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बहुत छोटी-सी जगह
घेरकर बैठती हूँ मैं।
इतनी कि बित्ते से
मापी जा सके ।
छः गुणे छः के तख़्त
का एक भाग भी नहीं भर सकती अपने होने से।
इस संसार को क्या ही दे
सकती हूँ मैं ?
इस तरह के संकुचित
विस्तार की मैं
और मेरी दरिद्र कल्पनाएँ
क्या भला करेंगी भला?
इसलिए मैं मुक्त करती हूँ
स्वयं को समस्त
दायित्वों से
दायित्व जो तत्पर रखते थे
सदैव दूसरों के प्रति
और!
मैं गृहकार्य के लिए बनी
औरत!
मार खाने के लिए बनी
औरत!
सताई जाने के लिए बनी
औरत!
तिरस्कार, बहिष्कार के लिए बनी
औरत!
हत्या करती हूँ
पूरे बल के साथ
उन अँधेरी सुरंगों की
मेरे हिस्से की उजली धूप
कैद है
जिनके पार ।
प्रियंवदा पाण्डेय
१५/११/२०२४