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हाल ही में, मैं बड़ी श्याणी और समझदार बन कर देहरादून और ऋषिकेश के टूर पर निकल गई. श्याणी इसीलिए बोल रही हूं क्योंकि इस टूर का प्लान मैंने दिवाली से पहले गणित के सवालों के समान गुणा–भाग कर बनाया था, लेकिन जैसा कि मैं बचपन से ही गणित में कमजोर रही इस बार भी सवाल का उत्तर गलत ही निकला. सोचा था दिवाली के बाद जाऊंगी तो लोग थके–मांदे घरों व ऑफिसो में सुस्ता रहे होंगे. दिवाली में दिवाला बन जाने के कारण भीगी बिल्ली जैसे घरों में दुबके रहेंगे, मेरा क्या…… मैं तो गर्व से गरीब ही हूं……. झोला उठा कर निकल लूंगी लेकिन दून पहुँच कर स्टेटस देखा तो मेरे कॉन्टैक्ट की आधी जनता मेरे चारों तरफ घूम रही थी. पल्टन बाजार के लिए निकली तो पूरा हुज़ूम दिख पड़ा मैंने तो सोचा था भीड़भाड़ कम रहेगी तो घूमने का मज़ा ही अलग होगा लेकिन…… फिर मैंने खुद से बोला रे बावड़ी!! ये सब सरकारी पैसे वाले लोग है, इनका कभी दिवाला नी निकलता.
वैसे पोस्ट लिखने का कारण ये है कि मेरे स्टेटस देख कई लोगों द्वारा प्रश्नों की बौछार कर दी गई, “बुद्धा टेम्पल कहाँ है? हमें तो नहीं दिखा?”, “अरे!! ये ज़ू कहाँ मिल गया तुझे, हम तो पूरा दून घूमे हमें नी दिखा” ये पहला वाकया नहीं था जब मुझे एहसास हुआ कि अधिकतर लोग सिर्फ रस्म निभाने के लिए घूमने चले जाते हैं. कोई उत्साह नहीं, यात्रा पर भी ऐसे जाते हैं जैसे कोई ज़रूरी काम निपटाने जा रहे हों, जाता हुआ चेहरा भावशून्य और आता हुआ चेहरा भी वही शून्य. बस सोशल मीडिया पर प्रतिस्पर्धा के तौर पर फोटो चेपने के लिए मानो ये कर्म करने पड़ रहे हों.
यात्रा के दौरान मैं उस शहर की एक एक जगहों पर जा कर जी लेना चाहती हूं खासकर वह जगह जिनका इस दुनिया ने बहिष्कार कर दिया. न जाने क्यों मुझे बहिष्कृत चीजें, स्थान और लोग ज्यादा पसंद हैं. ग्वालियर में भी गोपाचल पर्वत बहुत कम लोग जानते थे. मैंने उन लोगों से बस इतना ही कहा, यात्रा पर उत्साह उमंग और जानकारी के साथ निकलोगे तो छुट्टियां कम पड़ जाएगी. ये दौर जानकारी का दौर है एक ढूंढो कई मिलेंगे।