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हिंदी अनुभाग, महिला महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्वावधान एवं डॉ. हरीश कुमार संयोजकत्व में आयोजित ‘मध्यकालीन हिंदी साहित्य : सामाजिक स्वरूप एवं लोकरंग’ विषयक त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आज दिनांक 19/10/2024 को अंतिम दिन था।
चौथे सत्र का विषय था : ‘भक्ति का लोकरूप एवं तत्कालीन परिवेश’
इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. राजकुमार ने कहा कि भारत में मध्यकाल को आरंभिक आधुनिककाल कहना चाहिए। ऐसा डॉ. रामविलास शर्मा पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं।भक्तिकालीन साहित्य में समन्वय का पक्ष सर्वप्रमुख है। भक्तिकाल अपने समय का सामाजिक, राजनीतिक प्रतिबिंब ही नहीं है बल्कि आलोचना भी है। भक्तिकालीन कवि, कवि थे यह आंशिक सच भी नहीं है। भक्तिकालीन रचनाकारों के तीन रूप देखने को मिलते हैं। एक कवि का, दूसरा संत का और तीसरा गायक ( संगीतकार) का। कबीर ने गाया है, लिखा नहीं है, यही बात सूरदास और मीरा पर भी लागू होती है।
भक्तिकाल के दो प्रमुख कवि जिन्होंने लिखने के साथ गाया भी है, वह हैं तुलसी और जायसी। इन कवियों की रचनाओं में गाने के राग का ज़िक्र भी मिलता है। (आप आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित भ्रमरगीतसार में प्रत्येक पद के ऊपर राग के ज़िक्र को देख सकते हैं। जब कुमार गंधर्व कबीर के पदों को गाते हैं तब उसका समूचा ठाठ देखने को मिलता है। भक्तिकालीन कविता का अपने समय और समाज के साथ क्या संबंध है यह देखा जाना चाहिए कि उनकी रचना में समाज की चेतना किस तरह से आती है।
भक्तिकालीन कवि के कविता में कई बार अपने समाज को सीधे संबोधित नहीं करते, कई बार लोक से चली आ रही परंपरा को संबोधित करते हुए अपने साहित्य का विषय बनाते हैं। भक्तिकालीन जातिगत पहचान एवं धर्मगत पहचान को आज के जातिगत पहचान एवं धर्मगत पहचान से वैसे से जोड़कर एकदम उसी रूप में नहीं देखा जा सकता है। ज़ाहिर है आज के दौर में हम राजनीतिक रूप से इतने संवेदनशील हो गए हैं कि जो मन में है वो कहना नहीं चाहते हैं, हम ज़्यादा समझदार हो गए हैं। उस दौर के पहचान में पारस्परिक संघर्ष के साथ इतनी सहूलियत तो थी कि आप अलग पंथों की, अलग धर्मों की आलोचना कर सकते थे; वैसा ही दौर आज नहीं है। भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं साहित्य के परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने का सूत्र द्विवेदी जी के इतिहास में मौजूद है।
कार्यक्रम में इंग्लैंड से शिरकत कर रहीं मुख्य अतिथि डॉ. जय वर्मा ने बताया कि रामचरितमानस आज भी समाज की मानसिक संरचना को सकारात्मक रूप में प्रभावित करता है।
विशिष्ट अतिथि प्रो. राजन यादव कहते हैं कि भक्तिकाल आध्यात्मिक चिंतन का शिखर काल था। भक्तिकाल गोरख की वाणी का विस्तार है। ‘अबकी न बोलबा, ढपकी न चलबा , धीरे धरबा पाँव। उलटबांसी की परम्परा हिंदी में सर्वप्रथम गोरखनाथ प्रारंभ करते हैं। ‘ गोरख बोले अमृत वाणी, बरसेगी कँवली भिजेगा पानी।’ इन्होंने पूरे मध्यकालीन मूल्य को पदों के ज़रिए संगीतात्मक लहज़े में गाकर प्रस्तुत कर दिया।
सारस्वत अतिथि के रूप में मौजूद प्रो. सत्यपाल शर्मा ने कहा कि भारत का मध्ययुग धर्मयुग है, लेकिन वह अंधायुग नहीं है। अनेक अर्थों में भारत का मध्ययुग आधुनिकता से भी अधिक आधुनिक, प्रगतिशील से भी अधिक प्रगतिशील है। समूचा भक्तिकाव्य वास्तव में लोकजागरण का आंदोलन है। हर आंदोलन का प्रतिपक्ष भी होता है। सामंतवाद के खिलाफ़ पूरा भक्तिकाल था। भक्तिकाल के चारों धाराओं में भले ही भेद हो लेकिन उनकी आचार पद्धति में, व्यवहार पद्धति में, विचार पद्धति में भले ही अंतर हो लेकिन उनका लक्ष्य, उनका उद्देश्य एक था। दलित वर्ग से, श्रमिक वर्ग से कवि हैं,शिल्पकार हैं, बुनकर हैं जो भक्तिकाल को लोकरूप प्रदान करते हैं।
कुम्भनदास ने कहा था,‘ संतन को कहां सीकरी सो काम’ कबीरदास पूरे सामंती व्यवस्था को चुनौती देते हैं। जायसी के पद्मावत का नायक रत्नसेन प्रेम को पाने के लिए अपने वैभव भरे राजपाट को त्याग देता है। सूर की गोपियाँ, रसखान की गोपियाँ पितृसत्तात्मक कुल के मर्यादा को तोड़ती हैं।
‘मुरली की धुन कानि परी, कुल कानि तजी चली भेजती आवत।’ कार्ल मार्क्स का सर्वोच्च लक्ष्य सामान्य और गांधी का सर्वोत्तम लक्ष्य सत्य, अहिंसा को स्थापित करने का काम भक्तिकाव्य करता है। भक्तिकाव्य में नगरीय संस्कृति का विरोध है तो गंवई संस्कृति की पक्षधरता है क्योंकि गाँव लोक के अधिक निकट होता है। वहां सूप है, चलनी है, मथनी है। महानगरीय सभ्यता के दोषों को भक्त कवियों ने बहुत पहले दर्शा दिया था। अयोध्या नगरी में कैकेयी के रूप में सत्ता की भूख है। समूचा भक्तिकाव्य लोक मंगल का काव्य है। लोकमंगल के सैद्धांतिक अर्थों में कबीरदास भी उतने ही बड़े कवि हैं जितने कि तुलसी।
भक्तिकालीन कवि प्रकृति से अपने जीवन का आदर्श गढ़ता है। जीवन का सच तो है ही, इसकी अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रकृति के माध्यम से देता है। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ इस लोक शब्द कठौती को समझना होगा। कई अर्थों में रहीम भक्तिकाल के सबसे बड़े कवि हैं, जीवनानुभव में कबीर और तुलसी के समकक्ष खड़े हैं। समूचे भक्तिकाव्य का केंद्रीय सिद्धांत और आदर्श है समानता। जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी एक होते हैं, तब समूचे भक्तिकाल का स्वरूप स्पष्ट होता है।
इस सत्र का संयोजन डॉ. अमरजीत राम और डॉ. ज्योति दुबे कर रहीं थी।
पंचम सत्र का विषय था : ‘मध्यकाल विविध संदर्भ एवं प्रासंगिकता’
इस सत्र की अध्यक्षता प्रो. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी कर रहे थे। उन्होंने बताया कि मध्यकाल का पूरा साहित्य ( Art Of Living) जीवन जीने की कला सिखाती है। मध्यकालीन साहित्य ने शक्ति तो शास्त्र से ग्रहण की है लेकिन रचा लोक को है। मध्यकाल का साहित्य धार्मिक साहित्य इसलिए है क्योंकि वहाँ सनातन धर्म के लक्षण दिखाई देते हैं। मध्यकालीन साहित्य मनुष्य को ग्राम्य आचरणों से मुक्त करता है। यह काल लोक संपृक्ति का काल है।
बतौर मुख्य अतिथि प्रो. नवीन चंद्र लोहानी ने बताया कि भय और भूख का सवाल मध्यकाल में भी था और आज भी है। ‘रैदास ने लिखा था; ‘चाहो ऐसा राज्य ने जहां मिले सबन को अन्न।’ वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 105 वें स्थान पर है।
उज़्बेकिस्तान से पधारी विशिष्ट अतिथि डॉ. मुतबार इस्मतुल्लाएवा ने बताया कि मध्यकालीन साहित्यक युग हमें सिखाता है कि विविधता में एकता की शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। मध्यकाल ऐसा युग रहा है जिसने अपने समाज एवं संस्कृति पर गहरा प्रभाव डाला है। इस काल में सांस्कृतिक विविधता का अद्भुत योग था।
डॉ. भावना कौशिक ने कन्नड़ की भक्तिकालीन कवयित्रियों अक्कमहादेवी और आंडाल की चर्चा करते हुए बताती हैं कि जैसे मीरा ने कृष्ण को अपना पति माना वैसे ही अक्कमहादेवी ने शिव को अपना पति माना था। उनके पति ने तंग आकर भरी सभा में कहा था कि आज से मैं तुम्हारा परित्याग करता हूं तुम वस्त्र और गहने उतार कर जाओ। तब से अक्कमहादेवी ने वस्त्र नहीं धारण किया, वे इतनी क्रांतिकारी थी भरी सभा में शास्त्रार्थ करती थी। वो अपने शरीर को अपने लंबे बालों से ढका करती थी।
सारस्वत अतिथि के तौर पर उपस्थित डॉ. लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता ने मध्यकाल को ‘साहित्य जीवन और हमारा समय’, भक्तिकालीन नवीन अवधारणा और कवि विद्यापति’ तथा ‘जायसी होने का अर्थ’ इन तीन बिंदुओं के तहत अपनी बात रखी। इन्होंने कहा कि कवि संबंधों की फांक को कम नहीं कर सकता, खत्म नहीं कर सकता, उसके कवि होने में संदेह करना चाहिए। भक्तिकाल की कविता उस सामूहिकता की कविता है जिसमें स्त्री केंद्र में है। भक्तिकालीन कविता जनपदीयता की कविता है। क्रांति का सबसे बड़ा कवि वही होगा जो प्रेम का कवि होता है और विद्यापति ऐसे ही कवि हैं। जायसी न तो हिंदू थे, न मुस्लिम थे, जायसी अवध और अवधि के सबसे बड़े कवि थे, जायसी कंट्रास्ट के सबसे बड़े कवि थे।
इस सत्र का संयोजन डॉ. सौरभ सिंह विक्रम एवं डॉ. संतोष सिंह कर रहे थे।
डॉ. सौरभ सिंह विक्रम ने बताया कि ‘संग्रह त्याग न बिनु पहचाने’ आप इस संगोष्ठी से क्या लेकर जा रहे हैं यह महत्त्वपूर्ण है। भक्तिकाल सीखने की कला का काल है।
त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का खूबसूरती से भरा अंतिम पड़ाव समापन सत्र की अध्यक्षता कर रहीं महिला महाविद्यालय की बीएचयू की प्राचार्या प्रो. रीता सिंह कहती हैं कि भक्तिकाल का साहित्य स्त्री मुक्ति का साहित्य है।
बतौर मुख्य अतिथि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो. अरुण कुमार सिंह ने बताया कि भक्तिकाल समाज सुधार का नींव रखता है, इस काल में समरसता का संदेश निहित है।
 विशिष्ट अतिथि के रूप महिला महाविद्यालय बीएचयू की पूर्व प्राचार्या प्रो. चंद्रकला त्रिपाठी कहती हैं कि मुझे नहीं लगता कि मैं महिला महाविद्यालय से कभी गई, यह सच्चे अर्थों में मेरी घर वापसी है। मैं पिछले चार महीने से ऐसे देश में थी जहाँ इस समय 4:20 मिनट पर आधी रात होता है। किसी काल को किसी काल के परिवर्तन को कैसे देखा जाय इसकी पृष्ठभूमि शुक्ल जी तैयार कर चुके थे। कैसे एक काल को दूसरा काल अतिक्रांत करता है। साहित्य का इतिहास ऐतिहासिक नैरन्तर्य का इतिहास है, एक काल दूसरे काल के लिए कभी अपना दरवाजा बंद नहीं करता। भक्तिकाल अपना उपनिवेश बना लेता है रीतिकाल को। भक्तिकाल में ऐसी कौन सी ताकत है, उसका इतना विस्तार क्यों है। आदिकाल तो वहीं शुरू हो गया था जब आदिकवि कवि का प्रथम छंद प्रकट होता है। इतिहास में भविष्य की ध्वनि भी होती है। वाल्मीकि का वह छंद क्यों महाकाव्यात्मक है, तीर वाल्मीकि को नहीं लगा था, एक पंछी को लगा था। किसी की वेदना को, किसी के दुःख को आप इतना बड़ा समझे कि आपसे रहा न जाय।
सारस्वत अतिथि, (निदेशक यू. जी. सी. मालवीय मिशन शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र, का. हि. वि.) के प्रो. आनंदवर्धन शर्मा ने कहा कि   भक्तिकालीन साहित्य के तत्व लोकरंग, लोकनाट्य, लोककथा, लोकचित्र में विशिष्ट तौर पर मिलता है।
सारस्वत अतिथि, पूर्व महानिदेशक, विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस के प्रो. विनोद मिश्र ने बताया कि मॉरीशस में यदि संपूर्ण भारतीय संस्कृति अपने संपूर्णता में उपस्थित है तो उसका कारण यही मध्यकालीन साहित्य है। मॉरीशस में लोग रामचरितमानस पढ़ते नहीं हैं, जीते हैं। मृत लोगों के अंतिम संस्कार के पूर्व उनके समक्ष रामचरितमानस का सस्वर पाठ किया जाता था; यह बात विशेषकर भारत से गए गिरमिटिया लोगों के संदर्भ में सत्य है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की शोध छात्रा कु. रोशनी (धीरा) द्वारा तैयार रिपोर्ट की प्रस्तुति डॉ. मनीष कुमार मीणा जी ने की।
सत्र का संयोजन हिंदी विभाग के आचार्य डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा कर रहे थे। धन्यवाद ज्ञापन सह आचार्या डॉ. उर्वशी गहलौत ने किया।
 सत्र का संचालन करते हुए डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने बताया कि दरम्यान फादर कामिल बुल्के को याद करते हुए बताते हैं कि मध्यकालीन भारतीय साहित्य धर्म, दर्शन और भक्ति का अनूठा केंद्र है।
 कार्यक्रम में प्रो. वशिष्ठ अनूप, प्रो. सुमन जैन,डॉ. रविशंकर सोनकर, डॉ. विवेकानंद उपाध्याय, डॉ. धीरेन्द्रनाथ चौबे, डॉ. प्रभात कुमार मिश्र सहित भारी संख्या में विद्यार्थियों की मौजूदगी रही।
प्रस्तुति
रोशनी (धीरा) शोध छात्रा

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