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अखबारों-पत्रिकाओं पर प्रतिदिन बेहिसाब कागज खर्च किया जाता है। लगभग सभी अखबार अपने पड़ोसी अखबारों से इस बात की तुलना करते हैं कि उनके यहाँ कौन सी ऐसी खबर है, जो उनके अखबार में नहीं छपी है। संबंधित पत्रकारों को इसके लिए डाँट पड़ती है। मीडिया लोकतंत्र का नहीं सरकार का चौथा खंभा होता है। आज सरकार की हुकुम-उदूली करके कोई भी अखबार वितरित नहीं किया जा सकता, उसे सरकारी विज्ञापन नहीं मिल सकता। हिंदी पट्टी के अखबारों में लोकल पेज प्रायः प्रेस विज्ञप्तियों से भरे जाते हैं। संबंधित बीट का रिपोर्टर चाहे भी तो कुछ खास नहीं कर सकता क्योंकि खबरों के चयन के मानदंड पहले से सेट किये गये रहते हैं। रिपोर्टिंग करना बहुत ही उबाऊ-खिझाऊ काम है, तभी तो फील्ड के अधिकतर पत्रकार अल्कोहलिक पाये जाते हैं।
हिंदी पट्टी में संपादकीय विभाग में काम करने वालों के पत्रकारों के ऊपर समय पर पेज बनाने का का इतना अधिक दबाव होता है कि वे रीडर-फ्रेंडली भाषा पर काम ही नहीं कर पाते। यह सही है कि जब हम अमूर्तन में जाते हैं तो रीडर-फ्रेंडली भाषा विचारों के बोझ को वहन नहीं कर पाती, इस समस्या का हल भी समाजवाद आने से पहले हल नहीं हो सकता क्योंकि गाँव बिंबों में सोचता है और शहर शब्दों में। दोनों का संश्लेषण करने की औकात पूँजीवादी समाज की नहीं है।
अखबारों में सनसनी मचाने वाली खबरें, पूँजीवादी राजनीति की खबरें और छोटे-बड़े अपराधों की खबरें छपती हैं, जिनका व्यावहारिक जीवन में कोई महत्व नहीं होता। महाराष्ट्र के सीएम फडनवीस बनें या उद्धव वहाँ के आम मेहनतकशों पर इससे क्या फर्क पड़ेगा। नीतियाँ तो पूँजी के पक्ष में और जनता के खिलाफ ही बननी हैं, सरकार चाहे जिसकी हो।
सांप्रदायिक सत्यानाशी बड़ी चालाकी और चुस्ती-फुर्ती के साथ अपने एजेंडे को बढ़ा रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी और RSS दोनों की ही स्थापना 1925 में हुई थी लेकिन चुनावी वामपंथ खत्म हो चला है और छोटे-छोटे वाम ग्रुपों की कोई औकात नहीं बन पाई है, उन्हें एनजीओ वालों और चुनावी मदारियों को अपने मंच पर जगह देनी पड़ती है। मीडिया पर बड़ी पूँजी का कब्जा है और वह सांप्रदायिक सत्यानाशियों के इशारे पर अपने एजेंडे को सेट कर रही है। यह तो हुई एक बात लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं होती।
आम जनता क्या रिसीव कर रही है और क्यों कर रही है, हमें इस पर भी तो ध्यान देना होगा। मजदूर वर्ग आज पशुवत जिंदगी जी रहा है, उसकी चेतना विघटित हो चली है। निम्न शारीरिकता और हिंसा उसकी अभलाक्षणिक विशिष्टता है। यही वजह है कि जब हिंसा और नफरत से लबरेज खबरें उस तक पहुँचती हैं, तो वह उसे रिसीव करता है। छोटे-छोटे वाम ग्रुप प्रायः वैकल्पिक मीडिया की बात करते हैं लेकिन वे सुविधा के साथ भूल जाते हैं कि हमारे देश में सामंतों की मुंडिया नहीं काटी गईं, पूँजीवाद चोर रास्ते से आया। धार्मिक सुधार, पुनर्जागरण और प्रबोधन की त्रयी से हमारा समाज वंचित रहा। यहाँ डिग्रीधारी तो बहुतेरे मिल जाएंगे लेकिन एक सामान्य सा परचा पढ़कर उसे समझने वाले मुश्किल से मिलते हैं।
माना जाता है कि जो बस एक भाषा जानते हैं, उनकी अपनी भाषा पर पकड़ उनसे बहुत अधिक होती है, जो एक से अधिक भाषाएं जानते और बोलते हैं। हमारे कॉमरेड अंग्रेजी में पढ़ते हैं फिर उसका हिंदीकरण करके आम जनता को परोसते हैं। यह बड़ा टेढ़ा काम है। आर्थिक-राजनीतिक विमर्श यूरोप-अमेरिका में अधिक प्रचलित हैं तो उनकी अंग्रेजी को हिंदी में ग्राह्य भाषा में प्रस्तुत करना चुनौती भरा काम होता है।
उपाय क्या है? अगर आप जनता का वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको मजदूरों की व्यापक गोलबंदी-जत्थेबंदी करनी होगी, सभा-सेमिनारों में उन्हें मंच पर बैठाना होगा। जन-कार्रवाइयों के दौरान उन्हें भाषण देने की ट्रेनिंग देनी होगी और इस तरह से तैयार होंगे हमारे मजदूर रिपोर्टर। बिना उनकी सहायता के वैकल्पिक मी़डिया को खड़ा नहीं किया जा सकता।
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हमारा मोर्चा के संपादक अद्वय शुक्ल की कलम से

 

 

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