हँसी
रोनेवाली
तमाम पस्थितियों को
धता बताते हुए
हमने
हँसने की ठान ली है।
मँहगाई,,,,,, भ्रष्टाचार,बलात्कार
के बाद भी
हम हँसेंगे
एक बेशर्म-सी हँसी
कोई टैक्स; नहीं लगा सकता
हमारी हँसी पर ।
हम हँसेंगे ज़ोर-शोर से
तब-तब भी
जब-जब मरेगा संविधान
उसकी रक्षा के लिए तैनात
प्रहरी की
बेआवाज गोली से।
देह होने के लिये
सिल दिये गये हैं,
जिसके
होंठ
निश्चित कर दी गई
है जिसकी परिधि
उस स्त्री के लिये
जरूरी है
सदियों से चली
आ रही परम्परा
को गाँठ में बाँध
लेना
रूढ़ियों की कब्र में
दफ्न कर देना
सभी संवेग
इच्छाओं की पोटली
को नदी में गहरे
विसर्जित कर देना
जरूरी है।
देह होने के लिये
क्योंकि
दुनिया के सबसे बड़े
कायदों में से एक है
स्त्री का स्त्री न होकर
देह हो जाना।
पहली बार जब रम्भा को देखा था
फूलों-सी हँसती
नदी-सी इठलाती
गौरेया-सी फुदकती
हुई
मृगी-सी आँखों में बला का चापल्य
लिये
तराशे हुए बदन के साथ
प्रकृति के अनुपम उपहार-सी दिखी थी मुझे
कोई सोलह सत्रह की वय में थी वह उस समय
बात-बे-बात मुस्कराना और सवालों की बौछार करना उसकी आदत थी
मसलन आप लिखती क्यों हैं
आप पढ़ती क्यों हैं
आप सबकी तरह क्यों नहीं हैं
आप इतनी गंभीर क्यों हैं
आप ने सबकुछ सहना कैसे सीखा?
जो आपको परेशान करता उसका प्रतिकार क्यों नहीं करती
क्यों नहीं देती बुढ़िया चाची का जबाव आप
आखिर आपको ससुराल से मिला क्या
उसके सवाल और वह
एक के बाद एक चलकर थक जाते
मन-ही-मन मैं सोचती
चुपकर लड़की कितना बोलती है
कुछ प्रश्नों के उत्तर समय देता है मनुष्य नहीं।
वह रूठकर चली जाती
मुझे विचारार्णव में गोता लगाती छोड़कर
आज रंभा वर्षों बाद मिली थी
दो छोटे बच्चों…
एक दिन
एकदिन जब समय बूढ़ा होकर
घुटने टेक देगा
सोचती हूँ
क्या कोई लाठी उसे
सहारा दे सकेगी ?
क्या लौटा पायेगा वह युवावस्था की
खोई हुई कीमती वस्तु
गरीब की बेटी की तरह
बेच दी गई जमीनें
ताल, पोखर और अमराई लौटा पायेगा वह
न्याय की तुला पर कुण्डली मारे अन्याय को
हटा सकेगा अपनी जगह से?
जन्म लेते ही मर गई जिसकी माँ
उस शिशु को दूध दे सकेगा ?
या उस शिशु को जिसकी
माँ कानीन थी?
क्या लौटा पायेगा उस
विधवा का धव
जिसका जन्म उसके नाम पर
होम कर दिया गया।
क्या मार देगा बेईमानी की भूख को
नहीं न,
तो
मैं एक लाठी रखना चाहती हूँ
समय की पीठपर,और बनाना चाहती हूँ
बाँस का एक पुल
जो समय रहते बता सके
समय की औकात।
प्रियंवदा पांडेय