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‘हिन्दी राष्ट्रवादी कवियों की साहित्यिक-सामाजिक विरासत: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन ‘
हिन्दी विभाग , काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद् , नई दिल्ली के संयुक्त तत्त्वावधान में ‘हिन्दी राष्ट्रवादी कवियों की साहित्यिक-सामाजिक विरासत: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में’ विषय पर 19 व 20 नवम्बर को आयोजित होने वाली दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शताब्दी कृषि प्रेक्षागृह में हुआ। महामना मालवीय जी की मूर्त्ति पर पुष्पांजलि तथा दीप प्रज्वलन के बाद कुलगीत के गायन से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। तुलसी के पौधे, मोमेंटों और अंगवस्त्र से अतिथियों का स्वागत व सम्मान किया गया।
हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष प्रो० वशिष्ठ द्विवेदी ने स्वागत वक्तव्य के साथ विषय प्रवर्तन किया। प्रो०द्विवेदी ने रेखांकित किया कि भौतिक पराधीनता के युग में हमारी संस्कृति और जीवन मूल्यों को ध्वस्त करने का प्रयास किया गया। उन्होंने कहा कि साहित्य और समाज के बीच परस्पर सम्बन्ध से दोनों का पोषण होता है। इसी सम्बन्ध के कारण राष्ट्रीय आन्दोलन के समय के हमारे साहित्यकारों ने देश की दुर्दशा का चित्रण व उस दशा से मुक्ति के प्रयासों के लिए उद्बोधन किया है। हिन्दी की सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कविता का सिलसिला आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से शुरू होता है। उन्होंने भारतेन्दु सहित अन्य राष्ट्रवादी कवियों की पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए अपनी बात स्पष्ट की। राष्ट्रवादी कवियों ने भारत के गौरवशाली इतिहास और इसके विस्तृत भूगोल को भी अपनी कविता का विषय बनाया। भारतेन्दु से शुरू हुई राष्ट्रवादी कविता की परम्परा को छायावादी और छायावादोत्तर कवियों ने समृद्ध किया। जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी, दिनकर, श्यामनारायण पाण्डेय, सुभद्रा कुमारी चौहान, श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद आदि ने भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से देशवासियों को जाग्रत करने का प्रयास किया।
लोकसेवा आयोग, इन्दौर के अध्यक्ष प्रो० राजेश लाल मेहरा ने बीज वक्तव्य दिया। उन्होंने राष्ट्र को परिभाषित करते हुए कहा कि जन, भूमि और संस्कृति के समुच्चय से राष्ट्र आकार ग्रहण करता है। भारत को एक सांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में ही पहचाना जाता है, यदि संस्कृति को निकाल दिया जाए तो राष्ट्र अधूरा रह जाता है। भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ हैं एक शास्त्रीय या वैदिक और दूसरी वाचिक या लौकिक। इस संस्कृति को पूर्णता में समझने के लिए इन दोनों धराओं का अध्ययन करना ज़रूरी है।
प्रो० मेहरा ने विविध वैदिक श्लोकों और लोकगीतों के माध्यम से अपनी बात रखी। याज्ञवल्क्य स्मृति के सन्दर्भ से उन्होंने कहा कि राजा का कर्त्तव्य है कि वह जिसपर विजय प्राप्त करे उसकी संस्कृति, आचार व मूल्यों की भी रक्षा करे। भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है कि इसने मात्र भूमि-विजय के स्तर से उठकर लोगों को हृदय पर विजय प्राप्त की।
इसके विपरीत भारत जिन जिन के अधीन रहा उन विजेताओं ने इसकी संस्कृति, मूल्यों, आचार और परम्पराओं को को नष्ट करने का प्रयास किया। आज भी ऐसे नैरेटिव रचे जा रहे हैं जिनसे भारतीय संस्कृति को गर्हित और लांछित किया जाता है। हमें ऐसी घटनाओं के प्रति सजग रहना चाहिए। हमारे त्योहर और सांस्कृतिक प्रतीक भारत को एकसूत्र में पिरोते हैं। हमारी लैकिक और शास्त्रीय परम्पराओं के हमारे अध्ययन का मूल भावार्थ भारत केन्द्रित होना चाहिए और यह अध्ययन संस्कृति की ओर भी उन्मुख होना चाहिए। उन्होंने शुभकामनाएँ दीं कि संस्कृति पर केन्द्रित इस संगोष्ठी जैसी चर्चाएँ आगे भी होती रहें।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काशी प्रान्त प्रचारक श्रीमान् रमेश कुमार विशिष्ट वक्ता के रूप में उपस्थित रहे। उन्होंने साहित्यकारों के दायित्व की ओर इशारा करते हुए कहा कि राष्ट्र के विषय में जो चिन्तन वैदिक काल से चला आ रहा है उसे आज के कवियों को भी वहन करना चाहिए। कोई साहित्यकार तभी याद किया जाता है जब उसके साहित्य में राष्ट्र और संस्कृति के सरोकार स्थान पाते हैं। जिस तरह से मनुष्य देह को रोग लगा करते हैं वैसे ही किसी राष्ट्र की संस्कृति व्याधिग्रस्त हो सकती है। श्रीमान् रमेश जी ने मैथिलीशरण गुप्त, तुलसी और रहीम के सन्दर्भों से कहा कि साहित्यकारों को वह सब कुछ खोजना चाहिए जो इस राष्ट्र में महान् है। कवियों को राष्ट्र और संस्कृति के रोगों को चिह्नित करने के साथ साथ इसकी आत्मा तक पहुँचना चाहिए।
उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि चिकित्सा विज्ञान संस्थान, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के निदेशक प्रो० एस एन संखवार ने संगोष्ठी के वैचारिक महत्त्व की ओर संकेत करते हुए कहा कि हमें अपने आचरण को अपने साहित्य के आलोक से मार्गदर्शन देना चाहिए।
इस सत्र की अध्यक्षता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला संकाय प्रमुख प्रो० मायाशंकर पाण्डेय ने की। प्रो० पाण्डेय ने औपनिवेशिक आख्यान को समझने पर ज़ोर दिया जिसमें उपनिवेश और उपनिवेशित, श्रेष्ठ और पतित की बाइनरी (द्वैध) रचता है। उन्होंने शोधार्थियों, अध्येताओं से आग्रह किया कि हम अपनी राष्ट्रवादी कविता को उत्तरऔपनिवेशिक फ़्रेमवर्क में देखने का प्रयास करें। इस क्रम में हमें विवेकानन्द, अरविन्द, गांधी आदि की नवजागरण कालीन चर्चा को दीनदयाल उपाध्याय तक विस्तारित करना चाहिए। यदि हम प्राच्यवादी नज़रिए से देखें तो स्पष्ट होगा कि हमारी जिस संस्कृति को उपनिवेशवाद ने हीन कहा है उसका मूल सन्देश विश्वबंधुत्व है। पश्चिम ने जिस एनलाइटमेंट के प्रसार को उपनिवेशवाद का बहाना बनाया था वह सर्वथा निष्कलुष नहीं था। आवश्यकता है कि इस गढ़ंत को विनिर्मित करके, डीकॉन्सट्रक्ट करके समझा जाए। प्रो० पाण्डेय ने कहा कि ‘शृंखला की कड़ियाँ’ और ‘संस्कृति के चार अध्याय’ हमारे इस सांस्कृतिक अध्ययन में सैद्धान्तिक रूपरेखा निर्मित करने में सहायक हो सकती हैं।
उद्घाटन सत्र का संचालन डॉ० सत्यप्रकाश पाल ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ० सत्यप्रकाश सिंह ने किया।
प्रथम अकदामिक सत्र ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा’ विषय पर केन्द्रित रहा। इस विषय पर अपने वक्तव्य में डॉ० प्रमोद श्रीवास्तव ने कहा कि भारत को एक राष्ट्र के रूप में देखने की परम्परा पुरानी है। आदि शंकराचार्य ने भी भारत के सांस्कृतिक एकीकरण का प्रयास किया जिसका विकास सूर, तुलसी कबीर के साहित्य में देखा जा सकता है। यही परम्परा अपनी युगीन विशेषताओं के साथ आधुनिक राष्ट्रवादी कवियों की रचनाओं में मुखरित होती है।
डॉ० शशिकला जायसवाल ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समय के प्रतिबंधित साहित्य के माध्यम से अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने 1857 की क्रांति पर केन्द्रित कविताओं के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट किया।
प्रो० निरंजन सहाय ने ज़ब्तशुदा और प्रतिबन्धित साहित्य में फ़र्क़ स्पष्ट किया। दूर से हमें जो धराएँ सर्वथा विपरीत महसूस होती हैं वे नरम दल व गरम दल एक ही उद्देश्य के लिये अपने अपने ढंग से प्राप्त करना चाह रहे थे। चाफेकर बन्धुओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय आन्दोलन के समय छपने वाली पत्रिकाओं में छपने वाली कविताओं को पढ़ने समझने का सिलसिला शुरू होना चाहिए। जिन पूर्वजों के त्याग और बलिदान से हम आज़ाद हुए हैं उन्हें स्मरण करना उनके कृत्यों को स्मरण रखना हमारा कर्त्तव्य है।
प्रो० चन्दन कुमार ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आशय स्पष्ट करते हुए कहा कि राष्ट्रवादी साहित्य पराधीनता के अभावों की अभिव्यक्ति है। वह हमारी वंचनाओं को स्वर प्रदान करता है। भारतीय राष्ट्रवाद नेशन-स्टेट की अवधारणा से विकसित नेशनलिज़्म से भिन्न है। नेशन-स्टेट से विकसित नेशनलिज़्म बहुधा उपनिवेशवादी है जबकि भारतीय राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद के विरुद्ध विकसित हुआ। उन्होंने बेनेडिक्ट एंडरसन के हवाले से कहा कि राष्ट्र भौगोलिक, सांस्कृतिक इकाई तो है ही , यह एक अनुभवजन्य इकाई भी है। राष्ट्र का स्वरूप इससे निर्धारित होता है कि हम कैसे अपनी संस्कृति को अपने जीवन में बरतते हैं। भारतीय राष्ट्र को समझना है तो इसे सत्ता से ज़्यादा समाज में समझें। राजनीतिक सत्ताएँ नश्वर होतीं हैं जब कि सामाजिक सांस्कृतिक सत्ताएँ अक्षुण्ण होती हैं। भारतीय राष्ट्र को समाज केन्द्रित सांस्कृतिक चिह्नों में पढ़े जाने की ज़रूरत है। भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्र को निर्मित करने में सन्तों की यात्राओं का योगदान है। अगर हिन्दू मुसलमान एकता के आईने में ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को पढ़ना है तो रसखान को, ताज को पढ़ने की ज़रूरत है। सनातन को अलग करके इसे नहीं समझा जा सकता है।
सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो० रामसुधार सिंह ने सभी वक्ताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी की। पत्रकारिता, साहित्य और राष्ट्रीय आन्दोलन का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए प्रो० रामसुधार ने प्रताप पत्रिका का उल्लेख किया। उन्होंने जयशंकर प्रसाद रचित ‘प्रायश्चित’ से लेकर ‘चन्द्रगुप्त’ नाटकों में विकसित होने वाली राष्ट्रवादी सांस्कृतिक चेतना के माध्यम से स्पष्ट किया कि भारत मानवता की मातृभूमि है। राष्ट्रवादी कवियों की बहुत सी रचनाएँ अभी तक प्रकाशित नहीं हो पायी हैं जिन्हें प्रकाश में लाना ज़रूरी है। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सोहनलाल द्विवेदी व गोपाल सिंह नेपाली की पंक्तियों और संस्मरणों के माध्यम से राष्ट्रवादी कविता के रूप का विश्लेषण किया।
सत्र का संचालन डॉ० नीलम कुमारी ने किया। डॉ० अशोक कुमार ज्योति ने धन्यवाद ज्ञापन किया।
द्वितीय अकादमिक सत्र
सत्र का विषय ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दी कविता’ था।
अध्यक्षता प्रो. श्रद्धा सिंह ने की आमंत्रित वक्ता के रूप मे प्रो. सुमन जैन, प्रो. आशीष जनकराय दवे, प्रो. परितोष त्रिपाठी, डॉ. माधुरी यादव, डॉ. मौसमी परिहार उपस्थित रहे ।
सत्र का संचालन डॉ. राजकुमार मीणा ने किया, और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. सत्य प्रकाश सिंह ने दिया।
सांस्कृतिक संध्या
प्रथम दिवस के अंत में सांस्कृतिक संध्या का आयोजन हुआ। इसमें प्रसिद्ध शास्त्रीय और लोक गायिका डॉ. सुचरिता गुप्ता और सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायक डॉ. दुर्गेश उपाध्याय ने अपनी प्रस्तुतियों से समां बांधा। आयोजन का संयोजन डॉ. विवेक सिंह ने किया।
यह संगोष्ठी हिन्दी साहित्य के राष्ट्रवादी स्वरूप और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रसार के लिए एक महत्वपूर्ण पहल है।
1. पुस्तक का अनावरण
2.प्रो. राजेश लाल मेहरा अध्यक्ष मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग अपना वक्तव्य देते हुए
3.हॉल का चित्र
4. मुख्य अतिथि IMS BHU निदेशक एस एन संखवार