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संसदमार्गी ललके झंडे वालों को पूँजीवाद की दूसरी सुरक्षा-पंक्ति बोला जाता रहा है। ये लाल बंदर उस वक्त बड़े काम के होते हैं, जब बाकी सभी मदारी भ्रम की चादर तानने में विफल हो जाएं और सत्ता-व्यवस्था का मानव-द्रोही चेहरा दिन के उजाले की तरह एकदम साफ-साफ नज़र आने लगे। पब्लिक सेक्टर जितने दिन मज़बूत रहा, लाल-बंदरों के पास 50 के करीब सांसद हुआ करते थे और वे राष्ट्रीय राजनीति में अहम भूमिका निभाया करते थे। पब्लिक सेक्टर के क्रमशः तिरोहित होते जाने के बाद उनकी जगह पर पूँजीवाद की दूसरी सुरक्षा पंक्ति होने की भूमिका में अंबेडकराइट आ गए। यह अकारण नहीं कि ललके बंदरों को अंबेडकर बेहद प्रिय हैं। ———–यहाँ मुद्दे की बात यह है कि 1956 में ख्रुश्चोव-काल में जब सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस हुई और समाजवाद को संसद के रास्ते लाने की बात कही गई तो क्या उस महादेश में मार्क्सवाद के अध्येता मर गए थे या मार्क्स-विद्या विलुप्त हो गई थी। जी, ऐसा कुछ नहीं हुआ था बस वर्ग शक्ति-संतुलन बुर्जुआ वर्ग की ओर झुक गया था। ——–साथियो, अंबेडकराइटों की ध्वजवाहक बसपा को तो मतदाताओं ने आसमान से लाकर जमीन पर पटक दिया है और चुनावी राजनीति में इसके फिर से मज़बूत होने की संभाव्यता कहीं नजर नहीं आती लेकिन ललके बंदरों का क्या? हमें जनता को बड़ी मज़बूती के साथ यह बताना होगा कि समकालीन चीन में ललके बंदर यानि संशोधनवादी ही सत्ता पर काबिज हैं और वहाँ के मज़दूर वर्ग को बेहिसाब पीड़ा भुगतनी पड़ रही है। ——-क्रांतिकारी वाम जब इन ललके बंदरों-अंबेडकराइटों के साथ मोर्चा बनाता है तो उन्हें वैधता-स्वीकार्यता प्रदान करने का काम करता है, जो कि मज़दूर-वर्ग के दूरगामी हितों के खिलाफ जाता है। सैन्य-पुलिसिया ताकत के दम पर खड़ी इस मानव-द्रोही व्यवस्था को संसद के रास्ते बदलने की बात करने वालों की नस्ल हमें पहचाननी होगी और जनता को बताना भी होगा कि ये हमारे लोग नहीं हैं। ———–विडंबना देखिए जनता-जनार्दन की दुर्दशा पर आँसू बहाने वालों में सिर्फ ललके बंदर ही नहीं, बौद्धिक संपत्ति को लेकर ललकजन्य कुंठा पाले हुए ललवा-गिरोह के जांबीज भी शामिल हैं। ललवा गिरोह जन-आंदोलन खड़ा करने के लिए आवश्यक गतिविधियों को जन-कार्रवाई का नाम देने की बजाय व्यवहार से कटकर सिर्फ ज्ञान बाँटने को ही जन-कार्रवाई मानता-बताता रहा है। और आज उसकी औकात दो-कौड़ी के एनजीओज से भी गई-गुजरी हो गई है। सर्वहारा पुनर्जागरण-प्रबोधन का काम सिर्फ किताब पढ़वाकर नहीं किया जा सकता, क्योंकि इंटरनेट पर तो बेहिसाब ज्ञान पड़ा हुआ है पर लेता कौन है? शब्द-चातुर्य भी माल है और इससे माल अंधभक्ति पैदा होती है तभी तो हमारे ललवा और उसकी लँगड़ी औलाद के पास दर्जनों जांबीज हैं। पर मज़ा देखिए ये जांबीज अपने आका के लिखे को प्रसारित-प्रचारित करने के अलावा अपनी ओर से कुछ भी सृजित करने में सक्षम नहीं हैं। तभी तो तीन दशक की यात्रा के बाद भी आज उसके पास कायदे के 10 लोग भी नहीं हैं जो उसकी पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कर सकें, कच्चा-पक्का ही सही। हमारे ललवा के नक्शे-कदम पर चलते हुए उसकी लँगड़ी औलाद स्टूडेंट फ्रंट पर भी दूसरों की तरफ से अपनी टकसाली भाषा में लेखन करते हुए नमूदार होती है। —————-मैं एक बार फिर से चिह्नांकित करते हुए कहना चाहूँगा कि बढ़िया लिख लेने वाला कायदे का मनुष्य भी हो, यह कत्तई जरूरी नहीं। वह भड़ुँआ और कमजर्फ भी हो सकता है। हमारा दोस्त सिर्फ वही हो सकता है जो व्यवहार में यह माने कि संसद के रास्ते वर्ग-संघर्ष को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। जंगली भाइयों का सैन्यवादी आग्रह आलोच्य हो सकता है, समाज में वर्ग-विश्लेषण और क्रांति की मंजिल को लेकर हमारी समझ उनसे अलग हो सकती है। राष्ट्रीय-देशभक्त बुर्जुआ विषयक उनकी समझ पर हो सकता हो कि हमें हँसी आती हो, पर जनता से उनका उत्कट प्रेम स्पृहणीय है, मर-मिटने के उनके जज्बे को कोटिशः प्रणाम। बाकी स्टडी सर्किल है, दो लाइनों का संघर्ष है, संशोधनवाद यानि कि सामाजिक जनवाद के विरुद्ध उनका फैसलाकुन संघर्ष है माने रास्ता अगर कहीं से निकलेगा तो उन्हीं के पास से निकलेगा। आमीन!!!
कामता प्रसाद

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