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बाबू चंदन सिंह जी, जो अपनी उत्कृष्ट कलाकृतियों के लिए सराहे जाते हैं।

मेरा नाम चन्दन सिंह है मैं कर्वी, चित्रकूट , उत्तर प्रदेश से हूँ । मैने चित्रकला से परास्नातक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 2024 में पूरा किया है। मैं गाँव में पैदा हुआ और गाँव में ही पला-बढ़ा हूँ । मेरी प्रारम्भिक शिक्षा ग्रामीण परिवेश में हुयी, इस कारण मेरा मन गाँव से अधिक जुड़ा हुआ है । गेहूँ-सरसों-चावल के खेत, खलिहान, बगीचे, प्राथमिक पाठशाला के स्कूल, गौशाला, वहाँ के मिट्टी के घर, वहाँ के लोगों के कपड़े, बड़े-बुजुर्गों की शाम की चौपाल, महिलाओं और पुरूषों के साथ पालतू बैल, गाय,बकरी, भेड़ का दैनिक जन जीवन (सुबह से शाम तक), खेतों की पगडण्डी,चौराहों किनारे सजी हुई दुकाने, नवरात्रि में लगने वाले मेले और रामलीला,अन्धविश्वासों विभिन्न धार्मिक मान्यताएँ और परम्पराएं, इन सबको बचपन से देखता और समझता आ रहा हूँ । यह सब मुझे अच्छा लगता है ।
कला की पढ़ाई करने मैं शहर की ओर आया तो मुझे शहर व गाँव का अन्तर समझ में आने लगा । मुझे मेरे पुराने गाँव की चीजें याद आने लगी और मेरे मन को परेशान करने लगीं । मैने अपने गाँव की छवियों को जो मेरे मन में थी उसको पेन्सिल, व रंगों की सहायता से कागज,कैनवास में अभिव्यक्त किया ।
कलाकृति ‘ बखरी ‘ के माध्यम से बदलते ग्रामीण पारिवारिक सम्बन्धों की तहों को चित्रकला के तत्वों से दर्शाने का प्रयास किया है, प्रस्तुत कलाकृति पेंसिल व पेन – स्याही माध्यम से कागज पर निर्मित है।
कलाकृति ‘ स्थानांतरण – गमन ‘(3.8× 4.5 फिट) शीर्षक से चित्र में भूमि से अन्न पैदा करने का बैल सा सामर्थ्य रखने वाला किसान मजदूर बनकर इस पूंजीवादी शहरी दुनिया में स्वयं को बेच रहा है । कृषक परिवार के पीछे एक पेड़ और शहर का ‘ लोगों ‘ लिए एक छत्र यह इस प्रतीक में है कि ‘ यह इलाका उत्पादकों का नहीं उपभोक्ताओं का है चाहे जितनी दूर पैदा होती है चीजें पर बिकती इसी इलाके में है।
‌मैने अपनी कलाकृति “ग्राम्य बोध ” ( कागज पर जलरंग) में अपने और गाँव के बीच विभिन्न सम्बन्धों, ग्रामीण जीवन के सुख- दुख, दादी – दीदी से सुनी लोककथाएँ, लोकगीतों, पुरानी स्मृतियों, संस्मरणों तथा वर्तमान पारिवारिक सम्बन्धों की तहो को टटोलकर रंगों- रेखाओं के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया हूँ । मैं स्वयं गाँव के सरल जीवन और शहर की महत्वाकांक्षा के बीच झूलता हुआ एक युवक हूँ ।
” इस बढ़ते हुए शहरीकरण में यदि मैं बचा रहा, मेरे अंदर गाँव बचा रहा
तो मैं गाँव की ओर जाना चाहता हूँ…..यदि बचे होंगे गाँव ,
और गाँवों में बचा होगा देहातीपन ।”

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