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मैंने विरासत में अपने पिता की सूरत पायी है
प्रकृति करती है न्याय
स्वयं की तरफ़ से
जिधर देखती अन्याय!
बहने वैसे ही जन्मतीं हैं जैसे भाई
पर लखिया बाबुल की चिड़िया
अंगना छोड़ उड़ जाती हैं बहुत दूर…
भईया को महल-दुमहले मिलने पर
और बेटी को परदेश
लखिया बाबुल की बेटियों के साथ
प्रकृति करती है न्याय
दे देती है पिता की सूरत
विरासत में
जो नहीं मिली होती है किसी भाई को
और माँ देती है कई पीढ़ी की स्त्रियों का संताप !
नोट-(जिस लड़की के पिता साथ छोड़ते हैं,उसके राजकुमारी होने का अहसास पिता के साथ चला जाता है।मेरी सारी दौलत! मेरा सारा मान पिता के साथ 3 फरवरी 2024 को चला गया और जब देश का राजा चला गया तब यह बेटी अनाथ है।हमारे देश की बेटियां मायके में हक़ नहीं माँगती और ससुराल में लड़ नहीं पाती क्योंकि वे पिता से प्रेम करतीं हैं।वे बस ससुराल में रहतीं ही इसलिए हैं कि पिता से प्रेम करतीं हैं।)
हे!मातृ धरा
(1)
दुनिया से बच कर आना चाहती है
तुम्हारे कोख के अंधकार में
बहुत थक गयी है तुम्हारी बेटी
हे मातृ धरा!
मुझे जगह दो!
अब कहीं शरण नहीं!
(2)
हे! पृथ्वी
जबसे जन्मी
तुम्हारी ही तरह भोगती यातना
बिना आह किये
अब क्यो नहीं देती जगह मुझको भी
सीता की तरह
छोड़ देती इस निर्मम संसार को
दुत्कार कर उन्हीं की तरह।
(3)
उपेक्षा से रेत हो जाती है धरती
और घृणा से हो जाती है बंध्या
सृजन हेतु अपने सीने पर
सहती है अनगिन प्रहार
नहीं करती चीत्कार कभी
गीले आँचल में भीगी
पी कर आंसू
फिर भी सहती
नहीं करती शिकायत।
(4)
स्त्री हूँ!जानती हूँ!
दुःख विस्तार लेता है
हमारे ही आत्म का
इसे जानता है पुरुष
जो करता है अक्सर छल
क्या करूँ!प्रकृति से माँ हूँ
यह जानते हुए भी पुरुष
चाहता रखना बंधन में
उसके लिए मिट्टी हूँ मैं
मात्र एक मुट्ठी छार।
(5)
हे! जायसी
आप तो पद्मावती के जौहर की
ताप को महसूस किये थे
इस भयावह दृश्य को सोच
रोते थे और सिर पीटते थे
तभी तो रक्त की लेई से
लिखे थे।
हे! स्त्री मन जायसी
सदियाँ बीत गयीं
अब भी निगाह वैसी की वैसी
अब तो हर दूसरा पुरुष
अलाउद्दीन !
किस किस बच्ची को
तेज़ाब में/आग में जलने से
बचाओगे।
(6)
अपनी गिरह में छिपाये
दुःख
आँसुओं में गहरा अवसाद
हृदय में अपमान के गहरे घाव
संबंध के अर्थहीन बोझ
नहीं सहे जाते अब
कंधे हो चुके कमजोर
देह बेदम होती जा रही
झेलते-झेलते उपालंभ।
(7)
स्त्री बन जन्मी
अयाचित
जो मिली वह केवल वितृष्णा थी
याचित न था जैसे कोई मेरा
मुझमें नहीं माना गया कोई स्वत्व
न देखा जा सका स्वाभिमान
पर सुनो! अब करूगीं इन्कार
अस्वीकार वह सब
मेरे सम्मान को जो बदल देते अपमान में।
-अलका प्रकाश