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प्रयागराजः हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आज शताब्दी व्याख्यान के अंतर्गत आलोचक व कथाकार प्रोफेसर रोहिणी अग्रवाल ”साहित्य की स्त्री दृष्टि’, विषय पर व्याख्यान देने के लिए उपस्थित थीं।
स्वागत उपरांत व्याख्यान के शुरुआत में ही उन्होंने स्त्रीवादी आंदोलन के सन्दर्भ में टिप्पणी करते हुए बताया कि यह मूलतः वर्चस्व के खिलाफ मुक्ति का आंदोलन है। और यह वर्चस्व पितृसत्ता के रूप में है। वर्चस्व से यह लड़ाई केवल स्त्री के लिए नहीं स्त्री और पुरुष दोनों की मुक्ति के लिए है। और यह कार्य तलवार की धार पर चलने जैसा दुर्गम और दुर्साध्य है। यह लड़ाई व्यवथा के खिलाफ लड़ाई है; और व्यवस्था में सुरक्षाबोध है, जो इस लड़ाई को और भी अधिक कठिन बना देता है। पितृसत्ता को समझाते हुए उन्होंने बताया; जैसे किसी भी विषय को समझने के लिए बहुआयामी ज्ञान आवश्यक होता है वैसे ही पितृसत्ता को भी हमें उसके अलग अलग स्तरों के साथ समझना होगा। यह पितृसत्ता कई स्तरों पर अपने आधार गृहण करती है। पहला है परिवार संस्था- परिवार के स्तर पर ही हम स्त्री पुरुष विभेद को चिह्नित कर सकते हैं। जैसे संतान के जन्म के समय अभी भी पुत्र की कामना की जाती है और लड़की होने पर ‘चलो कोई बात नहीं लक्ष्मी आयी है’। जैसे सांत्वना मूलक वाक्य के साथ लड़की के होने को कमतर दिखाया जाता है। अतः हमें सबसे पहले परिवार के स्तर पर ही, अन्य के सामने स्वयं को इंट्रोस्पेक्ट करना होगा। दूसरा है- विवाह संस्था। इसे तो प्रो रोहिणी ने ‘स्त्री पराधीनता का वैध शास्त्र कह डाला’। जिसमें जाने के बाद प्रारम्भ से लेकर अंत तक स्त्री को पुरुष से कमतर ही माना जाता है, आश्रिता माना जाता है। उन्होंने कहा कि मेरिटल रेप वगैरह की बात किये बिना तो यह कहा ही नही जा सकता कि स्त्री अपनी चेतना के प्रति सजग है। तीसरा है- धर्म संस्था; यह संस्था जो हमारे वजूद को बनाती है, जो संस्कृति को संरचना देती है। प्रो ने विभिन्न धर्म ग्रंथो में मौजूद प्रसंगो के संदर्भ भी दिए जिनमे मूलतः पुरुष को स्त्री के श्रेष्ठ दिखाया गया है। यही वह संस्था है जो सांस्कृतिक और धार्मिक प्रवंचनाओ को लिखती, गढ़ती है; जिनके केंद्र में मनुष्य नहीं बस बनी बनाई व्यवस्था होती है। चौथी है- न्याय संस्था। जिसका जिक्र करते हुई उन्होंने बताया कि आज न्याय व्यवस्था यह यह मानती है कि घरेलू हिंसा ठीक नहीं है। परन्तु पहले ऐसा नहीं था.धार्मिक न्याय ग्रंथो में भी न्याय का पलड़ा कभी स्त्री के साथ नहीं रहा। जैसे अफगानिस्तान में धार्मिक न्याय संहिता लागू है और वहां पुरुष के बिना किसी भी स्त्री के सामाजिक जीवन को लगभग अवरुद्ध किया जा चुका है। इस तरह रोहिणी जी ने पितृसत्ता के विभिन्न आधारों को सामने रखा । आगे उन्होंने बताया कि स्त्री आधी दुनिया है और पुरूष आधी। दोनों की बात को एक साथ लेके चलना जरूरी है। पितृसत्ता भी दोनों को दमन समान रूप से करती है। अतः स्त्री विमर्श लैंगिक असमानता के विरोध में पितृसत्ता के खिलाफ खड़ी की गई एक साझी वैचारिक लड़ाई है।
अपने व्याख्यान के बाद प्रो रोहिणी ने उपस्थित छात्रों के प्रश्नों को लेकर उनसे संवाद किया। जिसमें उन्होंने छात्र छात्राओं की जिज्ञासाओं को शांत किया तथा समसामयिक संदर्भों तक को लेते हुए, स्त्री विमर्श कैसे आगे जाना चाहिए इस बारे में भी चर्चा की।
कार्यक्रम का संयोजन प्रो संतोष भदौरिया ने किया तथा अध्यक्षता प्रो प्रणय कृष्ण कर रहे थे।कार्यक्रम के संचालन का कार्य डॉ अमृता ने किया। कार्यक्रम में प्रमुख रुप से विभागाध्यक्षा प्रो लालसा यादव,प्रो भूरेलाल, प्रो राकेश सिंह, प्रो कल्पना वर्मा, प्रो अनीता गोपेश, प्रो सुधांशु मालवीय, रश्मि मालवीय, डा अशरफ अली बेग, डॉ सूर्यनारायण सिंह, प्रो.रामपाल गंगवार, डा शिवकुमार यादव, डा अपर्णा तथा विश्विद्यालय के शोध छात्र एवं अन्य छात्र उपस्थित थे।

प्रस्तुति
जगदीश
शोध छात्र, हिंदी विभाग

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