मुकेश त्यागी
समस्त संपदा पर सामाजिक मालिकाना, सभी के लिए सामाजिक श्रम में भागीदारी व हर तरह की पहचान के परे सब के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, खाद्य सुरक्षा, यातायात, स्चच्छता, खेलकूद, मनोरंजन, पुस्तकालय, आदि की अनिवार्य रूप से समान व सुलभ सामाजिक व्यवस्थाओं एवं अधिकारों का सामूहिक संघर्ष ही सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों, संकीर्णता, भेदभाव एवं नफरत के खिलाफ एकजुटता कायम करने का एकमात्र तरीका है।
हिंदू राजा अच्छे थे कि मुस्लिम शासक अच्छे थे (ये दोनों ही नहीं, दुनिया के सभी सामंती शासक मेहनतकश किसानों दस्तकारों के श्रम का उत्पाद लूटने वाले शोषक व उत्पीडक थे, पूंजीवादी जनतंत्र उससे बेहतर है, मजदूर मेहनतकश का समाजवाद उससे भी बेहतर होगा), उत्तर भारतीय अच्छे कि दक्षिण भारतीय (बुनियादी रूप से ये दोनों ही नहीं दुनिया के सारे इंसान एक से ही हैं, विकास का स्तर ऐतिहासिक वजहों से आगे पीछे होता रहा है), हिंदू धर्म अच्छा या इस्लाम (कोई भी धार्मिक विश्वास तर्क पर नहीं, आस्था पर आधारित है, इसमें सही-गलत की बहस बेमानी है, सभी को अपनी व्यक्तिगत आस्था व अनास्था का अधिकार है जब तक वे इसे दूसरे पर लादने की कोशिश न करें), तमिल अच्छी कि हिंदी या उर्दू (सभी भाषाएं संचार का माध्यम हैं, अच्छी बुरी नहीं और सामाजिक व्यवस्था सबकी शिक्षा व इस्तेमाल हेतु समान प्रोत्साहन की होनी चाहिए), स्त्रियां अच्छी होती हैं कि पुरूष (व्यक्ति के तौर पर दोनों में अच्छे बुरे पाए जाते हैं पर मौजूदा सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है), शाकाहार, वेगन या मांसाहार कौन अच्छा कौन खराब है (अपनी पसंद से खाओ, दूसरे से जबर्दस्ती मत करो), वगैरह वगैरह
ये सभी विवाद तथा बहसें संकीर्णता व नफरत फैलाने का शासक वर्ग का आजमाया हुआ तरीका है। पूंजीवादी शिक्षा, मीडिया, राजनीति आदि निरंतर इन विवादों को पैदा करते व हवा पानी खाद देते हैं। इस बात को भूल जो भी इन्हीं बहसों में पडते हैं वे संघी फासिस्टों को कमजोर नहीं करते, उनकी मदद ही करते हैं।