ज्ञानार्जन सबसे अधिक मातृभाषा में संभव: आनंद कुमार त्यागी
मा. गा. का. वि. के दर्शनशास्त्र विभाग एवं आई. सी. पी. आर. के तत्वावधान में तीन दिवसीय कार्यक्रम
वाराणसी: केंद्रीय विदेश एवं शिक्षा राज्य मंत्री श्री राजकुमार रंजन सिंह ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएं हमारी मातृभाषा के रूप में हैं। मातृभाषा के अनुरूप ही सभी तथ्यों को प्रकाशित करने की जरूरत है। श्री सिंह महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में दर्शनशास्त्र विभाग एवं आई. सी. पी. आर. नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में 12 फरवरी से 14 फरवरी तक तीन दिवसीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में वीडियो संदेश के ज़रिए मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित कर रहे थे। मंत्री ने भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डाला एवं इसे अपनाने पर बल दिया।
गांधी अध्ययन पीठ के सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम का विषय ‘भारतीय भाषाओं में दार्शनिक तत्वान्वेषण और शिक्षण’ रखा गया।
विशिष्ठ अतिथि आर.एस.एस. के वरिष्ठ प्रचारक श्री मनोजकांत जी ने दर्शनशास्त्र में मातृभाषा की अनिवार्यता को बताते हुए कहा कि आरंभिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में करने से समझ छह गुणा अधिक बढ़ जाती है। शिक्षण प्रक्रिया में पूर्णता लाने के लिए दर्शन अत्यंत आवश्यक है , क्योंकि दर्शन की समझदारी से आचरण का निर्माण होता है। दर्शन उच्चावस्था में समझने वाली बात है। आत्म सात्वीकरण की प्रक्रिया तीव्र एवं सात्विक होती है। अवधारणाओं के परिवर्तन का मूल कारण पाश्चात्य शैली है। परिणामतः हम अपनी पीढ़ी को ही अपनी बात नहीं समझा पाते।
प्रो. सच्चितानंद मिश्र ने भारतीय भाषा का महत्व समझाते हुए कहा पढ़ने से ज़्यादा पढ़ाना और पढ़ाने से ज्यादा शोध करना महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों को गए बहुत समय हो गया किंतु उस अंग्रेजियत को हम अभी तक नहीं भूल पाए। देश अगर खुद को नहीं समझ पाएगा , तो उसकी स्थिति अभिज्ञान शाकुंतलम के दुष्यंत की तरह श्रापग्रस्त हो जाएगी।
श्री वांग चुंग डॉर्जी ने कहा भाषा ही है जो हमारे ज्ञान और अनुभव को मृत्यु के पश्चात भी समाज में छोड़ कर जाती है। मातृभाषा से मस्तिष्क का विकास होता है। हमें बौद्धिक सुख से अधिक मानसिक शांति की आवश्यकता है।
कुलपति आनंद कुमार त्यागी जी ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में ज्ञान के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि पुरातन काल से हमारे पास ज्ञान सबसे बड़ा खजाना है, जिसके परिणामस्वरूप भारत विश्वगुरू बना। ज्ञानार्जन सबसे ज्यादा मातृभाषा में संभव है । यदि भारत को देखें तो यह एक बहुभाषी देश है, जहां दो भाषाएं तमिल व संस्कृत स्वतंत्र रूप से जन्मी हैं। हमारी स्थिति बिल्कुल अलग है। हम फ्रांस, स्पेन, नीदरलैंड नहीं बन सकते । वह एक भाषाई देश हैं । इसके विपरीत भारत का प्रांतीय भाषाओं से बहुत जुड़ाव है। भारत में बंटवारा भाषाई आधार पर हुआ, जिसे एक साथ समाहित करना जटिल है। दर्शनशास्त्र की बात करते हुए उन्होंने कहा दर्शन हर विषय में समाहित है। इसके क्षेत्र को संकुचित करना दर्शन के साथ अन्याय होगा। अनेकानेक भाषाओं में ज्ञान भण्डार हैं जिन्हें भारतीय भाषाओं में एक जगह लाना बड़ी चुनौती है।
कार्यक्रम की शुरुआत अतिथियों एवं कुलपति जी के करकमलों द्वारा महापुरुषों के स्मृति चिन्ह पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्वलन से हुई। संचालन प्रो. पीतांबर दास जी ने किया। स्वागत भाषण श्री अमरीश राय जी एवं धन्यवाद ज्ञापन प्रो. नंदिनी सिंह ने दिया। कार्यक्रम में अन्य माननीय श्रोता बृजेश जी, टी. वी.सिंह जी ,दंपति तिवारी जी, रमाकांत जी आदि एवं विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भारी मात्रा में मौजूद रहे।