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करवाचौथ क्षत्रियों और राजपूतों का प्राचीन व्रत त्योहार है। तब पुरुषों को आए दिन युद्ध में जाना पड़ता था। इसलिए क्षत्रिय परिवारों की महिलाओं में इस व्रत का विशेष महत्व था। खासकर देश की पश्चिमी सीमा पर बसे राज्यों में, जिधर से आक्रांताओं के हमले होते रहते थे। सैनिकों और रजवाड़ों की महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए यह व्रत रखती थीं।
हिंदी फिल्मों और सास बहू के सीरियलों ने इस त्योहार को देश के अन्य हिस्सों और अन्य समुदायों में भी अनुकरणीय बना दिया। यह सीरियलों का प्रभाव है कि अब लड़के भी करवाचौथ का व्रत रखने लगे हैं।
उत्तर भारत में ही आज से 30 साल पहले तक क्षत्रिय राजपूतों को छोड़कर अन्य समुदायों में इस त्योहार का चलन न के बराबर था। यही वजह है कि अन्य समुदायों में इस त्योहार को लेकर आलोचना और विरोध के स्वर आज भी यदा-कदा सुनने को मिल जाते हैं, जबकि उनके परिवार की महिलाओं ने भी इस व्रत को तेजी से अपनाया है।
विरोध करने वालों का तर्क होगा कि व्रत से उम्र लंबी कैसे हो सकती है। सबसे वाहियात तर्क यह है कि गाय के भूखा रहने से बैल की उम्र लंबी कैसे हो सकती है।
मगर ये तर्क करने वाले जब अपने महापुरुषों की जयंती धूमधाम से मनाते हैं तब उनके दिमाग में यह तर्क नहीं आता कि जयंती मनाने से क्या होगा? इससे क्या वह महापुरुष जीवित हो जाएंगे, जिनकी जयंती आप मना रहे हैं?
तो भाईसाहब ….
आस्था में तर्क नहीं चलता। आप जयंती मनाते हो तो मनाओ। इसी तरह जो करवाचौथ मनाते हैं, उन्हें करवाचौथ मनाने दो। सबको अपने त्योहार अपने तरीके से मनाने का अधिकार है। वैसे भी करवाचौथ बलिदानियों के परिवारों का मानसिक संबल था, उसे उसी के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। इसलिए उन प्रतीकों की खिल्ली न उड़ाएं। आपके यहां करवाचौथ नहीं मनाया जाता तो न मनाएं।
सुधीर राघव