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वाराणसीः “ज्ञान के असली स्वरूप को उभारने हेतु अध्ययन के साथ-साथ भ्रमण की आवश्यकता है। हमारे ऋषि-महर्षि भ्रमण किया करते थे। मालवीय जी ने नाभा रेलवे स्टेशन से नाभा जी के कुटी तक नंगे पाँव गए थे। वे सबको सम्मान देते थे।आज का परिवेश मानवता के विरुद्ध है, ऐसे परिवेश में प्रेमचंद अपनी कृति के माध्यम से इस मानवता की ज्योति को जलाए रखना चाहते हैं।”
ये बातें कहीं महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के कुलपति प्रो. आनंद कुमार त्यागी ने। वे हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित ‘प्रेमचंद की विशिष्ट कृति ‘रंगभूमि’ के सौ साल’ पर आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन सत्र में बतौर मुख्य अतिथि पधारे थे। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद के साहित्य में सर्वत्र मानवीय मूल्यों और गाँधी जी के विचारों का प्रभाव परिलक्षित होता है। उन्होंने विद्यार्थियों को चरित्र निर्माण, बहुभाषाओं का ज्ञान और भ्रमण का संदेश दिया।
कला संकाय प्रमुख प्रो. माया शंकर पाण्डेय ने कहा कि प्रेमचंद का मूल्यांकन इन सौ सालों में न जाने कितने लेखकों ने किया, लेकिन आज भी इस कालजयी लेखक में कुछ-न-कुछ नया मिल ही जाता है। उन्होंने विद्यार्थियों को कैसे किसी पाठ को पढ़ा जाए, इस विषय पर महत्त्वपूर्ण प्रविधियों की भी जानकारी दी।
समापन सत्र के अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. वशिष्ठ द्विवेदी ने कहा कि इस संगोष्ठी से हमने प्रेमचंद के साहित्य को समग्रता में जाना समझा और बहुत कुछ सीखा। इस संगोष्ठी की महत्त्वपूर्ण बात यह रही कि आफलाइन के अतिरिक्त आनलाइन जुड़े हुए विद्वानों ने भी सुव्यवस्थित व्याख्यान दिए।
दक्षिण कोरिया से पधारे डॉ. कों जोंग किम ने भारत और कोरिया के ऐतिहासिक और सामरिक मधुर संबंधों के बारे में अनुभव साझा किया। उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य को विश्व में सर्वश्रेष्ठ बताया। सुश्री रेखा राजवंशी (ऑस्ट्रेलिया) ने कहा कि वे ऑस्ट्रेलिया में भी प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों की चर्चा करती हैं। उन्होंने आधुनिक युग में प्रेमचंद की प्रासंगिकता के बारे में भी बताया।
आयोजन सचिव डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने इस त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी की समग्र रिपोर्ट प्रस्तुत की। समापन सत्र का संचालन डॉ. विवेक सिंह ने किया और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. राज कुमार मीणा ने किया।
संगोष्ठी के तीसरे और अंतिम दिन का प्रारंभ तकनीकी सत्र से हुआ, जिसकी अध्यक्षता प्रो. सुमन जैन ने की। नेपाल से आए प्रो. दामोदर ढकाल, प्रो. राकेश कुमार राम और डॉ. वीना सुमन ने ‘रंगभूमि’ के विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार रखे। इस सत्र में स्निग्धा सिंह, सुशांत कुमार पांडेय, रुचि कुमारी, शिखा यादव, दीक्षा मौर्या, रूमा निषाद, जागेश्वर सिंह ज़ख्मी, विशाल शर्मा इत्यादि ने शोधपत्र वाचन किया।
सत्र का संचालन शिल्पी कुमारी ने किया एवं विमलेश सरोज ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के तृतीय दिवस के चतुर्थ अकादमिक सत्र में ‘रंगभूमि के पात्र’ विषय पर चर्चा हुई। सत्र के अध्यक्ष प्रो. विनय कुमार सिंह ने अपने उद्बोधन में कहा कि ‘आज सौ साल बाद भी हम सूरदास की बात कर रहे हैं। क्या आज भी हम आदमीयत की स्थापना कर पाए हैं? ‘रंगभूमि’ के सारे पात्र केवल उपन्यास के पात्र नहीं हैं, बल्कि हमारे जीवन के पात्र हैं। अलीगढ़ से पधिरे अतिथि वक्ता प्रो. अजय बिसारिया ने बताया कि साहित्य का अपना एक अनुशासन है, वह अपने चरित्रों को एकरेखीय नहीं बनाता। प्रेमचंद ने औपनिवेशिकता में विलय होते समाज को दिखाया है। विशिष्ट वक्ता प्रो. प्रभाकर सिंह जी ने आलोचक रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘प्रेमचंद और उनका युग’ पुस्तक का ज़िक्र करते हुए कहा कि प्रेमचंद उस दशक के भारत में विकसित नई वैचारिकी का प्रतिनिधित्व करते हैं। सूरदास के चरित्र में निर्गुनिया चेतना आती है। ‘रंगभूमि’ में पर्यावरण को बचाने की भी जद्दोज़हद है। चीन से जुड़े डॉ. राजीव रंजन ने चीनी लेखक लूसुन के पात्रों के साथ प्रेमचंद के ‘रंगभूमि’ के पात्रों का तुलनात्मक विश्लेषण किया। दोनों ही अपनी परिवेशगत अंतर्विरोधों से उत्पन्न पात्र हैं।
डॉ. प्रियंका सोनकर, डॉ. धीरेन्द्र नाथ चौबे ने भी अपने विचार रखे।