अमरेश कुमार
रिपोसे एक अत्यंत प्राचीन तकनीक है जो अभिव्यक्ति और रचनात्मकता की विविधता प्रदान करती है। इस तकनीक में एक लचीली धातु को पीछे की तरफ से हथौड़े और उपकरण से पीट कर अलंकृत किया जाता है। जिससे दूसरी तरफ उभरा हुआ डिजाइन और आकार बनता है। यह तकनीक किफायती होने के साथ-साथ, धातु के चादर की प्लास्टिसिटी (नम्यता) का अधिकतम प्रयोग करता है। इस तकनीक को एमबॉसिंग (खल-उभार का काम) या चेसिंग भी कहा जाता है।
धातु के चादर से बनी कलाकृति के सबसे प्रसिद्ध उदाहरणों में से एक काशी विश्वनाथ मंदिर का स्वर्ण शिखर है। ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार यह कला वैदिक युग में भी प्रचलित रही है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के पुरातात्विक खुदाई में धातु के चादर की आकृतियां मिली हैं।
इस सदियों पुराने शिल्प के रहस्य को बनारस के कसेरा समुदाय द्वारा पीढ़ियों से संरक्षित किया जाता रहा है। यह कला पारंपरिक उपकरणों का उपयोग करके पूरी तरह से हस्त निर्मित होता है। वर्तमान समय में डाई प्रेस मशीनों का प्रयोग किया जाने लगा है। भारत सरकार द्वारा वर्तमान में जी.आई. टैग भी प्रदान किया गया है। प्रारंभ में इसे बनाने के लिए कागज पर रेखा चित्र द्वारा मनोकुल डिजाइन बनाकर, 16 से 22 गेज मोटी धातु (सोना, चांदी, तांबा, पीतल और सफेद धातु) की चादरों को काटी जाती है। इसके ऊपर अथवा अंदर से लाख भरी जाती है।
अब रेखा चित्र के ऊपर पारंपरिक छेनी और छोटे-छोटे उपकरणों से डिजाइन को धातु चादर पर स्थानांतरित कर दिया जाता है। कागज को हटाकर एमबॉसिंग का कार्य करते हैं। जिस सतह का उभार करना होता है उसे उपकरणों से पीट कर गहरा करते हैं। इस गहराई वाले भाग में लाख गर्म करके भर देते हैं। उसके दूसरी तरफ उभारदार भाग को पीट-पीट कर मनोकुल रूप अथवा डिजाइन गढ़ते हैं। इस प्रक्रिया को 3 से 4 बार दोहराया जाता है। तब जाकर अंतिम रूप संपन्न हो पता है। यह प्रक्रिया काफी समय लेने वाली होती है और धैर्य की आवश्यकता होती है। अंत में चादर की डिजाइन को एसिड से सफाई कर, पॉलिश कर दी जाती है। इस पूरी प्रक्रिया को रिपोसे आर्ट कहते हैं।
दृश्य कला संकाय के छात्रों को इस इस पारंपरिक तकनीक के ज्ञान से अवगत कराने के लिए एक कार्यशाला का आयोजन किया गया है। यह कार्यशाला 4 नवंबर 2024 से 13 नवंबर 2024 तक चलेगा। कल 4 नवंबर 2024 को, कार्यशाला और सेमिनार का शुभारंभ हुआ। दृश्य कला की संकाय प्रमुख प्रोफेसर उत्तमा ने सुनील कुमार विश्वकर्मा, राज्य ललित कला अकादमी के अध्यक्ष एवं प्रोफेसर मदनलाल गुप्ता का स्वागत किया और कार्यशाला के संयोजक डॉ अमरेश कुमार ने संजय कुमार कसेरा का स्वागत किया। डॉ साहब राम टुड्डू ने सभी का धन्यवाद ज्ञापन किया। इस मौके पर संकाय के सभी शिक्षक-गण, छात्र उपस्थित थे। यह कार्यशाला डॉ अमरेश कुमार के संरक्षण में 10 दिनों तक चलेगी। कार्यशाला के अंतिम दिन सभी कलाकृतियों की प्रदर्शनी की जाएगी।
प्लास्टिक आर्ट की विशेषता—-
“प्लास्टिक” ग्रीक शब्द “प्लास्टिको” से उद्भव हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “ढालना” या “आकार” प्रदान करना। वर्तमान में यह सिंथेटिक सामग्री के रूप में आम जनता के बीच प्रचलित है। सिंथेटिक प्लास्टिक के जन्म से पूर्व ही “प्लास्टिक कला” शब्द का प्रयोग ऐतिहासिक रूप में साहित्य एवं दृश्य कलाओं के लिए किया जाता रहा है। लेकिन यह शब्द मूर्ति कला एवं पॉटरी कला के लिए विशेष रूप से प्रचलित रहा है।
प्लास्टिक आर्ट ऐसे कला रूपों के लिए जाना जाता है जिसके माध्यम एवं सामग्री में नम्यता और लचीलापन का गुण विद्यमान हो और आकार प्रदान करने योग्य गुण – धर्म हो, जैसे मिट्टी, मोम, लकड़ी, पत्थर, कॉन्क्रीट, धातु आदि। उपरोक्त त्रिआयामी सामग्री को भौतिक रूप से जोड़ और घटा कर अथवा हेर-फेर कर या माडलीग व उत्कीर्ण कर मूर्त रूप प्रदान करने के गुण-धर्म के कारण प्लास्टिक कला कहा जाता है। जर्मन दार्शनिक फेड्रिक विल्हेल्म जोसेफ शेलिंग और जर्मन आलोचक ऑगस्ट विल्हेल्म श्लेगल दृश्य कलाओं के अलावा इस शब्द को कविता पर भी प्रयोग किया गया था।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दृश्य कला संकाय के अंतर्गत प्लास्टिक आर्ट विभाग संचालित है। मूर्ति कला के विभिन्न माध्यमों व सामग्रीयो जैसे- पत्थर, लकड़ी, मिट्टी, पेपर मैशे, फाइबर ग्लास आदि के साथ-साथ पॉटरी कला के अलग सेक्शन विशेष रूप के संचालित है।
नवोदित कलाकार अपनी भावनाओं और चेतना के जमीन पर कल्पना के पुष्पों को अभिव्यक्ति कर कला सृजन का अभ्यास करते हैं। इस सृजन क्रम में कलाकार किसी रूप – आकार को भौतिक रूप में परिवर्तित करने के क्रम में प्रस्तर पर उत्कीर्ण करते हैं अथवा मिट्टी से रूप प्रदान करते हैं। अदृश्य भाव रूप को कल्पना के सहारे मनचाहा रूप में ढालते या आकार को गढ़ते हैं। इसी प्रक्रिया को प्लास्टिक आर्ट कहा जाता है। इसी दृष्टि से इस विद्या को केवल मूर्तिकला के लिए न प्रयोग कर, बृहद अर्थ में प्लास्टिक कला कहते हैं।