Total Views: 64
वाराणसीः हिन्दी के महत्वपूर्ण एवं प्रख्यात कवि अष्टभुजा शुक्ल ने कहा कि “किसी भी रचना या कला का पुनः पुनः पाठ किया जाना चाहिए; क्योंकि हमारी ज्ञान परंपरा में इस बात की आशंका जताई गई है कि साहित्य एवं कलाओं में जो विचक्षण ज्ञान है अगर उसे फिर-फिर नहीं पढ़ा-गुना गया तो भविष्य में मनुष्य के मूढ़ बनते जाने की संभावनाएँ प्रबल है। प्रबुद्ध जनों ने ‘पद्मावत’ के इतिहास सम्मत न होने पर सवाल किए हैं। जायसी कवि हैं, इसलिए उनसे इतिहास लिखने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। कवि अगर केवल इतिहास लिखता है एवं उसमें अपनी कल्पना शक्ति द्वारा उसे बढ़ा पाने की कुव्वत नहीं है तो वह रचना लोहा-लक्कड़ बनकर रह जाती है। जायसी विरह के कवि है। यह विरह प्रेम की पीड़ा और उसकी तड़प से उपजा हुआ है। इस निष्ठुर वैश्विक समय में यह विरह कहीं खो सा गया है। कविता ग्लोबल फॉर लोकल की बजाय लोकल फॉर ग्लोबल की बात करती है। जायसी ने अपने काव्य में विविध पशु-पक्षियों की बोलियों का वर्णन इसी कारण किया है। अवधी में जायसी जैसे कवियों के कारण ही पूरे अवध अंचल में सांप्रदायिक सौहार्द कायम है। अवधी में जितनी बड़ी कविताएँ हुई हैं उतनी देश की किसी भी भाषा में नहीं हुई हैं।”
यह बातें उन्होंने बुधवार को बीएचयू परिसर स्थित सामाजिक विज्ञान संकाय के संबोधि सभागार में आयोजित प्रो. शुकदेव सिंह स्मृति व्याख्यान 2024 के तहत ‘अवधी के जायसी, जायसी की अवधी’ विषयक व्याख्यान देते हुए कहीं।
महिला अध्ययन एवं विकास केन्द्र, सामाजिक विज्ञान संकाय, का.हि.वि.वि. और कबीर विवेक परिवार के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित प्रो. शुकदेव सिंह स्मृति व्याख्यान 2024 का शुभारंभ मंचस्थ अतिथियों द्वारा महामना मालवीय जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं पुष्प अर्पित करके किया गया। तत्पश्चात संगीत एवं मंच कला संकाय की छात्राओं द्वारा विश्वविद्यालय के कुलगीत का गायन किया गया। इसके बाद संगीत एवं मंच कला संकाय की छात्रा अलंकृता रॉय ने कबीर के पद ‘गगन घटा गहरानी’ का गायन किया। कबीर विवेक परिवार द्वारा मंचस्थ अतिथियों को शॉल, स्मृति चिह्न एवं पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित किया गया। इसके साथ ही महिला अध्ययन एवं विकास केन्द्र की तरफ़ से मंचस्थ अतिथियों को कुछ पुस्तकें भी भेंट की गईं।
स्वागत वक्तव्य देते हुए महिला अध्ययन एवं विकास केन्द्र के समन्वयक प्रो. आशीष त्रिपाठी ने कहा कि, “डॉ. भगवंती सिंह का परिवार शुरुआत से ही शुकदेव सिंह स्मृति व्याख्यान के बहाने हिन्दी के भक्त कवियों पर बातचीत को बढ़ावा देता रहा है। पिछले एक दशक से ज्यादा समय से यह परिवार भक्ति के लोकवृत्त को केंद्र में रखकर विभिन्न व्याख्यान करवाता रहा है। मेरा मानना है कि विश्वनाथ जी के इस पुरस्कार को स्वीकार करने से शुकदेव सिंह स्मृति सम्मान की गरिमा बढ़ी है। पूरे भारतीय वांग्मय में प्रबंधात्मक कविता की परंपरा रही है, यहाँ तक कि विश्व साहित्य में भी जो लंबी कविताएँ लिखी गई हैं, अगर आप उन्हें देखेंगे तो उसके केंद्रीय पात्र पुरुष हैं। सूफी कवियों ने स्त्री केंद्रित प्रबंधात्मक काव्य लेखन की शुरुआत की। किसी भी देश और भाषा को बचाए रखने का काम श्रमिक और स्त्रियाँ ही करती रही हैं। जायसी हिन्दी के काव्य परंपरा में ऐसे पहले कवि हैं जिन्होंने लोकगाथाओं का प्रबंधात्मक काव्य रूपांतरण का बीड़ा उठाया। मध्यकाल बहुत से सांस्कृतिक परिवर्तनों का गवाह बन रहा था। इन सभी सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों को जायसी ने अपने काव्य में रेखांकित किया। भारतीय समाज ‘ संधि’ का समाज है। इस सांस्कृतिक समन्वय का गठजोड़ जायसी ने स्थापित किया।”
विषय की प्रस्तावना रखते हुए हिन्दी विभाग के आचार्य प्रो. मनोज सिंह ने कहा कि “ऐसा बहुत कम होता है कि किसी आलोचकीय व्यक्तित्व के न रहने पर उसका परिवार उसकी वैचारिकी को ऐसे रचनात्मक कार्यक्रम में बदल सके। शुकदेव सिंह ने मौखिक परंपरा में चल रहे ज्ञान को लिपिबद्ध करने की कोशिश की। शुकदेव जी मूल रूप से खिलंदड़ स्वभाव के थे। वे गप्प और कहानियाँ बनाने में माहिर थे। उनकी सरहपा से लेकर आधुनिक कवियों की कविताओं तक आवाजाही थी। भुवनेश्वर पर भी उन्होंने शोध किया। शुकदेव जी प्रश्नाकुल काव्य परंपरा के गंभीर अध्येता थे। इसके साथ ही वे विविध सांस्कृतिक मोर्चों पर भी सक्रिय थे। जायसी का समाज धर्मबहुला समाज है। उनका मानना था कि इसी दुनिया को प्रेम के द्वारा हम स्वर्ग बना सकते हैं।”
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं सामाजिक विज्ञान संकाय की प्रमुख प्रो. बिंदा परांजपे ने कहा कि “गोवा जैसे छोटे से राज्य ने कोंकणी भाषा को राजभाषा का दर्जा देने के लिए एक लंबा संघर्ष किया। पहले यह मराठी की बोली थी। किसी भी बोली को भाषा का दर्जा देने के लिए ‘पद्मावत’ जैसी बड़ी काव्य कृतियाँ प्रेरित करती हैं। इतिहासकारों को साहित्यकारों से संवाद बढ़ाने की जरुरत है। ठीक इसी तरह साहित्यकारों को भी इतिहासकारों से संवाद बढ़ाना होगा। जायसी ने अपनी रचना में प्राकृतिक भौगोलिक प्रतीकों को सहजता से उठाया है। जायसी द्वारा प्रयोग किए गए किसी भी शब्द को समझने के लिए वासुदेवशरण अग्रवाल ने खूब संघर्ष किया है। जायसी को आज के संदर्भों में समझने के लिए हमें सरल भाषा में आलोचना लेखन की ओर प्रेरित होना होगा।”
इस संयुक्त आयोजन का संचालन डॉ. प्रीति त्रिपाठी एवं धन्यवाद ज्ञापन प्रो. प्रज्ञा पारमिता ने किया।
इस कार्यक्रम में प्रो. अवधेश प्रधान, प्रो. बलिराज पांडेय, प्रो. वशिष्ठ द्विवेदी, प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल, प्रो. सुमन जैन, प्रो. सदानंद शाही, प्रो. नीरज खरे, प्रो. प्रभाकर सिंह, प्रो. सेवाराम त्रिपाठी, प्रो. भूपेन सिंह, प्रो. एन.के. सिंह, डॉ. रामाज्ञा राय, डॉ. मीनाक्षी झा, डॉ. सत्यप्रकाश सिंह, डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा, डॉ. विवेक सिंह, डॉ. नीलम कुमारी, डॉ. प्रभात मिश्र, डॉ. सत्यप्रकाश सिंह, डॉ. विंध्याचल यादव, डॉ. रवि शंकर सोनकर, प्रणय रंजन एवं कबीर विवेक परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही काफ़ी संख्या में शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की उपस्थिति रही।