तड़के ही गुज़र गया
पड़ोस में रहने वाली अधेड़ औरत का पति
उन दो के अलावा नहीं है कोई तीसरा परिवार में
वर्षों से बीमार पति के साथ अकेली ही थी वह
और उसके अंत समय में भी अकेली ही रही
उसके अंतिम क्षणों में हुई होगी वो औरत अधीर
अपने पति से भी ज़्यादा
तभी भागकर बजाई थी उसने डोर बेल कई पड़ोसियों की
पर कौन जागता यूंँ सुबह तीन-चार बजे
जो जगे भी होंगे सो गए होंगे करवट बदल के
सुबह बेटे को स्कूल वैन में बैठाने को बाहर निकला तो देखा
कि सोसायटी का गार्ड खड़ा है उसके दरवाजे पर
और वो उसी के सहारे अकेली ही बैठी है मृत शरीर के पास
वही मृत शरीर जिससे अब फूट रहीं थीं हजारों स्मृतियांँ
जिसको देखते हुए शून्य में भी फूटती थीं सिसकियांँ
मैंने देखा एक पड़ोसी गर्दन उचकाए उधर ही देखता हुआ चढ़ गया अपनी सीढियांँ
एक दूसरा पड़ोसी पूछते हुए निकल गया आगे
जैसे सब कुछ नॉर्मल सा हो
तीसरे या चौथे को भी कुछ खास फ़र्क नहीं पड़ा
जुटे बहुत थोड़े से रिश्तेदार
जिनमें से लगभग सभी सबसे नजदीकी श्मशान की दूरी जानना चाहते थे
और एक किलोमीटर दूर श्मशान तक कांधा न दे पाने की अक्षमता को छुपाते हुए
तलाश रहे थे कोई वैन या एंबुलेंस लगातार
वह अधेड़ औरत बीच-बीच में अपने रोने की आवाज़ से
बताती थी कि
उन सब की चिंताओं से बड़ा था उसका दुःख
वह देखती थी उम्मीद और अपनेपन से हर ओर
और फिर टिका लेती थी नज़र
मृत देह पर
कुछ ही थे जो लगे थे
अंतिम क्रियाकर्म की व्यवस्थाओं में
रोती औरत को समझाने में और
उसके कांधों पर रखके हाथ संसार की निस्सारता बताने में
उन चंद लोगों के होने से ही दुःख और विषाद की बारिश में
खुल-खुल जाता था आश्वस्ति का एक छोटा छाता।
-आलोक कुमार मिश्रा