मकेंद्रित हो गया है कि चंद सामाजिक काम पर खर्च करने वाली पूंजीपति महान बन जाते हैं! जबकि इस सामाजिक काम पर खर्च किया गया धन भी मजदूरों की गाढ़ी कमाई से उन्हें वंचित करके ही प्राप्त किया जाता है। इसलिए किसी भी पूंजीपति की ऐतिहासिक भूमिका का मूल्यांकन करते समय उनके इस पक्ष को भी याद रखा जाना चाहिए।

छत्तीसगढ़ में काम करने वाले एक गांधीवादी कार्यकर्ता, हिमांशु कुमार का अपने अनुभव के आधार पर रतन टाटा के बारे में विचार आज के दिन अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। :—-
“इस समय लोग टाटा को बहुत बड़ा महात्मा बताने की कोशिश कर रहे हैं၊
टाटा उद्योग के बारे में मेरा भी एक अनुभव है၊
छत्तीसगढ़ के बस्तर में दरभा घाटी में टाटा स्टील के लिए लोहंडीगुड़ा में ज़मीन छीनने की कोशिश की जा रही थीं ၊

लोहंडीगुडा में आदिवासी अपनी ज़मीन ना देने के लिये तुले हुए थे ၊

सरकार और जिला प्रशासन टाटा के नौकरों की तरह आदिवासियों की ज़मीन छीनने में जुटा हुआ था ၊

प्रशासन ने कानून की आँखों में धुल झोंकने के लिये कानूनी प्रक्रिया के मुताबिक जन सुनवाई गाँव में करने की बजाय चालीस किलोमीटर दूर जगदलपुर शहर में कलेक्टर आफिस में रखी ၊

इधर गाँव को पुलिस ने चारों तरफ से घेर रखा था ၊

किसी भी आदिवासी को गाँव से निकलने नहीं दिया गया ၊

जन सुनवाई में शहर के ठेकेदार और बाहरी नेता शामिल हुए जिन्होंने कारखाने का फर्जी समर्थन किया जबकि उन्हें तो जन सुनवाई में भाग लेने का कोई हक़ ही नहीं था ၊

इसके बाद सरकार ने गाँव वालों के नाम से मनमर्जी मुआवजे के चेक बना दिये ၊

गाँव वालों ने चेक लेने से इनकार कर दिया ၊

उस गाँव का एक आदमी कलेक्टर आफिस में चपरासी के रूप में काम करता था ၊

कलेक्टर ने उसे बुला कर उसे जबरन चेक स्वीकार करने के लिये धमकाया ၊

गाँव वालों ने चेक लेने से इनकार किया तो कलेक्टर आफिस ने ज़मीनों के नामों में हेराफेरी कर के एक की ज़मीन दूसरे के नाम कर के फर्जी मालिक खड़े कर के मुआवजे के चेक बाँट दिये ၊

लोग अभी भी अपनी ज़मीन छोड़ने के लिये तैयार नहीं थे ၊

इस पर क्रोधित होकर सरकार ने पुलिस को जनता को ज़बरदस्ती वहाँ से निकलने के लिये कहा ၊

पुलिस ने लोगों पर हमला किया . अनेकों लोगों के सिर फोड दिये अनेकों गाँव वालों को जेल में ठूंस दिया गया ၊

अनेकों लड़कियों पर पुलिस ने यौन हमला किया ၊

बारहवीं में पढ़ने वाली एक आदिवासी लड़की ने हमारी साथी बेला भाटिया को अपने साथ पुलिस द्वारा बलात्कार करने की जानकारी दी ၊

बेला भाटिया ने इस घटना के बारे में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग को लिखा ၊

लेकिन भारत का मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग उद्योगपति टाटा से बड़ा तो है नहीं सो उसने कोई कार्यवाही नहीं की ၊

जगदलपुर में कलेक्टर के रूप में गणेश शंकर मिश्रा काम कर रहे थे ၊

वह सरकारी पैसे को इस काम के लिये खर्च कर रहे थे कि सब उन्हें बड़ा गांधीवादी मान लें ၊

उन्होंने सारे कलेक्टर कार्यालय को गांधी के पोस्टरों से भर दिया था၊

सारे दिन कलक्टर आफिस में गांधी के भजन बजाए जाते थे ၊

लेकिन दूसरी तरफ यही कलेक्टर इस पीड़ित लड़की की मदद करने के लिये तैयार नहीं थे ၊

तभी वरिष्ठ गांधीवादी कार्यकर्त्ता निर्मला देशपांडे ने मुझसे कहा कि उन्हें बस्तर के कलेक्टर ने समरोह में आमंत्रित किया है ၊

मैंने निर्मला देशपांडे जिन्हें मैं बुआ कहता था से कहा कि बुआजी यह कलेक्टर गांधीवादी तो बिल्कुल नहीं है ၊

आपको इस कार्यक्रम में नहीं आना चाहिये ၊

उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं कोई अगर थोड़ा बहुत भी अच्छा काम कर रहा है तो हमें उसमे मददगार बनना चाहिये ၊

मैंने कहा कि अगर आप इस कार्यक्रम में आयेंगी तो मैं काला झंडा लेकर सडक पर खड़े होकर आपका विरोध करूँगा ၊

इसके बाद वे नहीं आयीं ၊

टाटा की तारीफें सुनकर मुझे पुरानी बातें याद आ गईं ၊

तब भी इन बातों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था ၊

आज भी यह सब बातें अनसुनी ही रह जायेंगी ၊

लेकिन हम यह ज़रूर जान लें कि लोगों पर हमारे ज़ुल्म समाज में अशांति का कारण ज़रूर बनते हैं जल्दी या कुछ देर के बाद ही सही ၊

आदिवासियों की आवाज भारत अनसुनी कर रहा है ၊

लेकिन हम इतना जोर से बोलेंगे कि इतिहास इसे जरूर लिखेगा ၊

और इस दौर में जो लोग भी दूसरे मुद्दों पर लिख रहे हैं लेकिन आदिवासियों को अनदेखा कर रहे हैं ၊

इतिहास उनका गिरेबान पकड़ कर उनसे सवाल जरूर पूछेगा कि तुमने आदिवासियों को अनदेखा क्यों किया था ?”

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