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आरक्षण और उप-वर्गीकरण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से उपजा मुख्य धारा के टट-पूँजिए दलितों की चिंतायें वास्तविक कम, जातिवादी अधिक
दलितों का उपवर्गीकरण का विरोध न्याय और सारतत्विक समानता के सिद्धांत के ख़िलाफ़ जाता है। आरक्षण की वयस्था को और न्यायसंगत, समावेशी और प्रतिनधिक बनाने की आवश्यकता से कोई इंकार नही कर सकता। आरक्षण एक बुर्जुआ सुधार है, लेकिन राज्य के संस्थाओं और संसाधनो पर कुछ चंद जाति और समुदाय के लोगों का क़ब्ज़ा बुर्जुआ न्याय और सुसंगत जनवाद के विरुद्ध है। ऐतिहासिक तौर पर बर्चस्वकारी जातियाँ- तथाकथित सवर्ण/द्विज ब्राह्मण, भूमिहार, क्षत्रिय, कायस्थ, बनिया आदि रहे हैं। बाद में शूद्र जातियाँ का राजनीति में बर्चस्व प्राप्त करने के बाद राज्य के सेवाओं में आने लगे हैं। ऐतिहासिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से दलित और आदिवासी शिक्षा और राज्य की संस्थाओं में भागीदारी से वंचित रहे। आरक्षण की वयस्था ने दलितों और आदिवासियों को यह मौक़ा दिया कि वे भी शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आ सके।
बहरहाल यह जानना आवश्यक है की सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में के आरक्षण और दलितों का उप-वर्गीकरण से जुड़े मामले में क्या व्यवस्था दी।
इ वी चिन्नैया (2004) के पुराने फ़ैसले को रद्द करते हुए पंजाब बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक अगस्त 2024 को 6:1 के बहुमत से फ़ैसला सुनाते हुए व्यवस्था दी कि दलितों के लिए शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में दी जाने वाली आरक्षण में दलितों का उप-वर्गीकरण किया जा सकता है। कुछ जजों ने दलितों में क्रिमि लेयर के मसले पर भी अपनी राय रखी जो केस के विचारणीय प्रश्न नही थे। मुख्य न्यायधिश डी वाई चंद्र्चूड़ एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्र ने 140 पेज के फ़ैसले में आरक्षण की नीति के क़ानूनी और न्यायिक पक्ष के साथ साथ जाति व्यवस्था से जुड़े मुद्दे पर विस्तार से विशलेशन किया है। वहीं न्यायमूर्ति गवई ने मुख्य न्यायधिश के राय से सहमति जताते हुए अपने अलग से फ़ैसला दिया है जो 281 पेज का है। एक मात्र असहमति का फ़ैसला न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने दिया है जो यह मानती हैं कि इ वी चिन्नैया का फ़ैसला सही था इसलिए राज्य को अनुसूचित जाति के बीच उप-वर्गीकरण करने का अधिकार नही है।
मुख्य न्यायाधिश डी वाई चंद्र्चूड़ द्वारा लिखित फ़ैसले का सार यह है की:-
1. संविधान का अनुच्छेद 14 अनुसूचित जातियों के बीच उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है। यह वर्गीकरण के सिद्धांत बोधगम्य विभेद (intelligible differentia) और उसके उद्देश्य के बीच के सम्बंध के आधार पर किया जा सकता है। इंदिरा साहनी का निर्णय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जाति के उप वर्गीकरण पर भी लागू होता है
2. संविधान का अनुच्छेद 341(1) कल्पित विचार(deeming fiction) नही है। ऐतिहासिक एवं आनुभविक अद्ध्ययन इस बात की ओर संकेत करते हैं कि अनुसूचित जातियाँ सजातीय (homogenous) न होकर बहुजातिय (heterogenous) है जिनका राज्य उप-वर्गीकरण कर सकता है। बहुजातिय (heterogenous) अनुसूचित जातियों का सारभूत समानता प्राप्त करने के उद्देश्य से राज्य उप-वर्गीकरण कर सकता है जो संविधान का अनुच्छेद 341(2) का उल्लंघन नही होगा। अनुसूचित जातियों का लिस्ट में केवल संसद बदलाव कर सकता है।
3. संविधान का अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के तहत राज्य को यह शक्ति प्राप्त है कि अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण कर सकता है।
4. सकारात्मक कारवाई (affirmative action) का उद्देश्य पिछड़ी जातियों के लिए तात्विक या सारभूत समानता (substantive equality) के अवसर की प्रदान करना है। दलित जातियों का उपवर्गीकरण तात्विक या सारभूत समानता (substantive equality) लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है। राज्य के सेवाओं में कुछ जातियों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व (inadequate representation) के आधार पर राज्य अनुसूचित जातियों के बीच उपवर्गीकरण कर सकता है। इसके लिए शर्त यह है कि आँकड़ों के आधार पर राज्य यह स्थापित करे कि उन जातियों-वर्गों का राज्य के सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पिछड़ेपन के करना है।
5. राज्य की सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व से सम्बंधित आँकड़े राज्य अवश्य हाई मुहैया कराए ताकि आँकड़ों के आधार पर उन जातियों के पिछड़ेपन को मापा जा सके।
6. संविधान का अनुच्छेद 355 अनुच्छेद 16(1) एवं 16(4) के तहत इस्तेमाल की जाने वाली शक्तियों पर कोई सीमा आरोपित नही करती है, बल्कि यह अनुसूचित जाति एवं अनुशुचित जन जाति का राज्य के सेवाओं में दावे का विचार करने की आवश्यकता का पून:कथन है।
7. प्रशासनिक दक्षता (administrative efficiency) को इस प्रकार देखा जाना चाहिए की जो समावेशी और तात्विक समानता जैसा कि अनुच्छेद 16(1) प्रवधानित करता है, को बढ़ावा दे।
न्यायमूर्ति बी आर गवई ने ई वी चिन्नैया का निर्णय जो दलितों का उप वर्गीकरण का निषेध करता था, के फ़ैसले को निरस्त किया करते हुए व्यवस्था दी कि:-
1. अनुसूचित जाति के उपवर्गीकरण जो जयदया लभड़ायी उपाय के लिए की जाय वह विधिसंगत है।
2. उप वर्गीकरण करने के लिए राज्य को आँकड़ों के आधार पर स्थापित करना होगा कि दूसरे जातियों के तुलना में वर्गीकृत जातियों का राज्य के सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है।
3. आनुभविक आँकड़ों के आधार पर उप-वर्गीकरण किया जा सकता है। राज्य आँकड़े इकट्ठा करे और यह पता लगाए की उपवर्गीकृत जातियों का राज्य के सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है।
4. किसी भी उपवर्गीकृत जाति समूह के लिए राज्य शत-प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था नही कर सकता है।
5. उपवर्गिकरण तभी विधि संगत होगा जब उपवर्गीकृत समुदाय के लिए आरक्षित सीटें उपलब्ध हों।
6. एम नागराज, जरनैल सिंह एवं दविंदर सिंह के मामले में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जाति के बीच क्रिमि लेयर को निकले जाने सम्बंधी निर्णय विधिसंगत है।
7. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जन जाति के बीच क्रिमि लेयर लगाने की शर्तें अन्य पिछड़े वर्गों के लिए लगाई जा रही शर्तों से भिन्न होगा।
न्यायमूर्ति बी आर गवई के क्रिमि लेयर के मुद्दे पर न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा एवं न्यायमूर्ति पंकज मित्तल ने सहमति जताई। मुख्य न्यायाधिश डी वाई चंद्र्चूड़ एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने दलितों के मलाई दार परत (creamy layer) के मुद्दे पर कोई राय नही व्यक्त किया जो उचित है।
आरक्षण सामाजिक न्याय, समानता का अधिकार, व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांत से सीधे तौर पर जुड़ा है। समानता के अधिकार को अवसर की समानता और सारभूत समानता के बार्क्स देखा जाना चाहिए। यह वंचित, सुविधाहीन, तिरस्कृत, शोषित और वहिष्कृत समुदायों के संघर्षों, चिंताओं और आकाँक्षाओं को प्रभावी तरीक़े से व्यक्त करने वाला होना चाहिए।
औपचारिक समानता से इत्तर न्यायविद्द सैंड्रा फ़्रीडमैन ने अपने एक महत्वपूर्ण शोध पत्र ‘सब्स्टैंटिव इकवलिटी रिविजेटेड’ सारभूत समानता के चार आयाम के बारे में चर्चा की है।
पहला, जो वंचित समुदाय के समस्याओं का निवारण करता हो। दूसरा, जो लांछन, कलंक, पूर्वाग्रह, रूढ़िवाद एवं हिंसा का समाधान करता हो। तीसरा, जो अभिव्यक्ति, राय एवं प्रतिनिधित्व को बढ़ाता हो। चौथा, जो विविधता एवं संरचनात्मक बदलाव को समयोजित करता हो।
इस नज़रिये से देखा जाय तो टट-पूँजिए दलितों का सामाजिक न्याय का रट और दलित एकता का नारा एक लफ़्फ़ाज़ी से अधिक कुछ लगता है। उपवर्गीकरण का विरोध का तर्क वैसा है जैसे सवर्ण आरक्षण के विरोध का तर्क देते रहें हैं-मसलन वे पढ़ते नही, गंदे काम करते हैं, उनमें मेरिट ही नही है आदि आदि। रमेश भंगी जैसे दलित बुद्धिजीवयों और कार्यकर्ताओं पर जाटव, महार और दुसाध जातियों के कुछ जातिवादी लमपटों द्वारा की जा रही ट्रोलिंग और गाली गलौज ने दलितवाद और अंबेडकरवाद का स्याह पक्ष को उजागर करता है। मायावती, चन्द्रशेखर, चिराग़ पासवान, आठवाले, प्रकाश आम्बेडकर आदि जैसे बुर्जुआ दलित नेताओं ने अपना असली वर्ग-जाति चरित्र दिखा दिया है। पूँजीवादी शोषण, सरकारी कम्पनियों का निजीकरण, चरम बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का आम दलितों के पहुँच से दूर होते जाना जैसे मुद्दों पर आंदोलन न खड़ा करके, अति दलितों को उनके हिस्से के सरकारी नौकरीयों में दी जाने वाली हिस्सेदारी के फ़ैसले पर हमला करना, उनके राजनीतिक दिवालियेपन, बौधिक कमज़ोरी एवं जातिवादी चरित्र को उजागर करता है। आरक्षण हर समस्या को समाधान नही है, बल्कि गहराई देखा जाय तो यह बुर्जुआ राजवयस्था और पूँजीवाद के लिए एक सेफ़्टी वाल्व के तौर पर रूलिंग क्लास ने हमेशा इस्तेमाल किया है। जाति के प्रश्न का समाधान जाति आधारित विचारधारा और राजनीति क़तई नही है, वरण वर्ग़िय एकता और वर्ग संघर्ष ही मानव मुक्ति का दर्शन है।

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