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युवा मूर्तिकार संदीप कुमार के मूर्तिशिल्प का अवलोकन करते प्रो. अनुपम कुमार नेमा व पद्मश्री विजय शर्मा जी।

चारू चिंतन ‘ दृश्य कला प्रदर्शनी ( अहिवासी कला वीथिका, दृश्य कला संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी) में युवा मूर्तिकार संदीप कुमार की कलाकृतियाँ मानवीय विचारों के प्रवाह क्रम को दर्शाती है । बालक की शारीरिक चेतना निद्रावस्था में सुप्त होकर अंतः रूप में सक्रिय अमूर्त अवचेतन भावो को मूर्त रूप में प्रकट किया है।
मूर्तिशिल्प में मैने शिशु जनित अवचेतन व्यवहार के मनोवैज्ञानिक लक्षणों को उसके चेहरे में दर्शाने की कोशिश की है, जिसमें अनावश्यक बारीकियों को त्यागकर चेहरे के मूलभूत अवयवों को दृश्य रूप में दर्शाने का संभव प्रयास किया है।

अपने प्रारंभिक अध्ययन काल में मैं कम्पनी गार्डेन गया जहां चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा मेरे आंतरिक मन को प्रभावित कि यहां से मेरे चेतन मन में मनुष्य के चेहरे के भावों को दृश्य रूप में रूपांतरित करने का प्रयास आरंभ किया।

इसी क्रम में मेरे पूर्व की कलाकृतियां समकालीन घटनाओं से उत्पन्न हो रही हैं इसी को और गहनता से देखने व समझने के बाद यह और गूढ़ और गहरी होती हैं।

BFA के बाद प्रशिक्षण के दौरान मैंने व्यक्ति के शारीरिक बारीकियो को इतना ध्यान नहीं दिया जितना मेरा प्रयास होता था कि मैं भावों और उसके मनोवैज्ञानिक उतार-चढ़ाव को शरीर की भाषा में रहते हुए प्रकट करने का प्रयास कर रहा हूं। मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझने हेतु मैं आदरणीय डॉ. शांति स्वरूप सिन्हा गुरू जी के मनोवैज्ञानिक सम्बन्धी संभाषणों को सुनकर तथा उनसे इस विषय पर चर्चा करके जिससे मनोवैज्ञानिक संदर्भों को शारीरिक अवयवो में रूपांतरित कर सकूं।

एक बालक के मूर्तिशिल्प में मैंने शिशु जनित व्यवहार को मनोवैज्ञानिक लक्षणों के आधार पर उसके चेहरे में दर्शाने की कोशिश की है इसमें अनावश्यक बारीकियों को त्याग कर के चेहरे के मूलभूत अवयवो को दृश्य रूप में दर्शाने का संभव प्रयास किया है।

व्यक्ति के जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं जो उसके जीवन दर्शन को देखने के दृष्टिकोण को बताते हैं इन्हीं उतार-चढ़ाव के प्रक्रम में मनुष्य के चेहरे में भाव की उपस्थिति सौम्य, धैर्य तथा क्रोध, ईर्ष्या के साथ सदैव परिवर्तित होती रहती है परंतु उसका आदर्श रूप सदैव धैर्यवान व शांत रूप होता है जो भारतीय दर्शन की पराकाष्ठा की ओर इंगित करता है मैने मनोविज्ञान के साथ दर्शन को आधार बनाते हुए अपने मूर्त रूप में लाने का प्रयास किया

है। प्रभावादी चित्रकार अलग-अलग समय में चित्रण कार्य कर प्रकृति के विविध रंगों का अध्ययन करते थे। इन्हीं से प्रभावित होकर मैंने अलग-अलग भावों को भारतीय रस शास्त्र व अलंकारों को आधार बनाकर मनोविज्ञान व दर्शन के विचारों से संयुक्त प्रयोग करते हुए अनंतः मनोविकारों आरोह अवरोह को अपनी कलाकृतियों में तीव्र वैचारिक वेग से जो छणिक होता है और कभी मंद गति से चलता हैं उस वेग के सम्पूर्ण परिवर्तित अवयवो को प्रमुखता से दृश्य रूप में विभिन्न प्रयोगों के साथ करने को प्रयास रत रहता हूं । इन्हीं प्रयोगों के साथ मैं इस मूर्त रूपों में होने वाले माध्यमों का चयन कर इनकी प्रकृति व प्रवृति को समझकर अभिव्यक्त करता हूं जो कुछ नश्वर माध्यम होते हैं और कुछ अनश्वर माध्यम होते हैं मैं इन्हीं का प्रयोग अपने विषय वस्तु संबंध शोधों का अध्ययन करने व इस प्रकार के मूर्ति शिल्प जो वर्तमान में विभिन्न दीर्घाओ में प्रदर्शित हैं उनके अवलोकन में व्यय करूंगा और गुणवत्ता (नश्वर – अनश्वर) पूर्ण माध्यमों का अपनी कृतियों में प्रयोग करूंगा जो कलात्मक संबंधी विचारों को सुदृढ़ और कलाकृतियों को समृद्ध बना सकेंगे ।

मनोवैज्ञानिक क्रियाओं व प्रभाव संबंधी विषयों पर भारत राष्ट्र के अलग-अलग राज्यों के परिवर्तित भौगोलिक दशाओं के अध्ययनोपरांत प्रदर्शित अन्य कलाकारों की कृतियों का अवलोकन करूंगा साथ ही इनके पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों का गूढ़तम अध्ययन कर इनके सूक्ष्मतम विचारों और तकनीकों को समझंगा तथा इनको अपनी कला यात्रा में सम्मिलित करूंगा।

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