कामता प्रसाद, कार्यकारी संपादक
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दुनिया के मजदूरों का एक होना अभी बाकी है लेकिन समूची दुनिया के थैलीशाह एक हैं। धनाढ्यों का कोई देश नहीं होता। जिनकी अचल संपत्तियाँ दुनिया के तमाम मुल्कों में हैं, वे जब देशभक्ति का राग अलापते हैं तो बड़े क्यूट लगते हैं। सेना को देशभक्ति से जोड़ा जाता है। बांग्लादेश में अवाम ने बगावत की और सेना ने सँभाल लिया मोर्चा।
दुनिया के सभी देशों का मीडिया थैलीशाहों के स्वामित्व वाला है और वह पूँजी की बादशाहत के पक्ष में जनमत को मोड़ने के काम में अहर्निश लगा हुआ है। संसदीय लोकतंत्र जब विफल हो जाए तो कमान सेना को सौंप दी जानी चाहिए, अभी तक का शासक वर्गीय नैरेटिव तो यही है।
भारत के वामदलों की टिप्पणियों पर मैं निरंतर गौर कर रहा हूँ। सभी पार्टी की आवश्यकता पर एकमत हैं। बात शुरू करते हैं RCLI-CLI-नागरिक-प्रतिबद्ध ग्रुपों से। धार्मिक सुधार, पुनर्जागरण-प्रबोधन की विचार-सरणि को जमीन पर उतारने के लिए जिद्दियाये कम्युनिस्ट जनता का वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने की बात करते हैं, छपे हुए कागजों और उसके डिजिटल स्वरूप को जनता-जनार्दन के मुँह में ठूँस देना चाहते हैं।
पर अफसोस की बात तो यह है कि देशव्यापी सघन जत्थेबंदी किसी के भी पास नहीं है। मजदूरों के संगठन अगर सशक्त होते तो मुँहामुंही यह बात पहुँचाई जा सकती थी कि पार्टी नहीं होगी तो स्वतःस्फूर्त बगावत सेना को सत्ता सौंपने की ओर जाएगी। मजदूर वर्ग अगर यूनियनों व भाँति-भाँति के संगठनों में लामबंद होता तो थैलीशाहों के इस दुष्प्रचार का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सकता था कि मंदिर-हिंदू खतरे में नहीं, खतरे में है पूँजी का राज।
शशिप्रकाश के इस कहे में मेरिट है कि अब क्रांति किसी एक देश में नहीं, समूचे खित्ते में होंगी। तो भारतीय उप-महाद्वीप के पैमाने पर कम्युनिस्टों की सशक्त जत्थेबंदी होती, मौजूदगी होती तो इस तरह की बगवातों को भुनाया जा सकता था। संशोधनवाद पर तो क्या ही बात की जाए, अपनी नासमझी के कारण संसदीय वाम से जुड़े लोगों को निशाना बनाने की बजाय सिद्धांत-व्यवहार की एकता के जरिए नई राह निकालते हुए व्यापक गोलबंदी करनी थी, जो कि हो नहीं पाई है।
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हिंदी बेल्ट के सभी माले ग्रुपों के पास गिनती के लोग ही हैं और जत्थेबंदी लगभग शून्य, ये लोग किस बिना पर बांग्लादेख की घटना से सबक सीखने का ज्ञान दे रहे हैं, समझ में नहीं आता। सुखविंदर पंजाब के लुधियाना से निकल नहीं पा रहा है। RCLI के फैशनपरस्त कम्युनिस्ट इलाहाबाद-बनारस में कभी मजदूरों के बीच जाते ही नहीं, स्टूडेंट्स को अगियाबैताली बनाने में लगे रहते हैं। आजमगढ़ के खिरियाबाग में नागरिक वाले निरंतर डटे रहे, लेकिन जमीनी स्तर पर अपनी मौजदूगी जरा भी नहीं दर्शा पाए, कोई हस्तक्षेप नहीं कर पाए। यहां तक विचारधारा के प्रसार-प्रचार में भी दयनीय रूप से विफल रहे।
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पटना के अजय सिन्हा नाममात्र के संसाधनों के साथ अति महत्वाकांक्षी परियोजना को हाथ में लिए बैठे हैं। ऐक्टिविस्ट हैं नहीं, लिखने वाले हैं नहीं, चले हैं अखबार-पत्रिका निकालने, लेकिन फिर भी उन्हें शुभकामना कि ‘परिवार’ बढ़े, कोई यह न कहे कि ये लोग नसबंदी करवाए हुए कम्युनिस्ट हैं।
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दीपक बख्शी के MLRO से काफी उम्मीदें हैं लेकिन अपने संघातिपत्यवादी (सिंडीकलिस्ट) रुझान को जब तक ये लोग छोड़ेंगे नहीं, पार्टी को सशक्त बनाने की दिशा में बढ़ नहीं पाएंगे।
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निष्कर्ष के तौर पर भारतीय कम्युनिस्टों के सारे ज्ञान किताबी हैं। जीवन से जुड़े मुद्दों पर जमीनी संघर्ष में उतरे बिना जत्थेबंदी नहीं हो पाएगी। एक घटना याद आती है। लखनऊ के सरकारी प्राइमरी स्कूल में एनजीओ के जरिए जो खाना बँटता था, वह कीड़े वाला होता था। लिबरेशन की तर्ज पर भी अगर इस मसले को RCLI वाले उठाते तो अपनी बात कहने का मौका मिलता। लेकिन, बिना एंगेज किए ज्ञानवान बनाने की शशिप्रकाश की परियोजना में भला ऐसा संभव कहाँ था। टेक्स्ट का आस्वाद लेने के क्रम में कुछ युवाओं को RCLI वाले विद्वान जरूर बना रहे हैं, लेकिन ऐसी विद्वता से म़जदूरों का राज लाने में सहूलियत होगी, इसमें भरपूर संशय है।
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CLI-RN की एडवांस एलिमेंट खोजने की वैचारिकी मुर्दाबाद, आँख मूँदकर काम करो, एडवांस एलिमेंट जो होंगे, खुद ब खुद उपरा-उतरा जाएंगे। उन्हें खोजना नहीं पड़ेगा। चारा लगाकर उन्हें फंसाने के लिए काँटा मत डालो। कोशिश करते रहे भोंदुओं के बीच से भी एडवांस एलिमेंट निकल सकते हैं।