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अलीगढ़ 10 मार्चः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित ‘कृष्णा सोबती की सर्जनात्मकता के विविध आयाम’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन तृतीय अकादमिक सत्र के अंतर्गत मुख्य वक्ता के रूप में चैधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के प्रो. नवीन चंद्र लोहनी ने अपने वक्तव्य में ‘यारो के यार’ तथा तिन पहाड़ पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि हमें इन रचनाओं का पुनर्वलोकन करना चाहिए। लेखक को समग्र रूप में समझ कर ही हम सही से उसका मूल्यांकन कर सकते हैं।

विशिष्ट वक्ता प्रो. शंभुनाथ तिवारी ने कहा कि कृष्णा सोबती देश विभाजन को लेकर लिखने वाली अपने समय की पहली लेखिका हैं। जबकि उर्दू और अंग्रेज़ी में बहुत से लोग लिख रहे थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. आशुतोष कुमार ने अपने वक्तव्य में कहा कि कृष्णा सोबती अपने जीवन और लेखन में दो टूक, बेबाक और साहसी थीं। उन्होंने स्त्री के अनुभवों को बड़ी गहराई से अपनी रचनाओं में रखा है। डाॅ. जावेद आलम और डाॅ. मिश्कात आबदी ने अपने शोध-पत्र पढ़े।

अंतिम सत्र में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रो. नीरज कुमार ने कहा कि कृष्णा सोबती जीवन से पात्रों को लेती हैं तथा वहीं से भाषा भी लेती हैं। उनकी भाषा और पात्रों में स्थानीयता है। उन्होंने ‘मित्रो मरजानी’ की पात्र मित्रो पर गम्भीरता से बात की।

विशिष्ट वक्ता प्रो. कमलानंद झा ने कृष्णा सोबती के कथेतर साहित्य पर बात करते हुए कहा कि बड़ा रचनाकार एक विधा में नहीं समा पाता। उन्होंने हाशिए पर स्थित जो लोग हैं उनके बारे में लिखा। अपने निदेशकीय वक्तव्य में प्रो. आशिक़ अली ने कहा कि जब तक ग्रामीण संस्कृति से जुड़ाव नहीं होगा तब तक लेखक की रचना में जीवंतता नहीं आ पायेगी। कृष्णा सोबती ज़मीन से जुड़ी हुई रचनाकार हैं। उनकी भाषा सांस्कृतिक परिवेश से आई है। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. अब्दुल अलीम ने कहा कि कृष्णा सोबती का साहित्य ज़िन्दगी का धड़कता साहित्य है। उनकी भाषा का गहनता से अध्ययन किया जाना चाहिए।

प्रो. तारिक़ छतारी ने कहा कि सच्चा रचनाकार वह है जो किसी विमर्श के जाल में नहीं फंसता। साहित्य दृष्टि देता है उद्देश्य नहीं। कार्यक्रम संचालन डाॅ. दीपशिखा सिंह एवं धन्यवाद ज्ञापन प्रो. तसनीम सुहेल ने किया। इस अवसर पर विभाग का समस्त स्टाफ उपस्थित रहा।

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