अलीगढ़, 2 नवंबरः नागालैंड विश्वविद्यालय में 38वें दक्षिण एशियाई भाषा विश्लेषण गोलमेज सम्मेलन (एसएएलए 38) को संबोधित करते हुए लिंग्विस्टिक सोसाइटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष प्रो. एमजे वारसी ने मुख्य भाषण दिया। दक्षिण एशिया की भाषाई विविधता पर बोलते हुए प्रो. वारसी ने इस क्षेत्र की अद्वितीय बहुभाषिकता पर जोर दिया, जहां इंडो-आर्यन, द्रविड़ियन, तिब्बती-बर्मी और ऑस्ट्रोएशियाटिक परिवारों की 2 हजार से अधिक भाषाएं और बोलियां हैं।
उन्होंने बहुभाषिकता को दक्षिण एशियाई समाज का अभिन्न अंग बताया। प्रो. वारसी ने कहा कि दक्षिण एशिया में भाषा संचार के साधन से कहीं अधिक है, यह एक ऐसा पुल है जो विविध समुदायों को जोड़ता है तथा सांस्कृतिक और सामाजिक सामंजस्य को बढ़ावा देता है।
अपने भाषण में, प्रो. वारसी ने भाषाई और सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियों पर चर्चा की। जिसमें भाषा का संकट, हाशिए पर होना और असमानता शामिल है।
उन्होंने लुप्तप्राय भाषाओं को संरक्षित करने और समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय उपाय करने का आह्वान किया।
क्षेत्र की व्यापक सांस्कृतिक संपदा पर प्रकाश डालते हुए, प्रो. वारसी ने दक्षिण एशिया को प्रमुख धर्मों की जन्मभूमि बताया। उन्होंने सहस्राब्दियों से क्षेत्र की पहचान को आकार देने में भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के परस्पर प्रभाव पर प्रकाश डाला। नेल्सन मंडेला को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि यदि आप किसी व्यक्ति से उसकी समझ में आने वाली भाषा में बात करते हैं, तो वह उसके दिमाग में उतरती है। यदि आप उससे उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं, तो वह उसके दिल में उतरती है।
प्रो. वारसी ने प्रतिभागियों से भाषाई विविधता का सम्मान करने का आग्रह किया और कहा कि दक्षिण एशिया की भाषाई और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करना सामूहिक जिम्मेदारी है।