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भूत भविष्य भूत भविष्य राग द्वेष राग द्वेष अनिच्च अनिच्च….
आजकल मेरा सबसे प्रिय काम क्या है? ये अगर आप पूछेंगे तो बताऊंगा कि सोते हुए अपनी साँसों की आवाज़ाही को देखना!
यही एक काम है जिसे करने में मन लगता है। इसके अलावा जो कुछ करता हूँ वह आरोपित, जबरन, मजबूरन टाइप किया गया काम लगता है।
यहाँ तक पहुंचना आसान न था। पहले मैं सोचता था, मानता था कि ध्यान व्यान सब फ़र्ज़ी चीजें हैं, निठल्लों के चोंचले हैं! तब मन को उड़ान भरने के लिए हज़ार बहाने / कारण थे।
अब मन सब देख के / सब कर के थक गया है, समझ गया है। दुहराव ही दुहराव है जीवन। नयापन कुछ नहीं।
मतलब बाहर की दुनिया अपन के लिए बेकार और बासी हो चुकी है। लगता है लोग बस एवें ही जिए जा रहे हैं। अपने अपने इंद्रियजन्य और नौकरीजन्य दुखों-सुखों को लपेटे-जीते!
अगर आंतरिक यात्रा न शुरू कर पाता तो मैं जाने कितना निराश / अवसाद ग्रस्त होता। विपश्यना ने बूस्ट दिया है। आंतरिक यात्रा को बहुत उदात्त बनाया है। कई नए विंडो खोले हैं। मन को ख़ुद से अलग कर देख पाने और उसे नियंत्रित कर पाने के तरीकों को समझ सकने का राह प्रशस्त किया है।
आंतरिक यात्रा पुनर्जन्म सरीखा होता है। कुछ ज़रूर कृपा है अदृश्य की कि एक-एक कदम उठता जा रहा है, भले ज़्यादा वक्त लग रहा हर एक पग की यात्रा में।
हम सब अपनी अपनी साँसें गिन कर लाए हैं। सबकी साँसों का कोटा फिक्स है। इन साँसों के सहारे ही मन ज़िंदा रह पाता है। साँसों के सहारे बेकाबू मन की सवारी गाठी जा सकती है। ये बड़ा रास्ता खुला है।
अपन को अध्यात्म में कोई गुरु नहीं मिला। इसलिए ख़ुद के अनुभवों से, ख़ुद के प्रयोगों से थोड़े थोड़े कदम बढ़ पा रहे हैं।
मेरा प्रिय काम है सोते हुए आँख बंद कर साँसों संग आवाज़ाही करना। न भूत काल। न भविष्य काल। तत्काल। तत्काल में जीने का अभ्यास हर राग द्वेष से मुक्त करता है। ये मुक्ति की अवधि जितनी बढ़ा सको बढ़ाओ!
देखते हैं इन कदमों के इन साँसों के आगे क्या हासिल होते हैं!
यशवंत सिंह, संपादक भड़ास फॉर मीडिया