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मुसाफिर बैठाः

टाटा ने पहले तो देश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से
स्टील और लोहा लक्कड़ से सामान बनाने के विशाल कल कारखाने लगाए
धंधा चल निकला तो
अकूत संपत्ति सिरजने को
तरह तरह के औद्योगिक धंधे चलाए
टाटा ने हरेक की जीभ के स्वाद का हिसाब रखते हुए
नमक भी बनाया
नमक बनाने में
ऊंची नीची कीमत पर श्रमिकों को लगाया
लेकिन क्या उसने श्रमिकों को
उनके श्रम की नमकोचित शरीयत दी
समुचित शेयर लाभांश दिए
सारे उद्योग धंधे शर्तिया लाभ लोभ से लगाए
लाभ लोभ में उपकार परोपकार के भ्रम–छींटे डाल
इनका इतना फैलाव किया हमारे जीवन में
कि इनका प्रकट छुपा शोषण और नीतिहीन व्यापार भी हमें
गलाहार लगता है
टाटाई धंधेबाजी का भी नमकहलाल होना
उससे उऋण होना हमें नीतिगत जिम्मेदारी लगता है

दुनिया बताती है व्यापार का अर्थ है मुनाफा। जिसकी किताब पढ़कर सब व्यापारी बनते हैं वह एडम स्मिथ भी कहता है बिज़नेस मींस प्रॉफिट। आपने कहा गलत है यह सिद्धांत। बिजनेस मींस चैरिटी । व्यापार का अर्थ है परोपकार। अगर मैं आपकी जीवनी लिखता तो यही शीर्षक देता – Business Means Charity । आपने अर्थशास्त्र के सारे सूत्रों को नीति शास्त्र से ढक दिया। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल, स्टैनफोर्ड ग्रेजुएट स्कूल ऑफ बिजनेस और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अब आपकी जीवनी पढ़ाई जाएगी। शायद कोई जरुर समझेगा बिजनेस मींस चैरिटी।

भारत में आज भी बिजनेसमैन को चोर की निगाहों से देखा जाता है। लोग गली के व्यापारियों तक को शक की निगाह से देखते हैं। हर बड़े बिजनेसमैन में एक बड़ा चोर भी छिपा होता है। रतन टाटा ने सिर्फ अपने दम पर इस धारणा को पूरी तरह बदल दिया। विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण कर लेना, न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड हो जाना सिर्फ यही बिजनेस नहीं है बल्कि अपनी कंपनी से जुड़े एक एक आदमी के सुख-दुख का ख्याल रखना ही असली बिजनेस है।

रतन टाटा का नाम लेते ही मन में तुरंत सम्मान का भाव आता है। पैसे के ढेर पर बैठे हुए बड़े बड़े तोंदूल धन पिपासु भी रात के अंधेरे में सोचते होंगे की काश देशवासी उन्हें रतन टाटा की तरह प्यार करते । रतन टाटा उद्योगपति थे ही नहीं । वे कुछ और ही थे। वे विनम्रता, ईमानदारी और करुणा के प्रतीक थे। पारसी समाज ने हमेशा हिन्दुस्तान को दिया ही है।

करोड़ों की जगुआर , लैंड रोवर, रेंज रोवर, डिस्कवरी और डिफेंडर बनाने वाला आदमी कभी एक लाख की नैनों कार के लिए बंगाल से गुजरात तक दौड़ रहा था । सोचिए किसके लिए, क्या खुद के लिए। किसलिए, क्या मुनाफे के लिए। क्या नाम कमाने के लिए। क्या पब्लिसिटी स्टंट करने के लिए। नाम, मुनाफा, शोहरत, ताकत सब तो रतन टाटा के पैरों में लोट रहे थे। इस एक सवाल के जवाब में ही टाटा के टाटा बनने के सारे सूत्र छिपें हैं।

उनके नाम में रतन जुड़ा था सोच रहा हूं कि क्या भारत सरकार की 13 महारत्न कंपनियां मिलकर भी एक रतन टाटा का मुकाबला कर सकेंगी। एक महारत्न कंपनी भारत सरकार को हर साल 5000 करोड़ का न्यूनतम मुनाफा देती है। भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (BHEL), भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (BPCL),
हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (HPCL), NTPC
,ONGC, SAIL जैसी कई नवरत्न और महारत्न कंपनियों से रतन टाटा अकेले ही बड़े हैं। यदि बाजार की दृष्टि से टाटा ग्रुप के मार्केट कैपीटलाइजेशन की बात करें तो यह 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर यानी 24 लाख करोड रुपए से भी अधिक है ।

रतन टाटा से पहले टाटा मूलतः एक भारतीय कंपनी थी। रतन टाटा ने इसे ग्लोबल जॉइंट बना दिया है। पर वे अकेले नहीं बढ़ गए उन्होंने साथ के लोगों को भी आगे बढ़ाया। समाज के लिए और अपने कर्मचारियों के लिए कुछ करना है यह टाटा के DNA में शुरु से ही जुड़ा हुआ है। कुछ समय के लिए साइरस मिस्त्री जब टाटा संस के चेयरमैन बने तो उन्होंने मुनाफे को वरीयता देना शुरू किया। साइरस मिस्त्री टाटा संस के डीएनए को बदलना चाहते थे रतन टाटा ने उन्हें ही बदल दिया। साइरस मिस्त्री सुप्रीम कोर्ट तक गए पर फ़ैसला रतन टाटा के पक्ष में गया। रतन टाटा ही बहुत प्यार से साइरस मिस्त्री को सबसे ऊंचे ओहदे तक लेकर आए थे, पर जब आपस में ठन गई तो रतन टाटा ने उन्हें तुरंत बाहर का रास्ता दिखाया।

वे जिसे अधिकार देते थे उसपर नजर भी रखते थे। उन्होंने आईटी जगत में टी.सी.एस (टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज ) का जब सेटअप किया तो फकीर चंद कोहली को फ्री हैंड दिया। फ़कीर चंद कोहली ही भारत की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर सेवा कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज के सह-संस्थापक और पहले सीईओ थे।

रतन टाटा ने जब कंपनी की बागडोर संभाली तो टाटा की पहचान भारत तक ही सिमटी थी। रतन टाटा ने इसे ग्लोबल जॉइंट बना दिया। दिन रात मेहनत करके टाटा को ग्लोबल कंपनी में बदला । वे 1991 से 2012 तक टाटा संस के चेयरमैन रहें। इन बीस सालों में उन्होंने कई बड़े काम किए। रतन टाटा जब अध्यक्ष बने तब तक टाटा की छवि ”फैमिली रन कंपनी” के तौर पर बन चुकी थी। जिसे एक परिवार या एक समुदाय चलाता है। रतन टाटा ने इस स्टीरियोटाइप इमेज को तोड़ा । जैगुआर का अधिग्रहण करके उन्होंने एक झटके में टाटा मोटर्स को लोकल से ग्लोबल बना दिया। T.C.S में खोज खोज कर नए लोगों को अहम जिम्मेदारी दी। 2000 से पहले बड़ी-बड़ी भारतीय कंपनियां मुंबई स्टॉक एक्सचेंज तक ही सीमित थी नैस्डेक में जाना किसी के लिए भी सपना सरीखा था , रतन टाटा वहां भी गए। उन्होंने ग्लोबलाइजेशन के उभरते दौर को वक्त रहते पहचान लिया और अपनी कंपनी को नए-नए कंज्यूमर प्रोडक्ट्स और टेक्नोलॉजी से जोड़ दिया। उन्होंने कंपनी को इतना डायवर्सिफाई किया की हर जगह टाटा नजर आने लगा। टाटा नमक, हिमालयन टी , टाटा टी, केटली , स्टारबक्स, टाटा एलेक्सी , टाटा कंसल्टेंसी, बिग बॉस्केट, विस्तारा , एयर इंडिया, टाटा प्रोजेक्ट्स, टाटा हाउसिंग ,टाटा पावर, टाटा स्टील, टाटा मेटालिक्स, टाइटन , तनिष्क, फास्ट ट्रैक फेहरिस्त बहुत लंबी है। ट्रैवल, रिटेल, टेक्नोलॉजी, बेवरेजेस, लाइफस्टाइल, टेलीकॉम, आटोमोटिव, फाइनेंस, रिटेल एंड ई कॉमर्स हर क्षेत्र में आज टाटा की दस्तक है तो अकारण नहीं है।

टाटा समूह का फुटप्रिंट बहुत व्यापक है। रतन टाटा के जूते में पैर डालना अब किसी के लिए लगभग असंभव है । नामुमकिन। यह भारत की एकमात्र ऐसी व्यवसायिक संस्था है जिसका व्यवसायिक प्रभाव तो है ही, सामाजिक प्रभाव भी बहुत बहुत ज्यादा है। टाटा यानी गारंटी। टाटा यानी जुबान।

उन्होंने हर वह काम किया जिसमें पहले से हार तय थी, पर वे हर बार विजेता बनकर उभरे। आपकी याद आती रहेगी।

टाटा…. रतन टाटा सर।

– डॉ चित्तरंजन कुमार सिंह,
असिस्टेंट प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

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