कार्यकारी संपादक, कामता प्रसाद की कलम से
Child abuse का सबसे घृणित स्वरूप यौन-शोषण होता है लेकिन बच्चों के साथ दूसरे व्यवहार भी ऐसे हो सकते हैं जो कि उनके बाल मन पर बेहद खतरनाक असर डालते हों। इसीलिए कहा और माना जाता है कि स्त्री को आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी और दबंग होना चाहिए, ताकि वह अपने बच्चों को हर तरह के ट्रॉमा से बचा सके। क्या माताएं भी अपने बच्चों को लेकर निरंकुश-स्वेच्छाचारी होती हैं, मेरे पास आंकड़े नहीं हैं। बस, एक दृश्य उपस्थित करना चाहूँगा। अगर आप सो रहे हों और कोई बेहूदे अंदाज में आपको जगाना चाहे तो कितना बुरा लगता है। मुझे जब अपनी बेटियों और नातियों को जगाना होता है तो मैं उन्हें लोरी जैसी कोई चीज गाकर जगाना पसंद करता हूँ।
मुझे बाइपोलर डिसआर्डर है और मेरे चाचा को स्किजोफ्रेनिया है। मेरे चाचा की खराब दिमागी हालत का कहर मुझे झेलना पड़ा था, माने जब-तब अपमानित करना और पीट देना। पिता किसी भी ऐंगल से सहृदय इंसान नहीं थे। एक बार मैं उनके और गाँव वालों के साथ अमेठी जा रहा था शादी की खरीदारी करने। साइकिल से गिर गया और घुटने पर पैंट फट गया। बेटे को चोट लगी है, इस पर उनका ध्यान गया ही नहीं। पैंट फट गई है, इस पर फटकारना याद रहा। मेरे बाबा बेहद बीमार थे और उनके तीनों बेटों ने उनका वाजिब इलाज नहीं कराया, परिणाम मैं भुगत रहा हूँ।
—————————————
दुनिया सभी के लिए खूबसूरत बने इसके लिए हम सभी को मिलकर प्रयास करना चाहिए। सोचकर देखिए, आप सभी की जिंदगी में बदसूरती रही होगी तो दूसरों के साथ तदनुभूति कायम कीजिए और जिंदगियों को बेहतर बनाने के काम में जुट जाइए।
————————————-
मौसी कै बेटवा मलखान अर्थात अंशू पाठा से एक सवालः अपने यहाँ छेदीबाबा, सातौ बहिनी, जोगिनी माई, विंध्याचल जैसे लोक देवता-ग्राम देवता और देवियाँ तो थीं लेकिन मंदिर कहाँ था भाई। जाहिर है मंदिर बनियों की आराध्य देवी अर्थात पूँजी की जरूरत है, मेहनतकश ग्रामीणों की नहीं।
—————————–
जब हम बेगानों के लिए श्रम करते हैं तो उत्पाद से हमारा अलगाव हो जाता है और यही अलगाव जिंदगी में भी समा जाता है। समस्त मेहनतकश और पूँजीपति वर्ग दोनों ही इस अलगाव की पीड़ा को झेल रहे हैं। इस अलगाव से मुक्ति सिर्फ समाजवाद ही दिला सकता है।
———————————————
गूदर चमार को कलकत्ता 120 खाने का हक क्यों नहीं होना चाहिए, वे क्यों पूना पत्ता वाला पान खाएं। इसी तरह समस्त मेहनतकशों को हगने के लिए कमोड वाला शौचालय क्यों नहीं मिलना चाहिए, जबकि वे ऐसा चाह रहे हों। आधुनिक विज्ञान ने पूँजीपतियों के जीवन को जितना सुखकर बनाया है, वह उतना ही सुखकर जीवन मेहनतकशों-बेरोजगारों और लाचारों का क्यों नहीं बना रहा है।
————————————–
भारत में सामंतों की मुंडियां नहीं काटी गईं और यह पर लोकतंत्र चोर दरवाजे से आया है। चेतना का स्तर काफी पिछड़ा हुआ है। तो ऐसा करते हैं कि बुनियादी मुद्दों पर आंदोलन खड़ा करते हैं, जिसके ताप से चेतना का स्तरोन्नयन हो। लाला की लँगड़ी औलाद अभिनव सिन्हा से मैं पूछना चाहूँगा कि जिन्हें तुम धनी किसान कहते हो, वे इस देश में संख्या में कितने हैं और क्या उनका जीवन-स्तर लाख रुपये का वेतन पाने वाले क्लर्क से बेहतर है? माना कि यह सही है कि धनी किसान उजरती मजदूरों का शोषण करते हैं, लेकिन फिर भी!!!
————————————
समाजवाद आएगा तो बच्चे राज्य की जिम्मेदारी होंगे और उनका सभी तरह का शोषण खत्म हो जाएगा। तो आइए, समाजवाद के लिए लड़ने का संकल्प लेते हैं। असंगठित-निर्माण श्रमिकों को अगर बड़े पैमाने पर यूनियन से जोड़ लिया जाए तो उनके बीच से उन्नत तत्वों को छाँटने का काम आसान हो जाएगा और कम चेतना वाले मजदूरों में भी संगठन शक्ति के एहसास को भर देगा। आज जरूरत इस बात की है कि सारी मांगें राज्य से की जाएं और उसके बुर्जुआ चरित्र को बेनकाब किया जाए, ताकि मुकम्मल आजादी की बात मेहनतकशों को समझाई जा सके और उन्हें समाजवादी क्रांति के पक्ष में तैयार किया जा सके।
————————————–
जो औरतें पितृसत्ता को दिन-रात कोसती रहती हैं और अपने पिताओं को विलेन के रूप में पेश करती हैं, उनसे चंद बातें। बच्चे को आज्ञाधीन उपकरण मानना भी तो उसके साथ दुर्व्यवहार करना हुआ और आप यह काम निरंतर करती रहती हैं। आप भी तो अपनी बेटी के मुकाबले बेटे को तरजीह देती हैं।
—————————————
पिछले साल अगस्त में मुझे एंडोऑक्सिफेन नामक दवा मिली और मैंने गुस्से पर काबू पाना सीख लिया, उसके पहले जिस किसी से भी दुर्व्यवहार किया है, उससे मन ही मन माफी मांगता हूँ। अपने नए पाठकों को बता दूँ कि पूँजीवाद अब युद्ध और बर्बादी के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। युद्धक विमान और दूसरी जानलेवा सामग्री बनाने वाले अमेरिकी पूँजीपतियों के हितों के लिए हम जनसाधारण के हितों को कुर्बान नहीं कर सकते। पूँजीवाद मनुष्यता को कुछ भी सकारात्मक नहीं दे सकता। आज विज्ञान ने इतना तरक्की कर ली है कि हर किसी की जिंदगी आसान हो सकती है, हर किसी को सैर-सपाटे, खेलकूद और अध्ययन-मनोरंजन का मौका मिल सकता है। हर कोई एसी-बुलेट ट्रेन में सफर कर सकता है, बस हमें ऐसा समाज बनाना होगा जो पूँजी-संचय की हवस से मुक्त हो।
अब मेरा वानप्रस्थ आश्रम शुरू हो चुका है। नातियों के साथ खेलते वक्त कैथारसिस की प्रक्रिया के जरिए दुःस्वप्नों से उबर रहा हूँ।