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जहांँ खेत और किसान हैं, वहांँ प्रेमचंद मौजूद हैं : प्रो. पुष्पिता अवस्थी 
वाराणसी: “जैसे विश्व पर मैक्सिम गोर्की के ‘माँ’ उपन्यास का प्रभाव पड़ा, वैसे ही प्रेमचंद के ‘गोदान’ और ‘रंगभूमि’ उपन्यासों का प्रभाव पूरे भारतीय समाज और विश्व भर पर पड़ा। इसलिए जहाँ खेत और किसान हैं, वहाँ प्रेमचंद मौजूद हैं।” ये बातें कहीं नीदरलैंड की‌ विदुषी प्रो.  पुष्पिता अवस्थी ने। वे हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा ‘प्रेमचंद की विशिष्ट कृति ‘रंगभूमि’ के‌ सौ साल’ विषयक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन के प्रथम अकादमिक सत्र ‘प्रेमचंद का महत्त्व’ पर अपना आनलाइन व्याख्यान दे रही थीं। उन्होंने अपनी अनुभूति साझा करते हुए कहा कि “प्रेमचंद ने हिंदी कहानी और उपन्यास को एक नई दिशा दी। वे हम प्रवासी साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उनका लेखन मर्मस्पर्शी है।
द्वितीय वक्ता के रूप में क्वांगटोंग विश्वविद्यालय, चीन से जुड़े डॉ.विवेक मणि त्रिपाठी ने कहा कि साहित्य मानवीय जीवन की झाँकी है। प्रेमचंद के अपने आपको लोक से जोड़ा, इसलिए वह हमारे जनमानस में जीवित हैं। प्रेमचंद ने आदर्शों को न केवल अपने साहित्य में अभिव्यक्त किया, बल्कि उसे अपने जीवन में भी उतारा। प्रेमचंद अतीत और भविष्य से परे वर्तमान की समस्यायों पर लेखनी चलाते हैं।
मुख्य वक्ता के रूप में लखनऊ विश्वविद्यालय से पधारीं प्रो. हेमांशु सेन ने अपना वक्तव्य देते हुए कहा कि साहित्यकार मनुष्य को मनुष्य बने रहने की प्रेरणा देता है। उन्होंने कहा कि हम प्रेमचंद को केवल उपन्यासकार की दृष्टि से देखने तक सीमित हो जाते हैं। हमें उनके कहानी लेखन और निबंध लेखन से भी गुज़रना चाहिए, जो उन्हें कलम का सिपाही घोषित करता है। ‘रंगभूमि’ में प्रेमचंद एक सिपाही की तरह औद्योगिकीकरण के संभावित खतरे की ओर इशारा करते हैं। प्रेमचंद रचित सूरदास असाधारण होकर भी साधारण बने रहने का उदाहरण है।
चौथे वक्ता के रूप में म्यांमार से आभासी मंच के माध्यम से जुड़े प्रसिद्ध साहित्यकार और ‘गगनांचल’ पत्रिका के पूर्व संपादक डॉ. आशीष कंधवे ने कहा कि प्रेमचंद को मैं भारतीय भावभूमि का साहित्यकार मानता हूँ। वह भारत की आत्मा हैं। साहित्यकार का एक ही पक्ष होता है और वह है समानता और सत्यता का पक्ष। प्रेमचंद इस कसौटी पर खरा उतरते हैं। प्रेमचंद के साहित्य का मूल लक्ष्य मानवता और स्वाधीनता के मूल्य हैं।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि प्रेमचंद ऐसे सम्राट् थे, जिनके दिल पर जनता शासन करती थी। प्रेमचंद संबंधी हरिशंकर परसाईं का संदर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि वे लिखते हैं, प्रेमचंद के जूते इसलिए फटे, क्योंकि उन्होंने बुराइयों और विसंगतियों पर ठोकर मारी थी। उपन्यास पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि ‘रंगभूमि’ उपनिवेशवाद में उद्योगों के विकास और गरीबों के उजाड़ के संघर्ष के बीच रचा गया है। प्रेमचंद के सभी उपन्यासों में ‘रंगभूमि’ अपनी नाटकीयता के कारण अलहदा है। प्रेमचंद की स्वाधीनता का सजीव रूप ‘रंगभूमि’ का पात्र सूरदास है। प्रसाद के साथ प्रेमचंद को जोड़ते हुए कहा कि वे अपने इतिहासबोध और तत्कालीन संघर्षों को मिलाकर अपनी कथाभूमि का वितान रचते हैं। उन्होंने निष्कर्ष देते हुए कहा कि ‘रंगभूमि’ दमन के खिलाफ दृढ़ता और अभाव के खिलाफ सृजनात्मकता का उपन्यास है।
संगोष्ठी के इस सत्र का संचालन डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. नीलम कुमारी ने किया।
‘औपनिवेशिक भारत और ‘रंगभूमि’ शीर्षक दूसरे सत्र में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के सहायक आचार्य डॉ० विनम्र सेन सिंह ने कहा कि “प्रेमचंद ने सूरदास के माध्यम से जनता के राजनैतिक और आर्थिक संघर्ष को एक नया रुख देने का प्रयास किया। सूरदास का संघर्ष स्वतः स्फूर्त संघर्ष है। प्रेमचंद ने सूरदास के द्वारा नैतिकता के बल पर औपनिवेशिक सत्ता से लड़ने का रास्ता दिखाया। प्रेमचंद ने सूरदास के माध्यम से यह भी बताया कि बिना दृढ़ इच्छाशक्ति और अदम्य संकल्पशक्ति के स्वतंत्रता आंदोलन को नहीं जीता जा सकता। सूरदास को एक आम आदमी के प्रतिरूप के रूप में भी देखा जाना चाहिए। वह दोहरी सत्ता से लड़ रहा था। एक तरफ़ वह महेंद्र कुमार जैसे सामंती प्रतीक से तो दूसरी तरफ मिस्टर जॉन सेवक जैसे पूँजीवादी सत्ता के प्रतीक से लड़ रहा था। यह उपन्यास धर्म और व्यापार की लड़ाई में धर्म की विजय की कथा है।”
  हिन्दी विभाग, बी०एच०यू० के प्रो० सत्यपाल शर्मा ने कहा कि “रंगभूमि के सूरदास का जो आंदोलन है, वह औपनिवेशिक ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ है। यह लड़ाई आर्थिक तंत्र के खिलाफ है। वह औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के विरोध का प्रतीक है। ब्रिटिश सत्ता ने पहले भारत पर आर्थिक शिकंजा कसा इसके बाद उसने राजनीतिक सत्ता स्थापित की। उपन्यास में भी पहले आर्थिक औपनिवेशीकरण, फिर राजनीतिक औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया दिखाई देती है। ‘रंगभूमि’ उपन्यास औपनिवेशक भारत का दर्पण है।”
ओसाका विश्वविद्यालय, जापान के डॉ० वेद प्रकाश सिंह ने ऑनलाइन माध्यम से अपनी बात रखते हुए कहा कि “विदेश में प्रेमचंद को खूब पढ़ा-पढ़ाया जाता है। प्रेमचंद जब जीवित थे, तभी उनकी रचनाओं का जापानी भाषा में अनुवाद हो चुका था। औपनिवेशिक भारत का जो रूप इस उपन्यास में प्रस्तुत हुआ है, वह शायद ही किसी और रचना में हुआ है। प्रेमचंद ने धर्म के साधन के रूप में जो औपनिवेशीकरण का प्रतिकार किया है, वह दुर्लभ है। सूरदास की लड़ाई अकेले की लड़ाई थी। सूरदास का जो अंत हुआ, वह यह दिखाता है कि अगर सूरदास जैसे नायक को व्यापक जनसमूह का सहयोग नहीं मिला तो ऐसे व्यक्तित्व का यही हश्र होगा।”
लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रो० अलका पांडेय ने कहा कि “प्रेमचंद कला के प्रति यथार्थवादी होते हुए भी उद्देश्य के प्रति आदर्शवादी हैं। प्रेमचंद अपने आपमें एक विचारधारा हैं। संस्था हैं। तमाम बुराइयों से घिरे होने के बावजूद आदर्श बुन लेना प्रेमचंद के वश की ही बात थी। इस उपन्यास में समस्या तो है, लेकिन उसके हल सांकेतिक हैं।
 इस सत्र के अध्यक्ष हिन्दी विभाग, बी०एच०यू० के प्रो० कृष्ण मोहन सिंह ने कहा कि ‘रंगभूमि’ का सूरदास एक काश्तकार, भिक्षुक और अंधा है। ये तीनों विशेषताओं से युक्त होने के बावजूद वह असहाय है। गांधी जी के असहयोग आंदोलन के फेल होने के बाद की जो चेतना है, वह इस उपन्यास में दिखाई पड़ता है। हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई धर्म का मेल करना भी इस उपन्यास का उद्देश्य है। प्रेमचंद ने सूरदास को किसी भी कीमत पर समझौता न करनेवाला चरित्र बनाकर दिखाया है।” इस सत्र का संचालन हिन्दी विभाग, बी०एच०यू० के सहायक आचार्य डॉ० राज कुमार मीणा ने और धन्यवाद ज्ञापन महिला महाविद्यालय, बी०एच०यू० के सहायक आचार्य डॉ० हरीश कुमार ने किया।
तृतीय अकादमिक सत्र ‘रंगभूमि में किसान, भूमि एवं अन्य समस्याएँ’ विषय पर केंद्रित था। डॉ. किंगसन सिंह पटेल ने प्रेमचंद की कहानियों में आई किसानों, जमींदारी प्रथा और भूमि से संबद्ध समस्याओं पर बात की। डॉ. रामाज्ञा राय ने अपने वक्तव्य में कहा कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसानों की उपेक्षा हो रही है। हमें सभी प्रकार के विमर्शों की किताब तो मिल जाती है, लेकिन किसान विमर्श की नहीं। मुख्य वक्ता नेपाल से पधारे प्रो. अजित खनाल ने कहा कि ‘रंगभूमि’ सामंती अथवा साम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष तथा सत्य के प्रति आग्रह का उपन्यास है। तीसरे  अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में वरिष्ठ आलोचक प्रो. नीरज खरे‌ ने‌ कहा कि अन्याय‌ के‌ विरुद्ध संघर्ष को ही ‘रंगभूमि’ का नायक सूरदास अपना धर्म मानता है। इस सत्र‌ का संचालन डॉ. प्रभात कुमार मिश्र और‌ धन्यवाद ज्ञापन डॉ. प्रियंका सोनकर ने दिया।
वैचारिक व्याख्यानों के बाद आज संध्या में काव्य गोष्ठी का सफल आयोजन हुआ, जिसमें प्रो. वशिष्ठ अनूप, डॉ. अशोक सिंह, शिवकुमार पराग, डॉ. सुशांत शर्मा, डॉ. कमलेश राय, हीरालाल मिश्र ‘मधुकर’, सुरेन्द्र कुमार वाजपेयी, डॉ. रचना शर्मा, धर्मेंद्र गुप्त साहिल, डॉ. विनम्र सेन सिंह, डॉ. सुजीत कुमार सिंह आदि कवियों ने काव्यपाठ से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कवि-गोष्ठी का संचालन डॉ. सत्य प्रकाश सिंह ने किया।
दूसरे दिन का प्रारंभ प्रातः 09:00 बजे तकनीकी सत्र से हुआ। इस सत्र की वक्ता डॉ. नीलम सिंह ने प्रेमचंद के उपन्यासों पर अपनी बात रखते हुए कहा कि प्रेमचंद के साहित्य में जो बातें निहित हैं, उन्हें हमें अपने जीवन में उतारना होगा। उन्होंने यह भी कहा कि अपने समय और समाज की गतिशीलता को जैसे प्रेमचंद ने पकड़ा, वह कोई दूसरा साहित्यकार न कर सका। मुख्य वक्ता डॉ. शशिकला ने कहा कि हम प्रेमचंद की तुलना गाँधी से करते हैं, इसके साथ-साथ हमें प्रेमचंद में कबीर के आदर्शों को भी देखना चाहिए। तकनीकी सत्र की अध्यक्ष डॉ. सपना भूषण ने प्रेमचंद को कबीर और नागार्जुन दोनों से जोड़ते हुए अपनी बात की। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के पात्रों में जो चिनगारी दिखाई देती है, वह नागार्जुन के यहाँ और प्रखर हो जाती है। इस सत्र में दिव्या शुक्ला, ममता यादव और मेवालाल ने अपने शोधपत्रों का वाचन किया।
सभागार में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो. वशिष्ठ अनूप, प्रो. आभा‌ गुप्ता ठाकुर, डॉ. विवेक सिंह, डॉ. लहरी राम मीणा, डॉ. धीरेन्द्र राय, डॉ. धीरेन्द्र नाथ चौबे और अनेक शोधार्थी तथा विद्यार्थी मौजूद रहे।

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