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1 मई, मजदूर दिवस
मजदूरों की आधी संख्या है
जिन्हें मालूम ही नहीं कि वो शोषित है
उन्हें मालूम ही नहीं उनका श्रम अवैतनिक है
उनका श्रम मूल्यवान तो है लेकिन सराहनीय नहीं
वे मजदूरों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करते हैं
वे मजदूरों की हर कठिन राह की साथी हैं
उनका श्रम प्रेत सा अदृश्य है, बस कोई समझ लेता है
अधिकतर कोई समझना ही नहीं चाहता
वो मजदूरी के बाद फिर मजदूरों की मजदूरी करती है
“मैक्सिम गोर्की” की ‘मां ’ से पता चला झुंझलाहट और
हताशा घेर लेने पर मजदूरों ने दारू पी कर
मार के रूप में अपनी सारी समस्याएं
उन मजदूरों पर थोप दी
वो मजदूर, जो आज भी मजदूरों की श्रेणी में नहीं आतीं
वे मजदूर जो घर आ कर फिर मजदूरी पर लगती हैं
और मजदूरों की पेट की आग शांत करने के साथ
शारीरिक आवश्यकताओं को भी थके होने के
उपरांत पूरा करती है, वही मजदूर जो मजदूरी के लिए
अपना गर्भाशय और शरीर विवशतावश समर्पित कर देती है
वही मजदूर जिसके शरीर से अधिक आत्मा पर गहरे घाव हैं
किसी भी वादियों की दृष्टि इन मजदूरों पर नहीं पड़ी
भगत सिंह ने बोला था, असली क्रांति
फैक्ट्रियों और खेतों में काम कर रही हैं
मैं इसमें जोड़ना चाहती हूं, असली क्रांति
फैक्ट्रियों और खेतों के साथ साथ
किचन–घरों में काम कर रही है
कानों में नारे गूंजते हैं “दुनिया के मजदूरों एक हो”
अगर इन मजदूरिनों को यूं ही अनदेखा किया गया
और मजदूरों को श्रेणी में न रखा गया तो
हमें विवशतावश बोलना होगा,
” दुनिया की मजदूरनियो एक हो”
कशिश नेगी

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