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उस वक्त कहां रहते हैं तुम्हारे बच्चे
जब तुम हमारे बच्चों के हाथों में पत्थर थमाते हो
जब तुम्हारे बच्चे विदेशों के विश्वविद्यालयों में सीख रहे होते हैं राजनीति के नए तौर-तरीक़े
उस वक़्त हमारे बच्चों के हाथ में धार्मिक झंडा होता है
जब तुम्हारे बच्चे किसी बड़े रेस्तरां में लंच का आनंद उठा रहे होते हैं
उस वक़्त हमारे बच्चे रोजगार के लिए सड़कों पर भटक रहे होते हैं
जब तुम्हारी बेटियां महंगी गाड़ियों में पब की ओर जाती हैं
उस वक़्त हमारी बेटियों के गले से कोई दुपट्टा खींच रहा होता है
तुम बयान देते हो
ज़वानी के उन्माद में यह सब होता रहता है
राजनीति की रोटियाँ सेंकते- सेंकते
तुम्हारी जीभ को भी लकवा मार गया है
ना जाने कानून की देवी की आँखों पर पट्टी किसने बांध दी और कब
इतनी कालिख के बावजूद तुम्हारा सफ़ेद कुर्ता
इतना सफ़ेद कैसे रहता है
तुम उस कीचड़ में कभी पैर नहीं डालते
जो हल्की बारिश में सड़कों पर उफनता रहता है
हाथ में समोसे की प्लेट लिए
हवाई यात्राओं से तुम लुफ्त लेते हो प्राकृतिक आपदाओं का
हमारी समस्याओं को ज़ेब में रखकर
तुम लेते हो रेड वाइन की चुस्कियां
तुम उसी सत्र से ग़ायब रहते हो
जिस सत्र के लिए तुम्हें चुना गया है
सुर्खियों में बने रहने के लिए
तुम कभी आ जाते हो अस्पताल कभी अनाथालय कभी सड़कों पर
हमारे ही पैसों पर ऐय्याशी करते हुए
तुम बनना चाहते हो विश्व गुरु
गांधी के राम को तो तुमने कब का मार दिया
अब जब तुमने एक और राम को पैदा किया है
वह राम भी आज भयभीत हैं
तुम युवाओं को बना देना चाहते हो उन्मादी
तुमने इनका इस्तेमाल किया नारेबाज़ी के लिए
तुम छीन लेना चाहते हो हमसे हमारा ही देश
तुम अज्ञात अपराधी की तरह घूम रहे हो हमारे इर्द-गिर्द
क़लम थामे हाथों से तुम डरते हो
परंतु
तुम्हारी सत्ता की नींव को हिलाने के लिए जरूरी है क़लम की निब को सख़्त होना
हजारों ग़लतियों के बाद तुम जाते हो गंगा-घाट
बजाते हो घंटियां
लगाते हो डुबकी
क्या सच में तुम्हारे राम सारे पाप धो देते हैं
क्या सच में तुम पवित्र हो जाते हो
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अब हम प्रेमी-प्रेमिका नहीं हैं।।

यही वह समय है

जब लताओं – सा परिगमन कर

फरहद-सा सुगंधित कर भींच लेते हो

तुम्हारे वक्ष को नाज़ुकी से चोटिल कर

तुम्हें चूमना चाहती हूँ

परंतु

लज्जावश तुम्हें चूमती नहीं

क्षणभर जी कर उठ बैठती हूँ

लंबी गहरी श्वास भरकर फ़ैज को याद करती हूँ

इस नाट्यशाला में हम प्रेमी-प्रेमिका हैं

रुको,

ज़रा शिथिल हो जाने दो

रक्त को जम जाने दो

आँखों को पत्थर

चेहरा ज़र्द हो जाने दो

तरलता के आवेग में धँसते हुए

पशमीना से ढँक जाना

और ललाट पर छोड़ना एक परितुष्ट चुंबन

कला प्रेमी उठते हैं

ताली बजाकर प्रेम प्रदर्शित करते हुए संवाद दोहराते हैं

पर्दा गिरता है

अब हम प्रेमी-प्रेमिका नहीं हैं।

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स्त्री का होना जरूरी है ।

स्त्रियां दूब घास की तरह उग आईं थीं

तुम्हारे नक्कारखाने के बाहर

उसका वंश जाति धर्म सब अलग था

वह स्त्री थी

तुमने स्त्री को याद किया

चाय पानी स्वाद और बिस्तर के लिए

स्त्री मांस मज्जा के साथ उपस्थित रही

तुमने आदेश पर आदेश दिए

वह नाचती रही

कई-कई धुनों तालों पर वह लगातार नाचती रही

तुमने भुने चने को चटकारे लेकर चबाते हुए कहा-

स्त्री का होना जरूरी है

सांसों का उठना गिरना उन्हीं की वज़ह से है

दृश्य के सारे सुख स्त्री से है

जीवन की लालसा में स्त्री है

परंतु

तुमने स्त्री के सुखों पर वार्ता कभी नहीं की

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 यह फूलों के खिलने का वक्त है

स्त्री का जिह्वा काटकर

तुम उसे बिस्तर तक खींचते रहते

अर्ध ज़िंदा मछरियों में ढूंढते रहे स्वाद

नदी की ताजी मछरियों का

जड़ों में पानी दिए बिना

ढूंढते रहे फुनगी पर फूल और हरे पत्ते

फ़ारसी लिपि में उकेरते रहे सबसे ज़रूरी काम

प्रेम की भाषा सहज कभी नहीं थी

आरंभ से पहले अंत पर तुमने निर्णय सुनाया

सुनिश्चित किया सारे अंज़ाम

आह में निकले अश्रु की इजाज़त तुमने कभी नहीं दी संधि काल में भी तुमने खड़ी कर दी लंबी-चौड़ी दीवार

नग्नता के क्षणों में भी काबू में लिया आधा अधिकार आत्मा के कागज़ पर काले कलम से लिखा दिया

क़िस्सा- ए- खोट

खोट का पता ढूंढती फिरती रही ज़ियारत-दर-ज़ियारत

नाचता हुआ खरगोश कहता है

कई-कई रंगों के फूल खिलेंगे

यह फूलों के खिलने का वक्त है

महक उठेगा वन

वनों के सारे शेर तीर्थाटन पर चले जाएंगे

तीर्थाटन से लौटने पर शेरों के दांत घिसे होंगे

दहारेगा परंतु काटना भूल जाएगा।

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प्रेम में ठगी गई स्त्री।।

प्रेम में ठगी गई स्त्री एकांत प्रिय हो जाती है

मौन की भाषा ज्यादा सहज लगती है

बोलने से ज्यादा चुप की भाषा में गहरे उतरती है

हथेली पर लिए चलती है कोई चित्र

अर्ध रात्रि में खिड़की के समीप लंबी गहरी श्वास भरकर शून्य में घंटों निहारती है

उसे दिखता है कोई पद-चिन्ह

ईशान कोण में जला आती है एक दीया

एकटक देखते हुए

दिख जाता है उसे वह चेहरा

जो दुनियावी माया से विलग है

भरे कंठ से लेती है नाम

गहरे कुएँ में छुपा आती है उसके सारे निशान

हर बार चुन लेती है कठोर रास्ता

सूझ से परे जो सराय है

तेज प्यास में ईश्वर की प्रशंसा हो भी तो कैसे

समाप्ति पर पहुंचने से पहले हथेली का स्पर्श हो

वह जो देश की राजधानी में गुम है कहीं

जो रात के तीसरे पहर में देता है पीठ पर चुंबन

तुम्हारे छाती के ठौर से ज्यादा माकूल कोई ज़गह नहीं

जहाँ गाँठ दिया था अपना सारा अहम्

काठ से तरलता का आवेग

जीया जाता रहा उस पल

जवा-कुसुम की गंध से भर गया था

वह छोटा कमरा

इस अस्वीकृत रिश्ते में तुम मजबूत पात्र हो

याकि प्रलय की रात में बढ़ता हुआ कोई हाथ

तुममें जो ठहराव है

वह किसी तालाब के पानी को भी हासिल नहीं

कितना कुछ बचा रह गया है

तुम्हारे चले जाने के बाद भी

चाय के कप पर तुम्हारे उंगलियों के निशान

सिगरेट का बट भी तुम्हारे होठों के स्पर्श की कहानी कहता है

जीवन सहेज सकूँ इतना काफी है

तअल्लुक़ेदार कहते हैं__

तुम्हें चाय सिगरेट के अलावा कविताओं

का शौक है

इन दिनों कविताओं में तुम सांस ले रहे हो।

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वह स्त्री नहीं मनुष्य होना चाहती है।

कितना कुछ था

जो पीछे छूट गया था

कितना कुछ था

जिसे हम चाह कर भी पकड़ नहीं पाए

वक्त और हालात की बेतरतीब सीढ़ी पर चलना उतना ही दुर्भर  था

जितना बाढ़ में एकमात्र पुल का ढह जाना

ढेला-भर आस हथेली पर रखकर

हम उदासी को भूलने पर गहन शोध कर रहे थे

जिंदगी की मार के बावजूद स्याह नीले दाग़ को छुपा कर

नायक की तरह हॅंसने का अभिनय किया गया

रुई की तरह धुन दी गई स्त्री मुॅंह उठाकर जीने को आतुर थी

स्नानघर में अपने आंसुओं को विसर्जित कर खिलखिलाते हुए

अपना सुख साझा करती है

स्त्री के अंदर से स्त्रीत्व समाप्ति की बाट जोह रहा है

वह स्त्रीत्व समाप्त कर अमरबेल हो जाना चाहती है

वह नहीं चाहती शीलवान बने

वह नहीं चाहती, सारे नियमों पर चलकर देवी बने

चित् की दृढ़ता का औजार उसकी नाभि में है

ध्रुव होने की अवस्था में वह स्त्री नहीं मनुष्य होना चाहती है।

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खूबसूरत स्त्रियाॅं

खूबसूरत थीं वे स्त्रियाॅं

जो आजीवन चुप रहीं

जिन्होंने ऑंखों देखी मक्खी बिना पानी के निगलना सीख लिया था

जिन्हें फ़र्क नहीं था

दुनियादारी के शोर-गुल से

उसने उतना ही देखा जितना उसे कहा गया

उनके बेहिसाब ऑंसुओं का हिसाब-किताब किसी के पास नहीं था

वे स्त्रियाॅं बिना आग के जलती रहीं

मुस्कुराकर जलन के दाग़ को छिपाना उन्होंने गर्भ में ही सीख लिया था

खूबसूरत थीं वे स्त्रियाॅं

जिन्होंने माॅं के कहे शब्द-शब्द को अपने अंदर मृत्यु तक रोपे रखा

पिता के दिए संस्कारों को बिना मुरझाए चेहरे के हॅंसकर स्वीकारा

पिता खुश थे

बेटी की चुप्पी को संस्कार मानते रहे

माॅं खुश थी

बेटी पुश्तैनी कंगन में उनके ही नक्शे-कदम पर चल रही है

भाई ने कभी नहीं चाहा

बहन अपनी मर्ज़ी से ब्याही जाए

खूबसूरत थी वे स्त्रियाॅं

जो ब्याह के बाद पति को देवता मानती रहीं

उनके घर को धार्मिक-स्थल

खूबसूरत थी वे स्त्रियाॅं

जो उनके ठंडा होने तक बिस्तर को रखा गर्म

मांसल से अमांसल होने तक दिया भरपूर अपना शरीर

खूबसूरत थी वह स्त्रियाॅं

जिनका पल्लू नहाते वक्त भी नहीं सरका

जिन्होंने घूंघट में ही चारों पहर के काम बखूबी किया

खूबसूरत थीं वे स्त्रियाॅं

जो शराफ़त का लिबास ओढ़ेते हुए कभी नहीं थकीं

जिन्होंने होम कर दिया अपना संपूर्ण जीवन

खूबसूरत थी वह स्त्रियाॅं

जिन्होंने स्वयं को मार दिया

परंतु वह ज़िंदा मिसाल बनी

खूबसूरत थीं वे स्त्रियाॅं

जो पिता की चौखट से विवाहोपरांत विदा हुई

पति के चौखट से अर्थी में निकलीं

बीच के रास्तों को उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा

ना याद रही सहेलियों की हॅंसी

ना मायके की कोठरी

उन खुबसूरत स्त्रियों को

सोलह श्रृंगार कर विदा किया गया

वे चल पड़ी उन रास्तों पर

जहां से कोई लौटता नहीं

सजल मुस्कुराहट के साथ उन स्त्रियों ने अंतिम गहरी लंबी श्वास खींची

उन तमाम खूबसू

रत स्त्रियों को

मृत्यु के बाद ही नाट्य मंच से मुक्ति मिली।

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कंठ में छुपा राग

कितना आसान रहा तुम्हारे लिए कह देना – अब विदा लेता हूॅं

परंतु

कहाॅं विदा ले पाए हो तुम

हर चीज़ से छनकर आती रौशनी तुम्हारी याद दिलाती है

शब्दों से ख़ारिज किया तुमने

जीवित देह को मृतक की तरह छोड़ गए

लहू के आखिरी कण में तुम्हें ही देखा खाद-पानी की तरह

खूब नुकीले खंजर से नश्तर चुभाया

परंतु हृदय के करीब पहुॅंचकर वह गुलाब रोप आया

प्रेम में हृदय कहाॅं नफरत बो पाता है

प्रेम में बस प्रेम की खेती होती है

गवैया इन दिनों भूल गया है गाना

कंठ में छुपा राग उसकी तकलीफ़ का कारण है।।

ज्योति रीता

हिंदी साहित्य से परास्नातक

बी.एड. , एम.एड.

कविता कोश, हिंदवी , इन्द्रधनुष, पहली बार, समकालीन जनमत, पोसम पा, लोक राग, हिंदी नेक्स्ट आदि पर कविताएं

वार्गथ, इंद्रप्रस्थ भारती, समावर्तन के युवा कवि स्तंभ ,नयापथ, कृति बहुमत, पाखी, समकालीन जनमत, समय के साखी(2020के बाद के युवा कवि), पुस्तकनामा- चेतना का देश राग (समकालीन युवा कविता स्तंभ), सब लोग पत्रिका, संवदिया, युद्धरत आम आदमी, ककसाड़़, वर्तमान साहित्य, अलीक, अमर उजाला साहित्य स्तंभ , दैनिक भास्कर साहित्य स्तंभ आदि में कविताएं प्रकाशित

लगभग 10 कविता संग्रह में साझा कविता प्रकाशित व कई भाषाओं में अनुवादित।

“मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ।” पहला कविता संग्रह के लिए बिहार सरकार से अनुदान प्राप्त। संभावना प्रकाशक हापुड़ से 2022 में प्रकाशित ।

सम्प्रति – शिक्षा विभाग (बिहार सरकार)

jyotimam2012@gmail.com

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