भाजपा ने बेऔकात के पूँजीपतियों से रंगदारी वसूलने के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया। ऐसा कत्तई नहीं है कि पूँजीवादी दुनिया की ये छोटी मछलियाँ कपिला गऊ हैं और CBI-ED वगैरह को उनके पीछे लगाकर भी कुछ हासिल नहीं किया जा सकता था। भयादोहन उसी का किया जाता है, जिसके पास भयभीत होने का कोई कारण होता है। पहली बात, बहुत सदाचारी बनकर मजदूरों का शोषण करने के लिए फैक्टरी-धंधा चलाना संभव नहीं। फिर जब लूट ही मचानी है तो हिस्सा तो सभी को चाहिए। सीधे नहीं दोगे तो हम जबरी ले लेंगे। डॉक्टर अस्पताल खोलकर मरीजों को लूटते हैं तो अपहरण उद्योग अस्तित्व में आता है, रंगदारी माँगने का चलन शुरू होता है।
भाजपा के राजनाथ सिंह कह रहे हैं कि CBI-ED की कार्रवाई के खिलाफ लोगों के पास कोर्ट जाने का विकल्प है, अजी बिल्कुल है लेकिन कोर्ट में कार्यरत जज-साहिबान के भी तो वर्ग हित होते होंगे। दूसरी बात, शीर्ष नौकरशाही समग्रता में पूँजीपति वर्ग की चेरी होती है। वह जिस जीवनशैली को जीती है, जिस वैभव और ठाट-बाट का उपभोग करती है, वह उसे रीढ़-विहीन और नैतिक रूप से खोखला बना देती है। मीडिया की शीर्ष नौकरशाही का भी यही हाल है। संजय पुगिलया को एक दिन NDTV पर देख रखा रहा था, बुर्जुआ ढंग-ढर्रे की पत्रकारिता के भी सारे नियम-कायदों को धता बताते हुए एकदम से निर्लज्जतापूर्वक भाजपा-भक्ति प्रदर्शित कर रहा था।
मेरे जैसा कामयाब पेशेवर जानता है कि एक नंबर की कमाई से सूट-बूट पहनना, हवाई यात्राएं करना और बच्चों को डिस्को भेजना संभव नहीं। इसी बनारस के गाँव में रहकर हर महीना 5 हजार अमेरिकी डालर तक कमाए हैं। शीर्ष नौकरशाहों की आखिर सैलरी कितनी होती है? इतनी तो नहीं कि करोड़ों के बंगले-फार्महाउस बनवाएं। पर चलता है।
IAS-IPS की परीक्षा पास करने के लिए जितनी इच्छाशक्ति की जरूरत होती है, वह व्यक्तिवाद से ही तो आई हुई होती है। लोग सलाम ठोंकें और अमीर बनने का खूब मौका मिले। जब केंद्र में व्यक्तिवाद होगा और शरीर बेहिसाब सुविधाएं भोगने का आदी हो चुका होगा तो आत्मा बगावत कैसे करेगी जनाब? शीर्ष नौकरशाही रिश्वतखोर है और यह बात हमारे माननीय सांसद-विधायक महोदय जानते हैं, तभी तो सत्तारूढ़ नेता विपक्षियों के खिलाफ, छोटे पूँजीपतियों के खिलाफ और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ विधि-प्रवर्तन एजेंसियों को लगा देते हैं। पर ऐसा करने के पीछे जो वजह बताई जाती है, असल में वह होती नहीं है और जो होती है उसे प्रचारित नहीं किया जाता।
प्रथम आम चुनावों के बाद से नेताओं की परजीवी जमात ने बहुत मेहनत की है। समाज में खंडीकरण की राजनीति को परवान चढ़ाया है। जातियों के नाम पर खंडीकरण इनमें से सबसे अहम है। भाषा-क्षेत्र और मजहब के नाम पर खंडीकरण की कामयाब कोशिशों के उदाहरण तो बहुतेरे हैं। बनारस में सर्वे करके देखा जा सकता है कि मध्यम जातियों के लोग मोदी को लेकर लहालोट हैं, वे मोदी को OBC मानकर उसके साथ तादात्म्य स्थापित किए हुए हैं।
प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एकतरफा तौर पर भाजपामय हुआ पड़ा है। कुछ न्यूज पोर्टल जरूर ऐसे हैं जो कांग्रेस-भक्ति का राग अलाप रहे हैं, लेकिन मुख्यधारा का नहीं होने के कारण वे उतने असरदार नहीं हैं। जिस दिन चुनावी मुद्दा निजी संपत्ति बनाम रोजगार की सार्वजनिक गारंटी बन जाएगा, उस दिन जनता इन समस्त मदारियों को इतिहास के कूड़ागाड़ी में फेंक देगी और वह ऐसा गैर-संसदीय रास्ते से ही करेगी, इतिहास की शिक्षाएं तो यही सबक देती हैं।
सरकार पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती है, अब अगर पूँजीपतियों के तात्कालिक हित एक-दूसरे से टकरा रहे हों तो उन्हें मैनेज करना किसी भी कमेटी के लिए टेढ़ी खीर हो सकता है। भारत में पूँजीपति खुद चुनाव में लड़कर सरकार चलाने का काम नहीं करता पर जो नेता सरकार बनाते हैं, उनके भी तो अपने वर्गीय हित होते हैं और वे वर्गीय हित मज़दूरों के श्रम से अधिशेष निचोड़ने वाली सत्ता-व्यवस्था के हित से नाभिनालबद्ध होते हैं।
समाज जब से वर्गों में विभाजित हुआ है तब से एक वर्ग दूसरे वर्ग पर शासन कर रहा है। एक नजर में ऐसा मालूम पड़ता है कि राजतंत्र में अकेले राजा की इच्छा ही सर्वोच्च थी, पर ऐसा असल में था नहीं। राजा को भी अपने अमले और पुरोहित वर्ग को साधकर रखना होता था, यह सही है कि बाकी के मुकाबले उसकी थोड़ी ज्यादा चलती थी पर समग्रता में व्यवस्था को लेकर जहाँ तक प्रश्न था, वह अपने वर्ग के विचारों से निर्णायक दूरी नहीं बना सकता था।
जारी हुए आँकड़ों के अनुसार, चुनाव बांड के ज़रिए सबसे ज़्यादा चंदा प्राप्त करने वाली 5 पार्टियों में भाजपा सबसे ऊपर है। भाजपा को लगभग 6,060 करोड़, त्रिणमूल कांग्रेस को 1609 करोड़, कांग्रेस को 1422 करोड़, भारत राष्ट्र समिति को 1215 करोड़ और बीजू जनता दल को 775 करोड़ रुपए हासिल हुए हैं। चुनाव आयोग के अनुसार 12 अप्रैल 2019 से जनवरी 2024 तक सभी पार्टियों को कुल 12,769 करोड़ रुपए चुनाव बांड के ज़रिए हासिल हुए हैं। इस तरह लगभग आधी रक़म सिर्फ़ भाजपा के पास गई है और बाक़ी आधी अन्य सभी पार्टियों के पास।
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कामता प्रसाद
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