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संपादकीय टिप्पणीः गैर-संसदीय वाम को देखते हुए लगभग तीन दशक बीत चुके हैं। पहली बार मज़दूर आंदोलन से जुड़ी ऐसी रिपोर्ट पढ़ने को मिली है, जो कि आने वाले कल के सुनहरे दिनों की उम्मीद जगाती है। सरकारें बड़ी कंपनियों की जेब में होती हैं। बड़ी कंपनियों के पास ठेकेदारों की अनेक परतें-तहें होती हैं और सबसे निचले दर्जे का ठेकेदार-मेटे कंप्लीट अमानुष होता है। अगर आप इन ठेकेदारों-मेटों से मजदूरों की एकता की दम पर भिड़ते हैं तो पूरी प्रशासनिक मशीनरी आपको तितर-बितर करने के लिए हर हथकंडे अपनाती है।
आज मजदूरों का शोषण-दमन पूरी दुनिया में एक ही पैटर्न पर हो रहा है। मैं जब अपना घर बनवा रहा था तो हर काम ठेके पर लेने की प्रवृत्ति से परिचय हुआ। टाइल्स लगाने का ठेका दे दिया तो वह मजदूर बिना अपनी सेहत का ख्याल किए 12-12 घंटे तक भिड़ा रहा। यह कुछ-कुछ वैसा ही था, मानो मैं बाजार के लिए अनुवाद कर रहा हूँ और जितना अधिक करूँगा, उतने ही पैसे मिलेंगे।
वाम आंदोलन से जुड़े एक सज्जन का कहना था कि हर मांग सरकार से करना एनजीओवाद है। मजदूरों को अपनी मांगें मालिकों के सामने भी उठानी चाहिए। अरे भइया, जब बड़ी कंपनियाँ ठेके पर काम कराती हैं तो उन चिरकुट ठेकेदारों के सामने अपनी मांगों को रखने का तब तक क्या अर्थ रह जाता है, जब तक कि जमीन पर आपकी गोलबंदी न हो। मज़दूरों को यूनियनों में संगठित करना और उन्हें व्यावहारिक लड़ाइयों में उतारकर वृहत संग्राम के लिए प्रशिक्षित करना यही तो कम्युनिस्टों का कार्यभार है।
सूरत के कपड़ा-हीरा मजदूरों का हमने सर्वे किया था। सुपरवाइजर की जरूरत ही खत्म कर दी गई है। जितना काम करोगे, उतना पैसा मिलेगा। मजदूर खुद ही अपनी जान-अपने स्वास्थ्य का दुश्मन बन बैठा है। यहाँ हमारी लड़ाई सीधे सरकार से बनती है कि ठेका प्रथा को संपूर्णता में बंद करवाया जाए। अगर हम इस मांग को उठाते हैं तो यह एनजीओवाद कैसे हुआ भला? समस्त बीमारी की जड़ तो यही ठेका प्रथा है। ठेकेदार अगर बीच से हट जाएं निर्माण मजदूरों के लिए सीधे तौर पर मालिक जिम्मेदार होंगे और फिर उनके पक्षपोषण में जो आएगा, सरकार ही आएगी, तो उसका चेहरा बेनकाब होगा।
नीचे जो हिस्साा दिया गया है, वह सर्वहारा पाक्षिक अखबार से लिया गया हैः पटना मेट्रो व अन्य निर्माण कार्यों में असुरक्षा के कारण हो रही मजदूरों की मौत दुर्घटना नहीं, हत्या है! – Sarwahara

 

मेट्रो मजदूरों का गुस्सा भी स्वतः रूप से पहली बार परियोजना के एक सीमित क्षेत्र में ही सही लेकिन इतने बड़े पैमाने पर भड़का जिसके बल पर एमएलसी ने दवाब बनाया। हालांकि यह लड़ाई जिस तरह से अंत मे एमएलसी के ऊपरी दवाब से जीती गई, वह यह बताता है कि मजदूर वर्ग के वास्तविक संघर्ष (वर्ग-संघर्ष) का प्रकट होना बाकी है और बेहद जरूरी भी। मजदूर वर्ग के संघर्ष की ताप से डीएमआरसी और एल एंड टी को परिचित होना बाकी है। यह सही है कि ऊपरी दबाव भी मजदूरों के बीच पनपे गुस्से के कारण ही काम किया और इसलिये यह जीत भी अंतत: मजदूरों की ही जीत है, लेकिन यह भी सच है कि यह एक अप्रत्यक्ष जीत है। कहने का अर्थ है, मेट्रो के मजदूरों की अपनी ताकत का सीधा दबाव इन बड़ी कम्पनियों पर खड़ा करना और मजदूरों के वर्ग-संघर्ष (सीमित अर्थ में ही सही) की ताप का इनको प्रत्यक्ष अहसास कराना मेट्रो मजदूरों और क्रांतिकारी मजदूर संगठनों का एक फौरी कार्यभार है। अपनी वर्ग-एकता और संघर्ष का सीधा अहसास कराए बिना ऐसी खूनी कम्पनियों और इनके ठेकेदारों-सुपरवाइजरों के मनमानीपन से दिन-प्रतिदिन के स्तर पर निपटना मुश्किल ही नहीं असम्भव है। मेट्रो के मजदूरों को यह बात ठीक से समझनी होगी, क्योंकि हर दिन के शोषण व जुल्‍म-ओ-सितम से लड़ने में यह ऊपरी दबाव काम नहीं करेगा। मजदूरों को यह समझना होगा कि जब एनआईटी, गांधी मैदान और मुइनुल्हक़ स्टेडियम तक मजदूरों ने गुस्से में आकर अघोषित हड़ताल कर दिया, तब ही ही ऊपरी दबाव काम आया। इसलिए तत्‍काल आंदोलन में उतरने को नजीर बनानी चाहिए, न‍ कि ऊपरी दबाव को।

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