शशिप्रकाश की RCLI की ओर से प्रकारांतर से जारी किया गया बयान, दूसरे वाम ग्रुप भी आगे आएं और साहस-समझदारी के साथ अपनी बात रखें
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युद्धोन्माद के माहौल में कुछ असुविधाजनक लेकिन सबसे अधिक प्रासंगिक सवाल जिन्हें सबसे अधिक अप्रासंगिक बना दिया गया है!
जब भी अंधराष्ट्रवाद, युद्धोन्माद और प्रतिशोधी सैन्यवाद की लहर पूरे समाज पर हावी हो जाती है और रक्तपिपासु मीडिया का गला “ख़ून के बदले ख़ून” की चीख-पुकार मचाते हुए फट जाता है तो सच्चे क्रान्तिकारी और जनपक्षधर लोग धारा के विरुद्ध खड़े होकर इस अंधी लहर का विरोध करते हैं और युद्ध के असली चरित्र का पर्दाफ़ाश करते हैं।
इस परीक्षा में तमाम बुर्जुआ लिबरल्स और सोशल डेमोक्रेट्स हमेशा फेल होते हैं। कार्ल काउत्स्की से लेकर आजतक के सभी सोशल डेमोक्रेट्स की एक प्रमुख अभिलाक्षणिकता होती है — अंधराष्ट्रवाद! सभी प्रतिक्रियावादी युद्धों में लिबरल्स और सोशल डेमोक्रेट्स उसीतरह अपने-अपने देशों के शासक वर्गों के साथ जा खड़े होते हैं जैसे कि देश के भीतर उठ खड़े होने वाले क्रान्तिकारी युद्धों में।
सोचने की बात यह है कि शासक वर्गों की जो सत्ता अपने देश की जनता के विरुद्ध विविध रूपों में दिन-रात युद्ध छेड़े रहती है, वही दूसरे देशों से युद्ध या सीमा पर तनाव की स्थिति में अपने देश की जनता के हितों की रक्षक भला कैसे हो जाती है! सीमाओं पर लड़े जाने वाले युद्ध ज़्यादातर दो देशों के शासक वर्गों के बीच के युद्ध होते हैं। वे उन देशों की आम जनता के बीच के टकराव नहीं होते। अलग-अलग देशों की आम मेहनतकश जनता के बीच हितों का कोई टकराव नहीं होता। लेकिन युद्धों में जो सैनिक तोपों के चारा बनते हैं वे आम जनता के बेटे-बेटियाँ होते हैं। शहरों और गाँवों पर जब बम बरसते हैं तो ज़्यादातर नुकसान आम नागरिकों के जानमाल का ही होता है। देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता। देश आम लोगों से बनते हैं और शासक वर्गों के सामरिक टकरावों में वही आम लोग तबाहियों का शिकार होते हैं।
यह भी याद रखना ज़रूरी है कि पूँजीवादी दुनिया में युद्ध अपने आप में एक उद्योग है– सबसे बड़ा और सबसे लाभकारी उद्योग! सीमाओं पर जब तनाव बने रहते हैं और यहाँ-वहाँ लगातार जब युद्ध चलते रहते हैं तो युद्धक सामग्री निर्माण उद्योग फलता-फूलता रहता है। युद्धों में उत्पादक शक्तियों और सामाजिक सम्पदा का विनाश होता रहता है और युद्धोत्तर काल में शहरों तथा यातायात-संचार के साधनों आदि के पुनर्निर्माण में पूँजीपतियों को पूँजी निवेश करने और मुनाफ़ा कूटने का अवसर मिलता रहता है। इसतरह पूँजीपतियों को अपने उद्योगों की ‘प्रॉफिटेबिलिटी’ सुनिश्चित करने और ‘प्रॉफ़िट मैक्सिमाइज़ेशन’ का भरपूर अवसर मिलता रहता है। पूँजीवादी दुनिया में अगर सीमा पर तनावों, शीतयुद्धों और छोटे-बड़े युद्धों की निरंतरता न बनी रहे तो हथियारों का व्यापार रुक जायेगा या मंदा हो जायेगा और दुश्चक्रीय निराशा की ढलान पर लुढ़कती हुई विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था जल्दी ही महामंदी की खाई में जा गिरेगी।
इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि युद्ध राजनीति की ही निरंतरता होते हैं। आर्थिक जगत में पूँजीपतियों की मुनाफ़ा कूटने की गलाकाटू आपसी प्रतिस्पर्धा राजनीति की दुनिया में प्रतिबिंबित और विस्तारित होती है और अलग-अलग देशों के पूँजीपतियों के बीच यह राजनीतिक टकराव तीखा होकर, बीच-बीच में सामरिक टकरावों का रूप लेता रहता है।
यह भी समझना ज़रूरी है कि राजकीय हिंसा ही सबसे बड़ा आतंकवाद होती है। शासक वर्ग का आतंकवाद ही आतंकवाद के सभी रूपों को जन्म देता है। सत्ता के निरंतर और क्रूर दमन-उत्पीड़न से त्रस्त लोगों के सामने जब जनक्रान्ति को नेतृत्व देने वाली कोई वैकल्पिक क्रान्तिकारी शक्ति संगठित रूप में उपस्थित नहीं होती तो उसी जनता के बीच से थोड़े से लोग, हथियार उठाकर (जनता को तैयार किये बिना) सशस्त्र संघर्ष छेड़ देते हैं। यह मध्यवर्गीय अतिवादी क्रान्तिवाद, दुस्साहसवाद या आतंकवाद का रास्ता है। इस रास्ते पर चलने वाले लोग अगर एक समतामूलक, न्यायशील लोकसत्ता की स्थापना के प्रगतिशील यूटोपिया को लेकर चलते हैं तो हम उन्हें क्रान्तिकारी आतंकवादी कहते हैं, हालाँकि वे अपने लक्ष्य को कभी हासिल नहीं कर सकते और उल्टे जनक्रान्ति की धारा को नुकसान ही पहुँचाते हैं। दूसरे किस्म के आतंकवादी किसी न किसी किस्म के प्रतिगामी यूटोपिया के शिकार होते हैं। वे अतीतजीवी, पुनरुत्थानवादी, धार्मिक मूलतत्ववादी, राष्ट्रीय श्रेष्ठतावादी, राष्ट्रीय संकीर्णतावादी या नस्लवादी होते हैं। ऐसे प्रतिगामी आतंकवादी अगर शुरू से ही पूँजीवादी शासकों और साम्राज्यवादियों की कठपुतली नहीं भी होते, तो बाद में बन जाते हैं। इतिहास के अनुभव बताते हैं कि कई बार साम्राज्यवादी और पूँजीवादी शासक अपनी गोट लाल करने के लिए ऐसे आतंकवादी ग्रुपों को खड़ा भी करते हैं और उनकी आर्थिक-सामरिक मदद करते हैं। और जब उनका उल्लू सीधा हो जाता है, या कोई आतंकवादी संगठन अपना स्वतंत्र सामाजिक आधार विकसित करने के बाद उनके लिए भस्मासुर बन जाता है, तो फिर “आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध” के नाम पर उनको ठिकाने लगा दिया जाता है। कोई भी धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन या आन्दोलन अपना सामाजिक आधार तभी विकसित कर पाता है जब जनता साम्राज्यवाद या किसी किस्म के देशी निरंकुश बुर्जुआ सत्ता के बर्बर दमन का शिकार होती है और उसके सामने कोई वैकल्पिक क्रान्तिकारी नेतृत्व नहीं होता, या कोई साम्राज्यवादी शक्ति अथवा देशी बुर्जुआ सत्ता विशिष्ट कारणों से ऐसे नेतृत्व को कुचल देने में क़ामयाब हो चुकी होती है। यूँ कहा जा सकता है कि किसी भी देश में आतंकवादियों के गुट या तो साम्राज्यवाद या किसी “दुश्मन” देश के शासक वर्ग की कठपुतली होते हैं, या जनता में व्याप्त घोर निराशा, निरुपायता, पराजय-बोध और विकल्पहीनता की अभिव्यक्ति होते हैं। कई बार वे दोनों एक साथ भी होते हैं। यानी हर हाल में आतंकवाद पूँजीवादी व्यवस्था का उत्पाद होता है और उसके विरुद्ध छेड़े गये हर युद्ध का निशाना आम जनता ही बनती है, चाहे वह इस देश की हो या उस देश की। दुनिया भर में चल रहे “आतंकवाद के विरुद्ध युद्धों” में या तो साम्राज्यवादी गुट या फिर प्रतिस्पर्धी देशों के पूँजीवादी शासकों की गोट लाल होती रहती है और सारा कहर जनता पर टूटता रहता है। इसतरह “आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध” हमेशा और सबसे पहले, जनता के विरुद्ध युद्ध के रूप में ही अमली शक़्ल अख़्तियार करता है।
इस समय पूरे देश में पहलगाम के आतंकी जनसंहार के बाद बदला लेने के लिए देशभक्ति के नाम पर अंधराष्ट्रवादी युद्धोन्माद की लहर सी चल रही है जो पाकिस्तान स्थित आतंकवादी ठिकानों पर भारत के चयनित हवाई हमलों के बाद गगनभेदी कोलाहल में बदल चुकी है। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो पाकिस्तान को सबक सिखाने के नाम पर पूरा खुला युद्ध छेड़ देने की माँग कर रहे हैं। और पाकिस्तान द्वारा भी सीमा पर गोलाबारी तथा भारतीय बमबारी द्वारा लाहौर के एयर डिफेंस सिस्टम को तबाह किये जाने के बाद दोनों देशों के बीच घोषित युद्ध की सम्भावना प्रबल होती जा रही है।
पहली बात तो यह कि ऐसी कोई भी कार्रवाई कश्मीर की ज़मीन से धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद को समाप्त नहीं कर सकती। कुछ आतंकी गिरोह अगर खत्म होंगे तो उनकी जगह कुछ दूसरे गिरोह ले लेंगे। कश्मीर में आतंकवाद को जन्म भारतीय सत्ता के शासकीय आतंकवाद ने दिया है। शासकवर्गीय प्रचार से अंधे-बहरे हो चुके लोग यह जानते भी नहीं कि हाल ही में धारा 370 हटाकर और जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा छीनकर कश्मीरी अवाम के साथ जो विश्वासघात भारत के बुर्जुआ शासक वर्ग ने किया उसका सिलसिला तो 1953 में ही शुरू हो चुका था जब कश्मीरी जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार देने के वायदे को ताक पर रखकर बहुमत से चुनी गयी शेख अब्दुल्ला की सरकार को बरखास्त करके उन्हें बीस सालों के लिए जेल में ठूँस दिया गया। अफजल बेग के जनमत संग्रह मोर्चा को प्रतिबंधित कर दिया गया। तीन दशकों से भी अधिक समय से लोकतांत्रिक तरीकों से आन्दोलन चला रही कश्मीरी जनता को जब बर्बर दमन का शिकार बनाया गया तो 1980 के दशक में घोर निराशा और निरुपायता के माहौल में छिटफुट नौजवानों के आतंकवादी गुट उभरने लगे और इनमें से कइयों को मदद देने और कई नये आतंकवादी गुट खड़ा करने का काम फिर पाकिस्तानी शासक वर्ग ने भी किया। कश्मीर में भारत के बढ़ते सैन्य दमन का नतीजा यह हुआ कि जो कश्मीरी हमेशा से सेक्युलर मिज़ाज के हुआ करते थे और जिन्ना की साम्प्रदायिक राजनीति के घोर विरोधी थे, उनके बीच भी पाकिस्तान-परस्त धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवादी गुट अपना सीमित लेकिन विचारणीय सामाजिक आधार विकसित करते चले गये। कश्मीरी जनता और उसके आत्मनिर्णय के अधिकार का आन्दोलन भारत और पाकिस्तान के शासक बुर्जुआ वर्गों के टकराव के बीच पिसकर रह गया और कश्मीर दक्षिण एशिया की राजनीतिक बिसात पर बस एक मोहरा बनकर रह गया।
कश्मीर आज दुनिया का सबसे अधिक ‘मिलिटराइज़्ड जोन’ है। क्या आप जानते हैं कि ‘एसोसिएशन ऑफ़ पेरेंट्स ऑफ़ डिसअपीयर्ड पर्सन्स’ मुख्यतः कश्मीर के दस हज़ार ग़ायब हो चुके नौजवानों की माँओं का संगठन है? कश्मीर में कई हज़ार उन स्त्रियों को ‘हाफ़ विडो’ कहा जाता है जिनके पतियों को सेना उठा ले गयी और वे नहीं जानतीं कि वे अब ज़िन्दा भी हैं या नहीं। क्या आपने कुनान पोशपुरा गाँव के बारे में सुना है जहाँ सौ कश्मीरी स्त्रियों के साथ वर्दीधारियों ने सामूहिक बलात्कार किया था? क्या आप शोपियां पहलगाम और हन्दवारा में भारतीय सेना द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कारों के बारे में जानते हैं? क्या आपने दर्दपुरा गाँव का नाम सुना है जिसे विधवाओं के गाँव के रूप में जाना जाता है। वहाँ आज भी चालीस साल से अधिक उम्र का एक भी मर्द नहीं है। क्या आपको पता है कि कश्मीर की सच्चाई सामने लाने वाले कितने कश्मीरी पत्रकार, कितने बुद्धिजीवी और कितने मानवाधिकार कार्यकर्ता आज जेल के सींखचों के पीछे हैं? और आपको यह भी नहीं पता होगा कि 2019 में कश्मीर में धारा 370 हटाये जाने से लेकर अबतक साढ़े तीन हज़ार कश्मीरी राजनीतिक बंदी भारत की अलग-अलग जेलों में बंद हैं! ये सच्चाइयाँ भारतीय सत्ताधारी और बुर्जुआ मीडिया कभी भी भारतीय नागरिकों के सामने नहीं आने देंगे और कश्मीर हमेशा ही अंधराष्ट्रवादी युद्धोन्माद पैदा करने के लिए ईंधन के रूप में इस्तेमाल होता रहेगा। जाहिर सी बात है कि जबतक बंदूक के ज़ोर पर बर्बरतापूर्वक कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के बुनियादी जनवादी अधिकार को दबाकर रखा जायेगा और जनान्दोलन की कोई भी गुंजाइश नहीं बची रहेगी, तबतक निराशा के दमघोंटू माहौल में जब-तब, यहाँ-वहाँ आतंकवादी गुट सरगर्म होते रहेंगे और पाकिस्तानी बुर्जुआ शासक भी उस आँच पर अपनी रोटी सेंकते रहेंगे।
इसबार भी ऐसा ही हुआ है और अंधराष्ट्रवादी जुनून में बह रहे बहुतेरे जागरूक माने जाने वाले बुद्धिजीवी भी उन फ़ौरी बुनियादी सवालों को नहीं उठा रहे हैं जो सबसे पहले उठाये जाने चाहिए। सबसे पहला सवाल तो यह बनता है कि पहलगाम के आतंकी जनसंहार के लिए सुरक्षा की भारी चूक की क्या अहम भूमिका नहीं थी? आखिर हत्याकाण्ड के घण्टों बाद तक सुरक्षा बल क्यों घटना स्थल पर नहीं पहुँचे? संवेदनशील इलाका होते हुए भी वहाँ पहले से सुरक्षा बलों की मौजूदगी क्यों नहीं थी? सवाल तो यह भी है कि जिसतरह पुलवामा की घटना 2019 के आम चुनावों के ऐन पहले हुई थी, उसीतरह पहलगाम की घटना बिहार विधानसभा चुनावों के ऐन पहले क्यों घटित हुई है? सवाल यह भी है कि पुलवामा की घटना और उसके पीछे की सुरक्षा चूकों की जाँच के क्या नतीजे निकले थे? जम्मू कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक ने पुलवामा को लेकर जो सवाल उठाये थे उनपर सरकार की चुप्पी क्या बताती है? ये सभी सवाल युद्धोन्माद की लहर में बह गये हैं और ख़ुद को जनपक्षधर और तर्कशील मानने वाले लोग भी उसी लकीर पर सोच रहे हैं जिनपर यह सरकार उनसे सोचवाना चाहती है।
सच यह है कि मँहगाई, बेरोज़गारी, मुद्रास्फीति , जनता के बुनियादी अधिकारों में लगातार कटौती, लगातार बढ़ते दमन, एक के बाद एक काले क़ानूनों के निर्माण तथा ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग, न्यायपालिका आदि की भूमिका और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठ रहे सवालों के चलते गहराते जनाक्रोश को भटकाने और ‘डिफ्यूज़’ करने के लिए मोदी सरकार को सीमा पर झड़प या खुले युद्ध की जितनी ज़रूरत है, उतनी ही चतुर्दिक गहन संकट और जनाक्रोश के सैलाब से घिरी पाकिस्तान की शहबाज़ शरीफ़ सरकार को भी है। दोनों देश के सत्ताधारी चाहते हैं कि युद्धोन्मादी अंधराष्ट्रवाद की लहर में बहकर उनके देशों की जनता ज़िन्दगी के बुनियादी सवालों को कुछ समय के लिए भूल जाये। इसतरह,युद्ध या युद्ध का माहौल दोनों देशों के सत्ताधारियों की एक फ़ौरी ज़रूरत भी है। और बुर्जुआ शासक वर्गों को युद्ध से होने वाले सामान्य लाभों की हमने ऊपर चर्चा की ही है।
साथ ही, यह नुक़्ता भी ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान से युद्ध या युद्ध जैसी तनावपूर्ण स्थिति की मोदी की फ़ासिस्ट सरकार की एक महत्वपूर्ण उद्देश्यपूर्ति में अहम भूमिका हो सकती है। पाकिस्तान एक मुस्लिम देश है और जिस कश्मीर में आतंकी घटना को मुद्दा बनाया गया है, वह भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। ऐसे में “मुस्लिम आतंकियों” को प्रश्रय देने वाले एक मुस्लिम देश के साथ युद्ध की स्थिति पूरे भारत की मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी को दुष्प्रचार का निशाना बनाकर अलग-थलग करने और फ़ासिस्ट आतंक का शिकार बनाने में विशेष सहायक सिद्ध होगी और यह काम लगातार हो भी रहा है। पहलगाम की घटना के बाद से ही गोदी मीडिया, भाजपा का आईटी सेल और तृणमूल स्तर पर संघ के अनुषंगी संगठन इस काम को ज़ोर शोर से और लगातार कर रहे हैं। पूरे देश में कश्मीरी छात्रों और व्यापारियों को हमले और धमकियों का निशाना बनाया गया। साथ ही मीडिया, संघी दस्ते और भाजपा का आईटी सेल ने ‘हिन्दू-मुस्लिम’का खेल और जोर-शोर से, और आक्रामकता के साथ खेलना शुरू कर दिया। युद्ध के बनते हुए माहौल में मोदी सरकार एक मुँह से “राष्ट्रीय एकता” की बात कर रही है और दूसरी ओर हिन्दुत्ववादी बहुसंख्यावादी फ़ासिज़्म के सैकड़ों मुँह तृणमूल स्तर पर मुस्लिम-विरोधी प्रचार में जी-जान से जुटे हुए हैं।
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देश की मेहनतकश जनता जंग नहीं चाहती हमें चाहिए बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, रोज़गार के अवसर और जीवन की अनुकूल स्थितियाँ !
हमें युद्धोन्माद में बहककर शासक वर्गों को उनके नापाक मंसूबों में कामयाब नहीं होने देना है!
22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले के बाद एक-दूसरे को ललकारने के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच में 6-7 मई की रात से जंगी झड़पें शुरू हो गयी हैं। बक़ौल भारतीय सेना उसने पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर के कुछ आतंकी ठिकानों पर ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के तहत हमले किये। इसके बाद पाकिस्तानी सेना ने इन्हें नागरिक इलाक़े बताकर भारत के सीमावर्ती राज्यों के कुछ शहरों में हमले किये। इन हमलों में कई लोगों की जान चली गयी और सैकड़ों लोगों की ज़िन्दगी दर-बदर हुई है। इसके बाद भारत की ओर से भी जवाबी कार्रवाई की बात की जा रही है और लाहौर के एयर डिफ़ेन्स सिस्टम को नाकाम करने के समाचार हैं। इस समय चारों और युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवाद की बयार बह रही है। अफ़वाहों का बाज़ार पूरा गरम है और पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि असल में चल क्या रहा है। गोदी मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक इधर-उधर की वीडियो शेयर करके युद्धोन्माद को और भी भड़काने में लगा हुआ है। तथाकथित प्रगतिशील और लिबरल जमात भी अन्धराष्ट्रवाद की गटर-गंगा में गोते लगा रही है। कुल मिलाकर अभी स्थिति चिन्ताजनक बनी हुई है। हालात यदि पूर्ण युद्ध की तरफ़ बढ़ते हैं तो जान-माल का भयंकर नुक़सान होगा। दोनों ही देश परमाणु हथियारों से लैस हैं ऐसे में किसी भी बड़े युद्ध के परिणाम विनाशकरी साबित हो सकते हैं। हम देश की सरकार से माँग करते हैं कि युद्ध की ओर बढ़ती स्थिति को हर हालत में रोका जाना चाहिए।
देश के युवाओं को किसी भी प्रकार के युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवाद से सावधान रहना चाहिए। इस बात को हमें धैर्य से समझना चाहिए कि युद्ध किनको फ़ायदा पहुँचाता है और किनको नुक़सान और जनता को सच्चाई से वाक़िफ़ कराना चाहिए। सीमा पर तनाव या मुठभेड़ की ख़बरें आती हैं तो मीडिया और कूपमण्डूक मध्यवर्ग युद्धोन्माद को भड़काने के काम में जुट जाते हैं। ऐसे में बहुत से लोगों की रगें फड़फड़ाने लगती हैं और चारों ओर से बदला लो!, सबक सिखाओ!, घर में घुसकर मारो! आदि जैसे उन्मादी नारों का शोर सुनायी देने लगता है। मध्य वर्ग को ही इस तरह के फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद का बुखार ज़्यादा चढ़ता है! देशी-विदेशी कॉरपोरेट घराने गलाकाटू प्रतिस्पर्धा के बावजूद आपस में गलबहियाँ करके मुनाफ़ा निचोड़ने के उपक्रम में लगे रहते हैं। श्रमिक वर्ग युद्धोन्माद का अपनी पहल पर कभी शिकार नहीं बनता तथा सच सामने आते ही वह बड़ा जल्दी इससे उबर भी जाता है। लेकिन फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद के ताप में दनदनाता इतिहास बोध से रिक्त तबका बिना भूत-भविष्य का ख़याल किये अपनी ही धुन में विनाशलीला की तैयारी रचवाने की कोशिश में लगा रहता है। और यही लोग तब चुप रहते हैं जब बेहतर भोजन व ज़रूरी साजो-सामान की बुनियादी ज़रूरतों तक से भी सैनिकों को महरूम रखा जाता है!
हम माँग करते हैं कि पहलगाम, पुलवामा समेत तमाम ऐसे हमलों की उच्चस्तरीय निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए। हालिया दशकों में पाकिस्तान का शासक वर्ग बलूचों, पश्तूनों और पाक-अधिकृत कश्मीर में कश्मीरियों पर हो रहे राष्ट्रीय दमन के ख़िलाफ़ जन-प्रतिरोध का सामना कर रहा है। वहाँ की चरमराती हुई आर्थिक स्थिति ने जनता में बड़े स्तर पर रोष पैदा किया है। वहाँ जब भी जनता का असन्तोष बढ़ता है तब वहाँ के शासक जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटकाने के लिए कश्मीर के मुद्दे को उठाते रहे हैं। भारत की अर्थव्यवस्था के हालात भी इस समय बेहतर नहीं हैं। यहाँ भी समय-समय पर जाति और धर्म के नाम पर लोगों को लड़ाने के प्रयास जारी रहते हैं। देश की जनता इस समय शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार से महरूम है और बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी उसकी कमर तोड़ रही है। सीमा पर होने वाली झड़पों और युद्ध के हालात में होता यह है कि जनता अपने असल मुद्दों-मसलों को भूल जाती है और युद्धोन्माद में बह जाती है। सीमाओं पर बढ़ता तनाव सरकारों को जनता का ध्यान असल मुद्दों से ध्यान भटकाने के तौर पर राहत प्रदान कर देता है। किन्तु इससे जनता पर लदे मुश्किलों के पहाड़ में और भी इज़ाफ़ा होना तय होता है।
सोचने वाली बात यह है कि इन सैनिक झड़पों, जंगों और युद्धोन्माद का खामियाज़ा कौन भुगतता है? ज़ाहिर सी बात है जनता! उसी के नौजवान बेटे-बेटियाँ सीमा पर मरते हैं। युद्धोन्माद पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले नेताओं और अपने दिल का गुबार निकालने वाले नफ़रती चिण्टूओं को इस बात का ज़रा भी अहसास नहीं होता है कि इस दौरान उन सैनिकों के घरों में कैसा ग़मज़दा माहौल होता है जिन्हें बदला लेने के “नायक” बनाकर ये जंग की भट्ठी में झोंकवा देना चाहते हैं! और जनता के असल मुद्दों को भी युद्धोन्माद के ज़हरीले माहौल में ग़ायब कर दिया जाता है। साम्राज्यवादी युद्धों और युद्धोन्माद से फ़ायदा किसको होता है? ज़ाहिर सी बात है पूँजीपतियों और उनकी चाकर सरकारों को। क्योंकि एक तो युद्धों के दौरान पूँजीपतियों को हथियारों के कारोबार का अवसर मिलता है। पूँजीवादी हथियार उद्योग आम निर्दोषों के ख़ून की कीमत पर ही फलता-फूलता है। दूसरा, युद्धों के दौरान हुए विनाश के कारण पूँजी निवेश की नयी सम्भावनाएँ पैदा होती हैं और तीसरा इस दौरान जनता को उसके हक़ों से वंचित करने वाली डाँवाडोल व्यवस्था भरभराकर गिरने की बजाय फ़िर से ताल ठोकने लायक हो जाती है। युद्ध और क्षेत्रीय झड़पें तब तक लोगों के जीवन को लीलते रहेंगे जब तक इनकी पोषक पूँजीवादी व्यवस्थाएँ बरकरार रहेंगी। इसलिए हमारी ताक़त एक समतामूलक-शोषणविहीन समाज के निर्माण के लिए लगनी चाहिए। युद्धोन्माद में बहना हमारे लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा। मेहनतकश जनता को अपने-अपने देशों की सरकारों पर देश को जंग में झोंकने के ख़िलाफ़ दबाव बनाना चाहिए तथा अपने असल हक़-अधिकारों को एक पल के लिए भी भूलना नहीं चाहिए।