मुकेश त्यागी

मुकेश त्यागी
राज्य या शासन का अर्थ ही शासक तबके के हितों की पूर्ति के लिए दूसरे तबकों का दमन है अर्थात राज्य बुनियादी तौर पर ही एक दमन का औजार है। साथ ही इसमें शासक वर्ग के अंदरूनी टकरावों का निर्ममतापूर्वक समाधान भी शामिल है। जितने बडे राजा, बादशाह, शासक हुए जिन्हें महान या कल्याणकारी या उदार या ऐतिहासिक तरक्की करने वाले कहा जाता है वे सभी वही थे जो अपने विरोधियों को सख्ती से कुचलने में कामयाब रहे। अशोक हो या अकबर या शिवाजी, चंगेज खान हो या पीटर महान, एलिजाबेथ प्रथम हो या शार्लमैन, या अब्राहम लिंकन, सभी ने विरोध को सख्ती व निर्ममता से कुचला, और अपने तबके के लिए कामयाब शासन चलाया इसीलिए अपने तबके द्वारा महान कहलाए। इस दमन के दौरान विरोधियों की जागीरें जब्त की गईं, धर्म स्थल तोडे गए और धन लूट लिया गया।

निश्चित रूप से इस दमन का काम करने वाले सामंतों को उन्होंने जागीरें बांटी, अपने शासन को औचित्य देने वाले पुजारियों/पादरियों/मौलवियों को भी उपकृत किया, धर्म स्थल बनवाए, और फौजी कार्रवाई के लिए धन उपलब्ध कराने वाले व्यापारियों को लाभ पहुंचाया। अतः स्वयं शासक वर्ग में भी कुछ के लिए ये कल्याणकारी थे और कुछ के लिए जालिम।

जहां तक अधिकांश शासित शोषित जनता की बात है कोई भी राजा बादशाह कल्याणकारी नहीं था, सभी उत्पीडक थे। सामंती शासन की बुनियाद ही भूदासों, किसानों व दस्तकारों के श्रम के उत्पाद के आधे से अधिक हिस्से को राजाओं, सामंतों, धर्मतंत्र व महाजनों द्वारा बलपूर्वक हरण तथा उपभोग था। अमूमन दुनिया के इतिहास में इन्हें ऐसे ही जाना और समझा जाता है।

भारत में ऐतिहासिक परिस्थितियां कुछ ऐसी रहीं कि यहां एक साथ हिंदु व मुस्लिम दो धर्मों के पुनरूत्थानवाद या रिवाइवलिज्म की धाराओं का टकराव हुआ और किसी नवजागरण के जरिए प्रतिगामी रिवाइवलिज्म की इन दोनों धाराओं की पराजय या खात्मा नहीं हो पाया।

बजाय इसके औपनिवेशिक शासन ने इन्हें अपने हित में इस्तेमाल किया व बढावा दिया। देशी सामंतों व उभरते बुर्जुआ वर्ग ने भी इन्हें अपने हित में उपयोगी पाया, जिससे पैदा सांप्रदायिक जहर का नतीजा दो धर्म को दो राष्ट्र मानकर देश का विभाजन हुआ।

इसलिए यहां इतिहास लेखन का बडा हिस्सा भी इसी दो धर्म=दो राष्ट्र के पूर्वाग्रहों आधारित रहा है जिसमें किसी वस्तुगत नजरिए के बजाय शासकों व अन्य ऐतिहासिक किरदारों को सांप्रदायिक नजरिए से रूमानीकरण या ग्लोरीफाई किया गया या फिर नफरत का पात्र बना दिया गया। भारत व पाकिस्तान की शोषक पूंजीवादी सत्ताओं का स्वार्थ इसी में था। पाकिस्तान के फौजी हुक्मरानों ने इसका खूब इस्तेमाल किया और भारत के फासिस्ट संघी शासक भी इसका ऐसा ही प्रयोग कर रहे हैं। मुगलों, मराठो, राजपूतों संबंधी पूंजीपतियों के मीडिया की प्रायोजित बहसें इसी नफरती एजेंडा का हिस्सा हैं।