Total Views: 368

एक समय में हम दो जगह नहीं हो सकते। तो जहाँ थे या हैं, उसका लुत्फ उठाइए। जहाँ नहीं रहे या जहाँ से दूर हट गए उसको लेकर क्या बिसूरना? पिछले साल “नेक” इरादे से मैंने इंटरव्यू लेने के बहाने गोमती जोन के डीसीपी से मुलाकात की। किसी को पुलिस के जरिए सबक सिखाना था, मेरे दिमाग में ऐसा कुछ चल रहा था। डीसीपी ने इंटरव्यू तो नहीं दिया लेकिन बनारस पुलिस की मीडिया सेल से जोड़ दिया।

मैं मूलतः डेस्क का पत्रकार रहा हूँ तो खबरें कैसे जुटाई जाती हैं, इसका बिल्कुल भी अंदाजा नहींं था। जनसंपर्क अधिकारियों के जरिए सूचनाएं हासिल करने का गज़ब का आइडिया मुझे पिछले साल 20 अगस्त को मिल चुका था।
अब स्पेशल स्टोरीज भी की जा सकती हैं। कम्युनिस्टों से अगर मेरी खटपट नहीं हुई होती तो मैं 100-50 गधों तक सिमटा रहता और कुएं का मेढक बना रहता। सेनानी करो प्रयाण अभय भावी इतिहास तुम्हारा है, ये नखत अमां के बुझते हैं सारा आकाश तुम्हारा है। नए ढंग-ढर्रे पर जो वेबसाइट डेवलप हुई है, उसमें से बनारस पुलिस वाला कॉलम हटा दिया गया है, क्योंकि अब मुझे किसी को भी सबक नहीं सिखाना।
अनुवाद का काम कम से कमतर हो चला है, पत्रकारिता को आजीविका का जरिया बनाना है, ओपन मार्किट में कदम रखने के लिए जो निमित्त बने, उन्हें थैंक्स। अकादमिक जगत, प्रशासनिक मशीनरी और जनसाधारण के बीच से महत्वपूर्ण संपर्क मिलते जा रहे हैं, पत्रकारिता का पेशा भी काफी रोचक है। वेबसाइट मेरी अपनी है, यहाँ मैं जो चाहूँगा वह लिखूँगा। अगर मैंने कभी किसी से पैसा नहीं लिया, ओपन मार्किट के विज्ञापनों के अलावा, तो मुझे यह सुविधा हासिल रहेगी कि जब चाहूँ 180 डिग्री पर घूम जाऊँ।
मैंने एसीपी प्रवीण कुमार सिंह की जय मनाई थी, इस पर चंदा रूपी भीख पर पलने वाला मनीष शर्मा कह रहा था कि तुम पुलिस के एजेंट हो। वैचारिक रूप से भ्रष्ट हो। इस इडियट को नहीं मालूम कि ह्यूमन एजेंट के रूप में एसीपी बहुत ही प्यारा इंसान है। और हाँ, सब कुछ इसी से तय होता है कि रोटी आप कहाँ से खाते हैं, कमाकर या छीनकर अथवा भीख माँगकर। अपनी मेहनत, अपनी कमाई पर जिंदा रहने वाला मज़दूर भ्रष्ट हो सकता है, शराबी-रंडीबाज, झुट्ठा, पतित हो सकता है, लेकिन इसकी भी संभावना है कि वह बेहतर इंसान हो लेकिन दूसरों के पैसों पर पलने वाला अनिवार्य रूप से भ्रष्ट ही होगा, इसमें मुझे कोई शक नहीं। और किसी भी तर्क से बेहतर इंसान हो ही नहीं सकता। सब कुछ इकोनॉमी से तय होता है। जनचौक को या फिर जनज्वार या किसी भी दूसरी वेबसाइट को कोई क्यों पैसा दे रहा है? और सशर्त पैसा लेने के बाद क्या उनके संचालक मेरी तरह से बेअंदाज-अनगाइडेड मिसाइल हो सकते हैं? कदापि नहीं। मैं आजाद हूँ क्योंकि मैं किसी से चवन्नी भी नहीं लेता। शुद्ध रूप से अपनी मज़दूरी पर पल रहा हूँ। लेनिन रघुवंशी की खिंचाई की फिर जय मनाने लगा। इसी तरह से जब मन आएगा एसीपी को लपेट भी देंगे और लपेटा भी है। मेरे खिलाफ मुकदमा भेलूपुर थाना में लिखा गया था, वहाँ के इस समय के एसीपी अतुल अंजान त्रिपाठी से मैंने दो-टूक सवाल किया है और वह भी पब्लिकली, तो मैं पुलिस का आदमी कैसे हुआ भाई। अब अगर कोई पुलिसकर्मी-अधिकारी चंदे पर पलने वाले भिखमंगों-क्रांतिवीरों से बेहतर इंसान है तो मैं उसकी तारीफ क्यों न करूँ? एसीपी अतुल अंजान त्रिपाठी भी तो मेहनतकश हैं, चूँकि अफसर हैं तो ऐक्शन में लीड रोल में भी होंगे और हर तरह का जोखिम भी उठाएंगे तो हमारी तारीफ के हक़दार वह क्यों नहीं हो सकते? जबकि मनीष शर्मा अपने होने की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए निरर्थक बंदरकुद्दी करता रहता है क्योंकि जाँगर खटाकर रोटी कैसे कमाई जाती है, उसको इसका हुनर ही नहीं मालूम। ऐसी कोई शारीरिक-मानसिक योग्यता नहीं कि अपनी उदरपूर्ति कर सके।
पंजाब का सुखविंदर अलग-अलग दिन अलग-अलग मजदूरों के यहाँ खाता और सोता था। अपनी शादी में किसी मज़दूर की दी हुई पुरानी शर्ट पहन रखी थी। कम्युनिस्ट ऐसे होते हैं। और ऐसे कम्युनिस्ट जब घर आते हैं तो हम जैसों का मान बढ़ता है, जबकि मनीष शर्मा जैसों की घुसपैठ जिस घर में हो जाए, वहाँ कचरम-कूट का मचना तय है।
अब आते हैं अरुंधति मार्का दानवीरों पर। ऐसे जनपक्षधर दिखने वाले लोग दरपर्दा व्यवस्था के पक्षपोषक होते हैं। समस्त समस्याओं का एकमात्र हल अगर क्रांति है तो उसे संपन्न करने के लिए बोल्शेविक उसूलों से लैस पार्टी चाहिए। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रश्न पर अरुंधति-नॉम चॉम्स्की जैसे रेडिकल विचारक आँय-बाँय-साँय बकने लगने लगते हैं।
मैंने कभी भी किसी सच्चे कम्युनिस्ट को निशाने पर नहीं लिया। प्रगतिशीलता, जनपक्षधरता और मजदूर हितैषीपन की आड़ में भाँति-भाँति की परजीविता-लोलुपता को जरूर निशाने पर लिया है। विराट राजकीय-प्रशासनिक मशीनरी को ब्लैक एंड वाइट में फासिस्ट घोषित कर देना कहाँ की समझदारी है? आठ घंटे खटने वाला बाबू, भले ही रिश्वत लेता हो, है तो मेहनतकश ही।
जनता की चेतना का स्तर आज वहाँ नहीं है, जहाँ पर दूसरे महायुद्ध के दौरान था। पूँजीवाद को अगर हराना है तो उसकी शासकीय मशीनरी के कल-पुर्जों में से भी अपने हमदर्द तैयार करने होंगे। पिछले साले एलिफैंटा की गुफा देखने मुंबई गया था। समुद्र के ऊपर बने पुल और दूसरी चमत्कारिक चीजों को देखकर मन ही मन सोच रहा था कि इन जगहों पर काम करने वाले लोगों की मदद के बिना इंकलाब को कैसे मुकम्मल किया जा सकता है।
मुंबई पर हमला करने वाले नान-स्टेट ऐक्टर को भी प्रशिक्षित तो स्टेट-मशीनरी ने ही किया था। IAS-IPS अफसरों के एक हिस्से को यह भी तो समझ में आ सकता है कि मुनाफे की अंधी हवस पृथ्वी को ही नष्ट कर देगी। शासक वर्ग के एक हिस्से को बिना अपने साथ लाए भी इंकलाब नहीं हो सकता। आदि-विद्रोही को याद कीजिए। वारिनिया की मदद सीनेटर ने की थी।
मिर्गीरोधी दवाओं के साथ मेरे पास बहुत साल नहीं होंगे तो अब मैं मुक्त होकर जीना चाहता हूँ। भाँति-भाँति की बंदिशें बेड़ियाँ सी मालूम पड़ने लगी हैं। फील्ड रिपोर्टिंग बढ़ाऊँगा, विषयों का चयन मेरा अपना होगा, जिसके केंद्र में होंगे मेहनतकश। मैं बेहतर इंसान हूँ, इसके लिए मुझे परजीवियों के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं।
कामता प्रसाद

Leave A Comment