वाराणसीः भारत अध्ययन केन्द्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, महाकवि जयशंकर प्रसाद ट्रस्ट, लखनऊ एवं संस्कृति विभाग, उत्तर प्रदेश के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित ‘‘महाकवि जयशंकर प्रसाद और भारत का सांस्कृतिक गौरवबोध’’ त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी सहपरिसंवाद, महामना सभागार मालवीय मूल्य अनुशीलन केन्द्र में आयोजित हुआ जिसके मुख्य अतिथि प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र व अध्यक्षता प्रो. विजय शंकर शुक्ल ने किया।
प्रो. सच्चिदानन्द मिश्र ने कहा कि जयशंकर प्रसाद भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पण भाव से पूरित कवि हैं। विचारशील व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह ब्राह्मण परम्परा एवं श्रवण परम्परा दोनों का मूल्यांकन करें एकपक्षीय न होकर। प्रसाद दोनों हानियों के प्रति एक समीक्षक की भाँति विचार करते हैं। वह कहते है कि यह समय युद्ध का नही है बुद्ध का समय है।
इस संस्कृति का गौरवबोध हमें होना चाहिए। जयशंकर प्रसाद के साहित्य और चिन्तन में ब्राह्मण परम्परा में बहुत संयम ठंग से आता। भारत के सांस्कृति गौरव को टुकड़ों में नही देखना चाहिए। मूल्यबोध के अभाव में बहुत सारी संस्कृतियाँ विनष्ट हो गई। भारतीय संस्कृति त्याग पर आधारित है इसलिए इस समय तक जीवित है। प्रो. विजय शंकर शुक्ल ने कहा कि भारतीय ज्ञानपरम्परा को भारतीय चिंतन से समझना होगा। तभी प्रसाद के साहित्य को जाना जा सकता है। प्रसाद को समझना है तो शतपथ ब्राह्मण को समझना पड़ेगा। जयशंकर प्रसाद समग्र के विकास की बात करते हैं।
जिसके प्रथम सत्र के विषय ‘भारत का सांस्कृतिक नवोत्थान : छायावाद और जयशंकर प्रसाद’ पर वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये जिसमें डॉ. अजित कुमार पुरी ने कहा कि जयशंकर प्रसाद ने राष्ट्र की अलग परिकल्पना की जो पश्चिम से अलग है कोलोनियल जकड़न से दूर रखा भारतीय संस्कृति पल से लेकर कल तक पर चिंतन करती है। डॉ. अभय कुमार ठाकुर ने कहा कि प्रसाद छायावाद में स्वाधिनता आन्दोलन के राजनैतिक चिन्ता को प्रकट करते हैं। राष्ट्र सीमा क्या हो यह जयशंकर प्रसाद बताते हैं।
प्रसाद छायावाद को केवल विगत अतित का सहारा नही लेने वाला काल परन्तु पुनर्जागरण काल मानते हैं। हमारे यहाँ उपभोग की मनाही नही की गयी है बल्कि उपभोग की सीमा पर चर्चा किया गया है। त्याग से उपभोग करें। ऐसा हमारे इसावास्योपनिषद् में प्राप्त होता है। भारतीय चिंतन कभी नही मिटता तभी तो हस्ति मिटती नही हमारी ऐसा गौरवशाली इतिहास रहा है। प्रसाद भारतीय परम्परा को बताते हुए आत्म वेदना और समाज वेदना को एक साथ साधते हैं। जो इंग्लिश लिटरेचर के पैराडाइज लॉस्ट से विपरीत है। प्रसाद केवल मौन इतिहास पर ही बोलते है अन्यथा नही। छायावाद में पूनर्जागरण की मसाल जलाते हुए विष और विश्व मानवतावाद में सबके सामने आशा के रूप में रखते हैं। प्रसाद इस जागरण साहित्य के प्रमुख प्रणेता हैं। डॉ. समीर कुमार पाठक ने कहा कि छायावाद की परिभाषा को कविता केन्द्रित करने से बहुत से सन्दर्भ छुट जाते है गोविन्द मालवीय और जयशंकर प्रसाद जी के इतिहासिक सन्दर्भ को वर्णन जिसमें समय के मूल्य को बताया गया धर्म के संकीर्ण स्वभाव पर आक्रमण किया। पण्डितों के संकीर्ण मानसिकता पर भी बोला। यह युग केवल कविता आन्दोलन का रहा अपितु चित्रकारों और आलोचकों का भी महान युग रहा।
नागरी प्रचारिणी सभा का उद्धरण जिसमें नेहरू, प्रेमचन्द्र आदि के योगदान में चर्चा की। यह युग समाजवाद के प्रचार का भी दौर है। जो विश्वविख्यात है हिन्दी प्रदेश में सामाजवादी चेतना इसी काल में आयी। यही दौर सोवियत क्रान्ति का भी था। छायावाद एक बड़ी चेतना को छोटे व जमीनी स्तर पर बताती हैं। प्रसाद ने राष्ट्र की सेवा को किसी भी प्रकार से करने पर बल दिया जो गरीबों पर कल्याण करें। परन्तु इससे वह प्रगतिशील नही हो जायेंगे। हमारे कमियों का मूल्यांकन होना चाहिए। यह मुख्य बिन्दु प्रसाद के लेखन में दिखता है। प्रो. अवधेश प्रधान ने कहा कि प्रसाद भ्रमकाल के बीच उतर पड़े चुनौतियों को समझकर उस भ्रम पर प्रश्न किये साथ ही प्रहार भी किया। प्रसाद छायावाद के सबसे अग्रणी लेखक है लेखन में इनका अनुमान लगाना असम्भव है। जयशंकर प्रसाद का हिन्दी को विश्व साहित्य में लाने में अद्भुत योगदान है। पंत जी का प्रथम स्थान है लेकिन निराला और प्रसाद इसको अलग स्थान पर पहुचा देते हैं।
ये प्रसाद और निराला की गहन तपस्या का प्रस्तुतिकरण है। हिन्दी के लिए उन्होंने अपनी हड्डियाँ गला दी जिसे वे अपने कृति में दिखाते है। जो उनके कंकाल, तितली, कामायनी में दिखाई देता है। प्रसाद ने लेखन प्रत्यंचा को पिछे खिंचकर मानव सभ्यता से वर्तमान पर चोट किया। वे पूरे इतिहास को मानव संकल्पात्मक अनुभूति बताते हैं और उसे प्रस्तुत भी किया।
बंगाल से केरल और तमिलनाडु तक एक ही राग है जो छायावाद और भाववाद के अलग-अलग नामों से जाना जाता है। सभ्यता का संवाद जरूरी है पश्चिम का पूर्व से विज्ञान का पूरातनकाल से संवाद जरूरी है। छायावाद का पूर्नमूल्यांकन में योगदान रहा। प्रसाद समस्या से कभी झुके नही कभी भागे नही। यही स्वामी विवेकानन्द के भाषण में है उठो जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक न रूको। प्रसाद जी ने अमृत रूपी जीवन सार में रखा जो उनका स्वाध्याय था। वह साधक थे उन्होंने अपनी ऊर्जा को केवल हिन्दी के विकास में दिया।
कार्यक्रम का संचालन भारत अध्ययन केन्द्र के सेण्टेनरी विजिटिंग फेलो डॉ. अमित कुमार पाण्डेय ने तथा स्वागतवक्तव्य समन्वयक प्रो. सदाशिव कुमार द्विवेदी ने किया। धन्यवादज्ञापन डॉ. कविता प्रसाद ने किया। कार्यक्रम में डॉ. जया पाण्डेय, डॉ. गीता योगेश भट्ट तथा विश्वविद्यालय के अनेक संकायों एवं विभागों के वरिष्ठ प्राध्यापक एवं छात्र-छात्राएँ उपस्थित थे।