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वाराणसीः सुप्रसिद्ध कवि श्रीप्रकाश शुक्ल के काव्य संग्रह ‘रेत में आकृतियाँ’ के पेपरबैक संस्करण का लोकार्पण हिंदी विभाग के आचार्य रामचंद्र शुक्ल सभागार में किया गया। इस संग्रह का प्रकाशन वाणी प्रकाशन समूह की ओर से किया गया है। यह इस पुस्तक का दूसरा संस्करण है जिसमें युवा आलोचक विंध्याचल यादव की एक सशक्त भूमिका सम्मिलित की गई है, भूमिका में कविताओं का गहरा विवेचन किया गया है जिससे इस संग्रह की कविताओं को समझने के सरल सूत्र निष्पादित होते हैं।
कार्यक्रम में अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध ग़ज़लकार और हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो.वशिष्ठ अनूप ने कहा कि साहित्य में कुछ मूल्य होते हैं जो अपने सातत्य में चलते हुए हमारे साथ हमेशा बने रहते हैं तथा आने वाला कोई भी नया रचनाकार इन मूल्यों से बिल्कुल कटकर आगे नहीं बढ़ सकता है।, इस पुस्तक में ऐसे मूल्यों की झलक मिलती है जो परम्परा से चली आ रही है। श्रीप्रकाश शुक्ल ने बखूबी उन परम्पराओं को न केवल ग्रहण किया है बल्कि उसे नवीनता प्रदान करने में, कुछ नया रचने में भी सफल हुए हैं।
आत्मवक्तव्य देते हुए कवि श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि लंबे समय बाद भी यदि आपको किसी खास कृति से बार-बार याद किया जाए तो जरूर उस कृति में विशेषता होती है, कुछ ऊर्जा होती है जो न केवल पाठकों को बार-बार आकर्षित करती है बल्कि रचनाकार भी मुड़कर कई बार उस ओर जाता है। इतिहास, दर्शन और संस्कृति का खूब इस्तेमाल इस पुस्तक में किया गया है जिसको पुस्तक की भूमिका में डॉ. विंध्याचल यादव ने बखूबी रेखांकित किया है। प्रो.शुक्ल ने कहा कि इन कविताओं पर शैवागम दर्शन का गहरा प्रभाव है उसको भूमिका में ठीक से पहचाना गया। प्रो.शुक्ल ने कहा कि मैंने इस संग्रह में आत्मलय से अधिक आत्मविसर्जन की कोशिश की है और यह स्थिति जब होगी तभी व्यक्ति समष्टिगत चित्त के नजदीक होगा।
प्रतिष्ठित मूर्तिकार व रामछाटपार न्यास के अध्यक्ष मदनलाल जी ने रामछाटपार न्यास द्वारा हर वर्ष 19 जनवरी रेत में बनाई जाने वाली रेत में आकृतियों के इस संग्रह पर प्रभावों की बात करते हुए बताया कि इस संग्रह में दार्शनिकता के साथ आध्यात्मिकता भी है जो हमारे जीवन को गंगा से जोड़ती है।
ख्यात आलोचक प्रो.कृष्णमोहन सिंह ने कहा कि किसी भी रचनाकार के लिए उसकी रचना बेहद की गहरी संवेदना पैदा करने वाली चीज है,. उसका रचनानुभव किसी न किसी रूप में कविता में आता है। इस संग्रह में बीच-बीच में ऐसे पुट आते हैं जिसमें श्रीप्रकाश शुक्ल के अनुभूति और अनुभव का द्वंद्व दिखाई देता है। प्रो.कृष्णमोहन ने कहा कि इस संग्रह के माध्यम से रेत में उभरी आकृतियों तक रचनाकार पहुँचा है।
वरिष्ठ आलोचक प्रो.कमलेश वर्मा ने कहा कि श्रीप्रकाश शुक्ल इस संग्रह में बनारस को समझने की कोशिश करते हैं,। यह किताब बहुत बड़ा रूपक गढ़ती है जिसमें दार्शनिकता का पक्ष गहरे से शामिल है। इस पुस्तक के केंद्र में रेत है, रेत से जुड़ी नदी है, नदी पर चलने वाली नाव है, रेत में आकृतियाँ उभारने वाले कलाकार हैं और उनकी नमी है और उनपर निठारी कांड जैसे वीभत्स प्रकरण उभरे हैं,। इन आकृतियों में कुछ प्राकृतिक हैं तो कुछ कृत्रिम। प्रो.कमलेश वर्मा ने कहा कि इस संग्रह में श्रीप्रकाश शुक्ल अपने अन्य कविता संग्रहों की अपेक्षा थोड़े अंतर्मुखी हुए हैं जिसमें वे प्रकृति के उपादानों के सहारे दार्शनिकता की ओर उन्मुख हुए हैं।
युवा आलोचक डॉ.विंध्याचल यादव ने कहा ‘रेत में आकृतियाँ’ संग्रह में बनारस के एक अलग स्पेस उभरकर सामने आता है, अपनी कविता में श्रीप्रकाश शुक्ल बनारस की सांस्कृतिक बुनाई करते हैं तथा बनारस के सांस्कृतिक, भौगोलिक बोध के साथ उसकी स्थानीयता को अपनी दृष्टि में रखते हुए काम करते हैं।
अपनी कविताओं से वे बनारस के एक वैकल्पिक भूगोल तलाशने में सफल हुए हैं जिसमें बनारस के पंडा-पुरोहितवादी के विपरीत एक मानवीय बनारस उभरकर आता है जिसमें गंगा पार का भूगोल भी शामिल है। डॉ. विंध्याचल यादव ने कहा है कि मनुष्य की विस्मृति के खिलाफ श्रीप्रकाश शुक्ल ने कविताएँ लिखी हैं, ।मनुष्य की स्मृति को प्रभावित करने की जो पूँजीवादी कोशिशें की जा रही हैं उसको अनावृत किया है।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ.नीलम कुमारी ने किया। कार्यक्रम में स्वागत वक्तव्य वाणी प्रकाशन समूह की निदेशक अदिति माहेश्वरी ने दिया।
कार्यक्रम में खुशबू कुमारी, अलका कुमारी और निवेदिता ,ने कुलगीत की प्रस्तुति दी।
कार्यक्रम में प्रो.बलराज पाण्डेय, प्रो.तरुण कुमार, प्रो.के.एम. पाण्डेय, सुनीता शुक्ल, प्रो.सुचिता वर्मा, प्रो.नीरज खरे, प्रो.प्रभाकर सिंह, डॉ शिल्पी,डॉ. प्रभात कुमार मिश्र, डॉ. लहरीराम मीणा, डॉ. राजकुमार मीणा, डॉ. धीरेंद्र चौबे, डॉ. प्रियंका सोनकर राधाकृष्ण गणेशन, रवि अग्रहरि,शबनम खातून तथा भारी संख्या में छात्र-छात्राओं एवं शोधार्थियों की उपस्थिति रही।