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वाराणसीः हिन्दी विभाग, कला संकाय, में सहायक आचार्य डॉ. प्रियंका सोनकर की बहुप्रतीक्षित पुस्तक “दलित स्त्री विमर्श :सृजन और संघर्ष ” के लोकार्पण व परिचर्चा कार्यक्रम का आयोजन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के आचार्य रामचंद्र शुक्ल सभागार में किया गया | पुस्तक का प्रकाशन प्रलेक प्रकाशन द्वारा किया गया है | कार्यक्रम की शुरुआत मालवीय जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण तथा दीप प्रज्वलन के साथ हुई, तत्पश्चात विश्वविद्यालय की परम्परा के अनुसार कुलगीत का गायन संगीत व मंचकला संकाय के ममता, श्रेया, राघवेंद्र शर्मा व सूरज विश्वकर्मा द्वारा किया गया | लोकधर्मी आलोचक प्रो. चौथीराम यादव, हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. वशिष्ठ अनूप, प्रो. शुभा राव (पूर्व अध्यक्ष राजनीति विज्ञान विभाग, स्त्री काल के संपादक संजीव चन्दन, डॉ. किंगसन पटेल, युवा कवि विहाग वैभव समेत विश्वविद्यालय परिवार के सदस्य उपस्थित रहे | स्वागत वक्तव्य डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने दिया | डॉ. प्रियंका सोनकर ने लेखकीय वक्तव्य देते हुए पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओ के संघर्ष व चुनौतियों को उद्घाटित किया।
सामाजिक चिंतन के विविध आयामों को भी अपने वक्तव्य में समाहित किया व महिलाओ के सामने उपस्थित कठिनाइयों को भी प्रदर्शित किया।
भारतीय समाज में हाशिये पर रखी हुई महिलाओ के सृजन का वर्णन पुस्तक के माध्यम से किया गया है। विभाग की शोध छात्रा रोशनी द्वारा पुस्तक परिचय दिया गया। प्रो.चौथीराम यादव, संजीव चंदन, डॉ. किंगसन पटेल व विहाग वैभव ने अपने वक्तव्य व पुस्तक की समीक्षा को अपने अपने शब्दो में दलित स्त्री विमर्श के प्रश्नों को प्रस्तुत किया,अध्यक्षीय भाषण प्रो. वशिष्ठ अनूप ने दिया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ प्रियंका सोनकर द्वारा किया गया।

परिचर्चा के उपरांत  काव्य पाठ व संगीत संध्या का आयोजन किया गया। डॉ. विंध्याचल यादव, विहाग वैभव, आरोही, काजल कुमारी, विमलेश सरोज, रोशनी धीरा, तनुज व रोहित प्रसाद पथिक द्वारा कविताओं का पाठ किया गया। संगीत व मंच कला संकाय के छात्र सारंग व ऋषि राज पटेल द्वारा गायन, प्रेम द्वारा तबला, हर्षित पाल धनगर द्वारा हारमोनियम तथा हेमंत द्वारा वायलिन पर संगत करते हुए सभागार में उपस्थित दर्शकों का मन भजन गायन के माध्यम से मोह लिया।

बताते चलें कि डॉ. सोनकर समग्र-समूल परिवर्तनवादी राजनीति के पक्षधर स्टूडेंट्स के कार्यक्रमों में भी अपने अंबेडकरवादी विचारों की जमीन पर खड़े होकर शिरकत करती रही हैं। प्रियंका जी हालांकि लोकतंत्र और संविधान के दायरे में रहकर सामाजिक न्याय की लड़ाई को आगे बढ़ाने की पक्षधर हैं लेकिन अपनी भावनाओं को बिना शब्द दिए वह आर्थिक समता को लेकर भी सरोकारी रुख अपनाती रही हैं।
कहना न होगा कि अपनी समकक्ष सवर्ण स्त्री रचनाकारों की तुलना में प्रियंका जी की जनपरकता कई प्रकाशवर्ष आगे है और उसकी वजह यह है कि वह जिस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आती हैं, वहाँ पर श्रम से सीधा नाता होता है। यह श्रम ही है जो हमारे अंदर उदात्त भावों का संचार करता है। कहा-माना जाता है कि गुलामों का अमानवीकरण होता है, ऐसे में पितृसत्ता की गुलामी झेल रहीं और कई बार उसके विरुद्ध विरोध का नकली झंडा उठाए सवर्ण स्त्रियाँ अपने भीतर के अमानवीकरण से चाहकर भी लड़ नहीं पातीं। उनके व्यक्तित्व की विद्रूपताएं मौके-बेमौके नुमाया होती रहती हैं।
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कामता प्रसाद

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