देश के सारे उद्योग एआई मशीनों पर जाने की तैयारी कर रहे हैं।
इसके लिए देश को तैयार करने का काम काफी पहले से सरकार के स्तर पर भी शुरू कर दिया गया है।
अब उद्योगों में लोगों के लिए ज्यादा काम नहीं होगा। काम ढूंढने के लिए गरीब लोग शहरों की तरफ न भागें उन्हें रोकने के पक्के इंतजाम सरकार की ओर से लगातार किए जा रहे हैं।
इसके लिए सबसे पहले अलग रेल बजट को बंद किया गया, क्योंकि हर रेल बजट में जनता की मांग पर नई रेलगाड़ियां चलाने की घोषणा करनी पड़ती थी।
इसके अलावा नीति में एक और बड़ा बदलाव करते हुए नई ट्रेनों के रूप में इतनी महंगी गाड़ियां चलाने का फैसला किया गया, जिसका किराया गरीब वहन ही न कर सकें और वे रोजगार के लिए महानगरों की तरफ जाने का सोच भी न सकें। ट्रेनों में रिजर्वेशन के नियमों को कड़ा किया गया और कैंसिलेशन लूट बढ़ाने के लिए तत्काल जैसी व्यवस्था शुरू की गई।
इसी तरह सामान्य बसों की संख्या को कम कर चीन से आयातित पार्ट्स से असैंबल एसी बसें चलाई गई हैं, जिनमें कभी भी आग लग जाती है और जिनका किराया सामान्य बसों से डेढ़ से दोगुना है।
इन सब उपायों का मकसद सिर्फ एक है, गरीब और भूखे मर रहे लोगों को शहरों की तरफ आने से रोकना।
नई नीति का उद्देश्य साफ है कि गरीब लोग शहरों से दूर दराज के इलाकों में भले भूखे मर जाएं पर शहर में आकर न मरें। शहर में आकर मरे तो खबरें बन सकती हैं, लेकिन दूरदराज के इलाके में भूखे मर जाएंगे तो किसी को पता भी नहीं चलेगा।
विश्व हंगर इंडेक्स में जब हमें नेपाल भूटान से भी नीचे दिखाया जाता है तो महानगरों में जमेटो -स्वीगी छाप मौज मार कर मोटे हो रहे लोगों को इस पर विश्वास ही नहीं होता, क्योंकि मीडिया देश के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों की भूख को कवरेज ही नहीं दे रहा।
ओडिशा के आदिवासी इलाकों में भूख से बेहाल लोग आम की सूखी गुठलियों का दलिया बनाकर खा रहे हैं। क्योंकि सरकार ने उन्हें मुफ्त चावल देना बंद कर दिया है। मीडिया से खबर गायब है।
आम की फंगस लगी गुठलियों का दलिया खाने से जब कुछ आदिवासियों को मौत हुई तो विपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का इस पर बयान आया। तब जाकर लोगों को थोड़ी बहुत जानकारी हुई। हालांकि नेशनल मीडिया में इस खबर को भी कोई तवज्जो नहीं दी गई और यह स्थानीय मीडिया में ही दब कर रह गई।
मगर यह खबर बताती है कि हंगर इंडेक्स में देश सचमुच दयनीय स्थिति में है। अगली बार जब हंगर इंडेक्स भारत की दयनीय स्थिति बताए तो खबर को गंभीरता से लेना। मूर्खों की तरह हंसना मत, क्योंकि तुम अपने ही देश से बेखबर हो। मीडिया तुम्हें खबर देने का जोखिम नहीं ले सकता।
20वीं सदी में जब उद्योगों को बड़े संख्या में श्रमिक चाहिए थे तो गांवों से बड़े पैमाने पर पलायन शहरों की ओर करवाया गया। इसलिए रेल यात्राओं को बेहद सस्ता रखा गया। बे-टिकट सफर करने वालों पर जांच बहुत ज्यादा कड़ी नहीं थी। मगर जैसे-जैसे मशीनीकरण बढ़ा, श्रमिकों की जरूरत कम हुई तो लोग बच्चों की शिक्षा के लिए शहर आने लगे। लोग अपनी गरज शहर आ रहे थे, इसलिए किराए बढ़ाने का क्रम शुरू हुआ टिकट जांच में सख्ती बरती जाने लगी।
अब तो उन्हें पूरी तरह रोकने की तैयारी है। आने वाले समय में गरीब गांव वालों के लिए शहर जाना सपना बनकर रह जाएगा।