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वाराणसीः 14 सितंबर को “हिंदी दिवस” के उपलक्ष्य में हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के आचार्य रामचंद्र शुक्ल सभागार में “ज्ञान की भाषा हिंदी: संभावनाएँ एवं सीमाएँ” विषय पर परिचर्चा का आयोजन हिंदी विभाग की तरफ से किया गया।

अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो.राजकुमार ने बताया कि अच्छी भाषा लिखना और अच्छी भाषा बोलना किसी भी भाषा के विकास में अद्भुत योगदान है। इन्होंने कालिदास के हवाले से हिंदी भाषा की परंपरा की बात कही। ज्ञान की प्रक्रिया में ज्ञान के उहापोह की बड़ी भूमिका है। हमारी भाषा तब तक संमृद्ध नही हो पाएगी, जब तक हम दूसरी  भाषा को नहीं समझ सकेंगे, जान सकेंगे।

प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने बताया कि भारतेंदु की बुनियादी चिंता हिंदी भाषा थी जिन्होंने भाषा का विस्तार 3 स्तरों पर किया-धर्म, ज्ञान और बाजार। यह तीनो स्तिथियां भारतेंदु को दिखाई दे रहा था। प्रो शुक्ल ने कहा कि ज्ञान का दो पक्ष है, एक  चिंतन का और दूसरा  सूचना का । हमें ज्ञान के चिंतन पर ध्यान देना चाहिए जिसके लिए हिंदी सक्षम है।आज हिंदी बाजार की चुनौती का भी सामना कर रही है।

प्रो. नीरज खरे ने बताया कि ज्ञान की भाषा और साहित्य की भाषा रामचद्र शुक्ल के समय साथ साथ थी। आगे कहा कि हिंदी आत्मसात करने वाली भाषा थी,लचीली थी। हिंदी का जो विस्तृत समूह हैं वहीं उसका सबसे बड़ा उपभोक्ता है।

डॉ.रामाज्ञा  शशिधर ने कबीर के पद से अपनी बात शुरू की और बताया कि साहित्य की भाषा भी ज्ञान की भाषा है। ज्ञान की भाषा की पहली भाषा अंग्रेजी है। उन्होंने कहा कि   हिंदी को हिंदी से खतरा है अंग्रेजी से नही। हिंदी के मातृभाषा में ही मौलिक साहित्य रचा जा सकता है।

डॉ प्रभात मिश्र ने कहा कोई भी ऐसी भाषा नहीं जो अंग्रेजी के सामने घुटने नहीं टेकी। हम सब किसी न किसी कारण से दूसरी भाषा के रूप में अपनाया है। हिंदी बड़ी भाषा के रूप में उभर रही है लेकिन ज्ञान की भाषा के रूप ने आना अभी बाकी है।

इस अवसर पर शोध-छात्र प्रशान्त राय ,आकांक्षा मिश्रा,विमलेश सरोज,अंकित मिश्रा,प्रियम मिश्र, अभिषेक ठाकुर ने भी अपनी बात रखी। कार्यक्रम का संचालन सर्वेश मिश्र ने किया और धन्यवाद ज्ञापन पंकज यादव ने किया।

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