आज से 107 वर्ष पूर्व, 25 अक्टूबर 1917 के दिन रूस में मजदूर वर्ग ने बोल्शेविकों के नेतृत्व में पूंजीपति वर्ग का तख्ता पलट दिया था जिसे अक्टूबर क्रांति कहा जाता है। इस क्रांति में विजयी मजदूर वर्ग ने पूंजीवादी राज्य की जगह अपना नया राज्य बनाया जिसे हम समाजवाद के नाम से जानते हैं। समाजवाद के वैज्ञानिक सिद्धांतों के जनक व रचयिता मार्क्स-एंगेल्स थे। फिर बाद में लेनिन व स्तालिन हुए। वैसे आम बोलचाल की भाषा में स्तालिन समाजवाद के सिद्धांतों के जनक व रचयिता के रूप में कम इसके मुख्य इंजीनियर के रूप में ज्यादा प्रसिद्ध हैं। उन्होंने समाजवाद के वैज्ञानिक सिद्धांतों को अत्यंत ही कठिन, पेचीदगी से भरी एवं दुरूह परिस्थितियों में एवं हर तरह के खतरों व हमलों के बीच लागू किया और समाजवाद की ठोस व मजबूत नींव रखी। उनका मुख्य काम मार्क्स-एंगेल्स और खासकर लेनिन की सीखों व शिक्षा को जमीन पर उतारना था और इसे उन्होंने बखूबी तथा सफलता के साथ किया। इसी काम को मुख्यतः करते हुए उन्होंने समाजवाद के वैज्ञानिक सैद्धांतिक पक्ष को और आगे बढ़ाया एवं एक खास ऊंचाई तक पहुंचाया।
समाजवाद में, मार्क्स-एंगेल्स की शिक्षा के आलोक में, मजदूर वर्ग ने पुरानी (पूंजीवादी) राज्य मशीनरी, जो जोंक की तरह मजदूरों, किसानों व मेहनतकशों का खून चूसती थी, को उखाड़ फेंका व खत्म कर दिया और अपनी खुद की राज्य मशीनरी बनाई एवं खड़ी की। दूसरे शब्दों में, पूंजीशाही और इससे गहरे रूप से जुड़ी (नाभिनालबद्ध) अफसरशाही-नौकरशाही को खत्म कर दिया। इसके बिना समाजवाद की दिशा में पहला कदम उठाना भी संभव नहीं था। इसका मतलब यह है कि समाज में कानून-व्यवस्था एवं अमन तथा शांति कायम करने से लेकर उद्योग व कृषि के क्षेत्र में उत्पादन व्यवस्था से लेकर वितरण व्यवस्था को संभालने का काम मजदूर वर्ग एवं उसके अग्रदल ने सीधे अपने हाथ में ले लिया। यही नहीं, इसके लिए जरूरी अनुशासन लागू किया व अपनी खुद की संस्कृति विकसित की, उसे जी-जान से सीखा और उसे और आगे बढ़ाने के लिए मजदूर वर्ग के हिमायती विशेषज्ञों की एक फौज पैदा कर दी। सभी को शिक्षित और प्रशिक्षित किया। औरतों को पुरानी पितृसत्ता की गुलामी से मुक्त किया। जहां तात्कालिक रूप से पूंजीवादी विशेषज्ञों को लगाने की जरूरत थी वहां उन्हें जरूर लगाया, लेकिन राज्यसत्ता एवं उसकी बागडोर अपने हाथ में बनाये रखी जिसके सहारे उन्होंने उन सब पर लगाम लगाये रखा जो अक्सर तोड़-फोड़ कर मजदूर वर्ग के राज्य को पुष्पित-पल्लवित होने से पहले ही नष्ट कर देना चाहते थे, ताकि उनका पुराना लूट का शासन वापट लौट सके। इसके लिए पुराने वर्गों ने हर संभव कोशिश की, यहां तक कि विदेशी शक्तियों से गठजोड़ किये और मिलकर हमले किये। जाहिर है, और इसे अलग से विस्तार से यहां कहने की जरूरत नहीं है कि इन कामों में मजदूर वर्ग की अगुआई लेनिन और स्तालिन जैसे तपे-तपाये और अनुभवी नेता कर रहे थे जिनके नेतृत्व में मजदूर वर्ग ने अक्टूबर क्रांति संपन्न की।
समाजवाद में एक मुख्य और अत्यंत जरूरी काम था – श्रम की और श्रम करने वालों की गरिमा को स्थापित करना। जाहिर है, इसके लिए बल का प्रयोग जरूरी था क्योंकि जमींदार, कुलक और पूंजीपति और अफसर, जो कल तक मजदूरों को जोंक की तरह लूटते व उनके खून की आखिरी बूंद तक चूस लेते थे और फिर उन्हीं की पीठ पर सवारी भी करते थे, बिल्कुल भी श्रम करना नहीं चाहते थे। उन्हें तो आदत थी श्रम करने वालों को गुलाम की तरह रखने व खटाने की! इसलिए चाहे खेती हो या उद्योग, उत्पादन के सभी क्षेत्रों में श्रम शक्ति की खरीद-बिक्री पर समाजवाद में रोक लगा दी गई थी। मजदूर वर्ग राज्यसत्ता में था, इसके नाते अब वह समाज के उत्पादन के समस्त साधनों व संपदा के प्रत्येक स्रोत का मालिक था और इसलिए उसे अब कोई खरीद कर काम पर लगा नहीं सकता था। इस तरह शब्द के पुराने अर्थ में वह मजदूर वर्ग नहीं रह गया था। यही नहीं, वह ‘वर्ग’ शब्द के पुराने अर्थ में वर्ग भी नहीं रह गया था। इसलिए मजदूर वर्ग के शासन में आते ही वर्ग शासन की बुनियाद के ढहने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसलिए ही मजदूर वर्ग के शासन में आते ही वर्ग-शासन भी पुराने अर्थ में अपना अर्थ खो देता है, खोने लगता है। इसलिए बाद में जब 1936 में समाजवादी संविधान का निर्माण हुआ तो इसे एक संवैधानिक प्रावधान का रूप दे दिया गया कि “जो कमाएगा नहीं, वह खाएगा भी नहीं।’ स्तालिन के नेतृत्व में 1936 में बने सोवियत संविधान का आर्टिकल 12 कहता है कि “इस सिद्धांत के अनुसार कि ‘जो काम नहीं करेगा वह खाएगा भी नहीं’, काम करना हर सक्षम व्यक्ति का एक कर्तव्य और उसके लिए सम्मान का विषय है।” सोवियत यूनियन में समाजवाद का वितरण संबंधी सिद्धांत ”हर व्यक्ति से समाज उसकी क्षमता के अनुसार, हर व्यक्ति को उसके काम के अनुसार” पर आधारित था। अंग्रेजी में कहें, तो Article 12 of the Soviet Constitution constituted in 1936 under Stalin’s leadership reads: In the U.S.S.R. work is a duty and a matter of honour for every able-bodied citizen, in accordance with the principle: “He who does not work, neither shall he eat.” The principle applied in the U.S.S.R. is that of socialism : “From each according to his ability, to each according to his work.” दूसरे शब्दों में, समाजवाद (जिसे साम्यवाद का प्रथम चरण माना जाता है) में यह नियम बनाया गया कि राज्य सभी को उसकी क्षमता के अनुसार काम करने को कहेगा और बदले में राज्य सभी को उसके द्वारा किये गये काम के अनुसार उत्पादन में से एक हिस्सा प्रदान करेगा। यह वेतन के रूप में हो सकता है और जरूरत की चीजों के रूप में भी।
मजदूरों को यहां यह समझना जरूरी है कि यह संवैधानिक प्रावधान इसलिए बनाया गया ताकि परजीवी वर्ग फिर से पैदा नहीं हो सकें। यहां यह भी समझना व जानना जरूरी है कि इसे केवल निर्देशक सिद्धांत (directive principles) नहीं बनाया गया जिसे भविष्य में कभी लागू किया जाएगा या लागू करने की कोशिश की जाएगी, जैसा कि पूंजीवादी देशों के बुर्जुआ संविधानों में आम तौर पर किया जाता है। नहीं, इसके विपरीत सोवियत समाजवाद में पहले पूंजीपति वर्ग और जमींदार वर्ग, कुलक वर्ग और अन्य सभी तरह के जोंकों के जिंदा रहने की परिस्थितियों को जड़मूल से खत्म करके इस नियम व सिद्धांत को लागू किया गया और फिर इसे संविधान में दर्ज किया गया ताकि इसके विपरीत आचरण करना गैर-कानूनी और गैर-संवैधानिक ही नहीं समाजवाद के खिलाफ दंडनीय अपराध माना जाए। और ऐसा ही किया गया। तभी तो समाजवाद से पूंजीपति वर्ग ही नहीं शोषण पर टिका हर वर्ग इतनी अधिक नफरत करता है।
सवाल है, क्या एक बार फिर से मजदूर वर्ग समाजवाद कायम नहीं कर सकता है? बिल्कुल कर सकता है। बल्कि करना पड़ेगा। यह चाहत नहीं, आवश्यकता बन गया है। वह भी मात्र मजदूर वर्ग के लिए नहीं, पूरी मानवजाति व प्रकृति के लिए। अन्यथा आज के साम्राज्यवादी-पूंजीवादी दौर में विश्व के बड़े पूंजीपतियों की सूपर व अधिकतम (संभव) मुनाफा की हवस इस मानव सभ्यता और इसकी पालनहार पृथ्वी को ही नष्ट कर देगी। अगर मजदूर वर्ग की अगुआई में मानवजाति समाजवाद के लिए संघर्ष नहीं करेगी, तो फिर बर्बरता ही इसका भविष्य है। पूरी दुनिया में फासीवाद, जो पूंजीपति वर्ग के ही सबसे खूंखार हिस्से के नेतृत्व में स्थापित आतंकी एवं बर्बर तानाशाही का नाम है, की विजय से यह साफ हो जाना चाहिए कि आगे या तो समाजवाद स्थापित होगा या नहीं तो फिर यह मानव सभ्यता ही नष्ट हो जाएगी। इसके कगार पर तो यह पहले ही पहुंच चुकी है।
अजय सिन्हा