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संजीव चंदन अपनी फेसबुल वॉल पर लिखते हैंः

कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि ‘उसने गांधी को क्यों मारा?’ (राजकमल प्रकाशन) में बाबा साहेब के प्रति उमड़े नफरत का जवाब लेखन से देना चाहिए।
वे बड़े सदाशयी हैं। उनकी सदाशयता की भी वजह होती है। भला बाबा साहेब को ‘अंग्रेजों का पिट्ठू’ कहने वाले किसी ‘विक्षिप्त शैतान’ को तथ्यों के तोड़ -मरोड़ के साथ बाबा साहेब को इतिहास के अपराधी गोडसे के साथ खड़ा करने के बाद सदाशयता से कैसे जवाब दिया जा सकता है? आलोचना को इग्नोर किया जा सकता है या उसकी आलोचना की जा सकती है। लेकिन दुष्टता को?
इस किताब के पेज 157-158 पर लेखक की बाबा साहेब के प्रति नफरत के प्रसंग में राजकमल के एक कर्मी और मेरे दोस्त को मैंने बताया तो उसने कहा कि इसके खिलाफ लिखना चाहिए। उसे भी पता है कि सिर्फ लिखने से किताब का प्रसार ही होगा। जब यह मुद्दा उछला और इसकी आक्रामकता बढ़ी तो मेरा वह दोस्त व्हाट्सएप का जवाब नहीं देता।
ऐसे नफरतों, ऐसी दुष्टताओं का इलाज ‘ पैंथर स्टाइल’ में भी तो होता रहा है। पैंथर वाले बहुत कुछ कर जाते थे- ढेला, चप्पल, कालिख से लेकर बहुत कुछ और तार्किक जवाब भी। हमलोग तो तार्किकता के साथ संवैधानिक व्यवस्था के जरिये बनिये-बामन की रीढ़ को ही लक्ष्य कर रहे हैं।
वैसे लेखक अशोक कुमार पांडेय बहस की चुनौती दे रहा है। जानकर खुशी हुई कि वह गाली-गलौच के अलावा बहस भी करता है। मरता क्या न करता। चलो बहस भी कर लेगा कोई। लेकिन पात्रता तो हासिल करो।
पात्रता के लिए इन 6 सरल सवालों का जवाब दे दो लिखित। फिर किसी तटस्थ डिजिटल प्लेटफॉर्म पर बहस कर लो।
1. अपनी किताब में पत्र को कोट करते हुए तुमने बाबा साहेब द्वारा लिखी वे पंक्तियां क्यों नहीं ली, जो उन्हें गांधी हत्या के बाद द्रवित बता रहे हैं?
2. मराठी प्रसंग के संदर्भ को काटकर और अगली पंक्ति को संदर्भहीन कर तुमने बाबा साहेब को गांधी जी के हत्यारे के प्रति सहानुभूत बताया कि नहीं?
3. तुमने बाबा साहेब को हृदयहीन लिखा कि नहीं। कृतघ्न बताया कि नहीं?
4. तुमने बाबा साहेब के वंशजों को सोशल मीडिया में ही अंग्रेजों के पिट्ठुओं का वंशज कहा है कि नहीं?
5. तुमने कई दलित लेखको को गालियां दी है कि नहीं?
6. तुम क्या अभी भी किताब की स्थापनाओं पर अड़े हो? यानी डॉक्टर अम्बेडकर को हृदयहीन और गोडसे के प्रति सहानुभूत मानते हो? यदि हां तो दुहरा दो। यदि नहीं तो किताब से वह पेज हटाओ और माफी मांगो।
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अपनी विक्षप्तता में वह खुद को अम्बेडकरवादी बताने लगा है। अम्बेडकरवादियों का डंडा पड़ा है तो बड़बड़ा रहा है।
वह, जो बाबा साहेब के वशंजों को ‘ अंग्रेजों के पिट्ठू’ का वंशज कहता रहा है।
वह, जिसने कोई अवसर नहीं गंवाया सोशल मीडिया में बाबा साहेब को अपमानित करने का।
वह, जिसने दर्जन भर दलित लेखकों को गाली दी है।
हां मैं ‘ उसने गांधी को क्यों मारा?’ के लेखक अशोक कुमार पांडेय की बात कर रहा हूँ।
उसने राजद समाचार को एक सार्वजनिक चिट्ठी लिखी है और जुगाड़ से झटके एक पुरस्कार के आधार पर खुद को अम्बेडकरवादी कह रहा है।
उसकी इतिहास दृष्टि देखिये कि 1954 में धनंजय कीर द्वारा लिखी अपनी जीवनी के खंडन न किये जाने को लेकर बाबा साहेब को ही जिम्मेवार ठहरा रहा है अपनी कारस्तानियों के लिए।
कट-पेस्ट में माहिर मैगी लेखन के उस्ताद पांडेय से क्यों उम्मीद होने लगी भला कि वह इस तथ्य की पड़ताल करे कि माई साहेब धनंजय कीर से बेहद नाराज रहती थीं। वैसे धनंजय कीर ने बाबा साहेब को हृदयहीन कहकर गालियां नहीं दी है। वे पत्र का हवाला भी नहीं दे रहे।
पांडेय को अपने बचाव में कोई मिल भी रहा है तो सावरकरवादी धनन्जय कीर। हालांकि वह उदाहरण भी गलत है।
तू इधर-उधर की बात न कर
सीधे तीन-चार सवालों का जवाब दे:
1. अपनी किताब में पत्र को कोट करते हुए तुमने बाबा साहेब द्वारा लिखी वे पंक्तियां क्यों नहीं ली, जो उन्हें गान्धी हत्या के बाद द्रवित बता रहे हैं?
2. तुमने मराठी प्रसंग के संदर्भ को काटकर और अगली पंक्ति को संदर्भहीन कर तुमने बाबा साहेब को गान्धी के हत्यारे के प्रति सहानुभूत बताया कि नहीं?
3. तुमने बाबा साहेब को हृदयहीन लिखा कि नहीं। कृतघ्न बताया कि नहीं?
4. तुमने बाबा साहेब के वंशजों को सोशल मीडिया में ही अंग्रेजों के पिट्ठुओं का वंशज कहा है कि नहीं?
5. तुमने कई दलित लेखको को गालियां दी है कि नहीं?
6. तुम क्या अभी भी किताब की स्थापनाओं पर अड़े हो? यानी डॉक्टर अम्बेडकर को हृदयहीन और गोडसे के प्रति सहानुभूत मानते हो? यदि हां तो दुहरा दो। यदि नहीं तो किताब से वह पेज हटाओ और माफी मांगो।
दिक्कत है कि वैसे जिद्दी बच्चे की तरह विक्षिप्त मैगी लेखक व्यवहार कर रहा है जो जिद्द पर आकर अपने थूक से डराने लगे। अब तो वह यह भी डरा रहा है कि वह गांधी अम्बेडकर किताब भी लिखेगा। विक्षप्तता का आलम यह कि अरुंधती रॉय से आगे जाकर किताब लिखने की धमकी दे रहा है। खुद को इतिहासकार बता रहा है। राजकमल के मालिक और ब्राह्मण-भूमिहार मैनेजरों, संपादकों को क्या खूब इतिहासकार मिला है।

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