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वाराणसीः अन्तर सांस्कृतिक अध्ययन केन्द्र एवं मालवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र के संयुक्त तत्वावधान में प्रेमचंद की कहानियों के हिन्दी और उर्दू पाठों की तुलनाविषयक एक विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन हुआ। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. आशुतोष पार्थेश्वर थे। आज के विषय प्रेमचंद की कहानियों के हिन्दी और उर्दू पाठों की तुलनापर अपने व्याख्यान में प्रो. आशुतोष पार्थेश्वर ने कहा कि प्रेमचंद के प्रारम्भिक रचनाओं को लिया जाय तो उसके पाठों में ज्याद भिन्नता दिखाई देती है जबकि 1924-25 के बाद के रचनाओं में उतनी भिन्नता नहीं मिलती है।

उनकी कई रचना पहले उर्दू में लिखी गई और पहले हिन्दी में छपी सेवासदन इसका उदाहरण है। पूस की रात में भी पाठांतर है। यह औपनिवेशिक भारत में किसानी से मोहभंग की कहानी है लेकिन इसके उर्दू अनुवाद पर यह लागू नहीं होता है। इसी तरह शूद्रा कहानी हिन्दी में दस भाग में है वहीं उर्दू में केवल चार भाग में है। यह कहानी हिन्दी में विस्तार से है लेकिन उर्दू में आकर ठहर जाती है। प्रेमचंद की शुरुआती 162 कहानी में 50 कहानी पहले उर्दू में और 112 पहले हिन्दी में आई। इनमें कुछ कहानियों के प्रकाशन में लंबा अंतराल है तो कुछ दोनों भाषाओं में साथ आई। जिन कहानियों के प्रकाशन में ज्यादा अंतराल है उसमें पाठांतर में भी ज्यादा है।

उर्दू पाठ में मुहावारे, अलंकारिता, प्रवाह आदि हिन्दी रूपान्तरण से अधिक है। यही कारण है कि प्रेमा का हिन्दी में उतना स्वागत नहीं किया गाया जितना इसका उर्दू हमखुर्मा व हमसवाब उपन्यास का। इसकी इतनी लोकप्रियता हुई कि तीन संस्करण निकालने पड़े। माना जाता है कि प्रारम्भ में प्रेमचंद की हिन्दी उतनी अच्छी नहीं थी जितनी उर्दू इसीलिए उनकी हिन्दी पाठ में प्रवाह नहीं होने के कारण लोकप्रियता नहीं मिल पाई। यद्यपि किसी उर्दू पाठ में ज्यादा प्रवाह है तो कभी हिन्दी पाठ में ज्यादा। दोनों भाषाओं की रचनाओं में प्रेमचंद जहाँ ज्यादा विस्तार से बात करते हैं वहाँ ज्यादा प्रभावशाली हो जाते हैं। यदि राजनीतिक संदर्भों के आलोक में देखा जाय तो हिन्दी पाठ ज्यादा मुखर दिखाई देता है। उस भाषा की कहानी ज्यादा सफल और प्रभावी हो जाती है।

1918 की उर्दू कहानी में जो पाठ है वही कहानी जब 1921 के बाद हिन्दी में प्रकाशित हुई तो उसमें चरखा का भी जिक्र मिलने लगा। इसका कारण भी राजनीतिक प्रभाव ही है। यदपि 1924-25 के बाद की कहानियों के कंटैंट में ज्यादा अंतर दिखाई नहीं देता है। ईदगाह कहानी में 250 से ज्यादा अंतर दिखाई देता है जबकि दोनों की रचना एक साथ हुई। दोनों में मुहावरे भी अलग-अलग मिलते हैं। कुछ कहानियों में यह भी देखा जाता है कि उर्दू पाठ में मुस्लिम पात्र हैं वहीं हिन्दी पाठ में हिन्दू हो जाते हैं। बागे शहर इसका उदाहरण है। शतरंज के खिलाड़ी कहानी में उर्दू के बहुत से शब्द नहीं है इसका कारण सांस्कृतिक संदर्भ है क्योंकि मुस्लिम समुदाय के परिवारिक संदर्भ हिन्दी में नहीं आ पाया है। दूसरे वक्ता के रूप में हिन्दी विभाग के प्रो. नीरज खरे ने कहा कि प्रेमचंद जितने हिन्दी के लेखक हैं उतने ही उर्दू के है। कफन कहानी का जिक्र करते हुए कहा कि कोई भी कहानी एक सामाजिक संदर्भ को लेकर लिखी जाती है।

इस कहानी का हिन्दी अनुवाद स्वयं प्रेमचंद ने नहीं किया था। अनुवाद में भी कई भूल कर दी गई है जिससे पाठ भेद आ गया है। व्याख्यान के बाद वक्ताओं ने उपस्थित श्रोताओं के विभिन्न प्रश्नों के उत्तर भी दिये। स्वागत व्यक्तव्य एवं अतिथि परिचय देते हुए अन्तर सांस्कृतिक अध्ययन केन्द्र के समन्वयक प्रो. राजकुमार ने कहा कि प्रेमचंद की कहानियों के हिन्दी और उर्दू पाठों की तुलना एक विवादास्पद विषय है यदपि आशुतोष जी ने इस विषय पर गंभीर अध्ययन किया है। इनकी यह विशेषता है कि वे किसी विषय पर गंभीर अध्ययन करेक ही बोलते है।

धन्यवाद ज्ञापन देते हुए मालवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र के समन्वयक प्रो. संजय कुमार ने कहा कि आशुतोष जी से बहुत सारी जानकारी मिली और हम सभी का ज्ञान का विस्तार हुआ। कार्यक्रम संचालन प्रतीक्षा श्रीवास्तव ने किया। कार्यक्रम में प्रमुख रूप से डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा, डॉ. राजीव वर्मा, डॉ. धर्मजंग एवं शोधर्थीगण दिव्यान्शी, अनन्या, नेहा, चन्दन, अंजलि, कंचन, रंजीत समेत बड़ी संख्या में विद्यार्थी उपस्थित थे ।            

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