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इष्ट देव सांकृत्यायन

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वीरगति प्राप्त करने वाले सैनिकों के मरणोपरांत दी जाने वाली राशि का क्या किया जाए, इस पर अपना अत्यंत बहुमूल्य ज्ञान देने से पहले जरूरी है कि उस सैनिक की मनःस्थिति के बारे में भी एक बार जान लिया जाए। यह बात भी ध्यान रखी जाए कि वह सैनिक की अपनी कमाई हुई राशि होती है, वरासत में मिली हुई नहीं। वह कमाई हुई राशि भी कोई मामूली नहीं होती है। उस राशि के बदले में उसने अपना केवल श्रम और कौशल या अपनी विशेषज्ञता नहीं दी होती, यथार्थतः अपनी जान दी होती है। कई बार तो ऐसी जगह जहाँ शरीर के चीथड़े उड़ गए होते हैं और वो चीथड़े भी बटोर कर लाए नहीं जा पाते। मुद्दे पर अपना ज्ञान देने और निरर्थक बहस का मुद्दा बनाने से पहले एक बार सोच लिया करें कि जिनके मन के कोने-कोने में एक रिश्ते के रूप में उस अस्तित्व की स्मृतियाँ समाई होती हैं, जिनके लिए वह एक राजनैतिक या सामाजिक या विधिक मुद्दा भर नहीं होता, उन पर आपके इस महान योगदान से क्या प्रभाव पड़ेगा।

जिस तरह किसी सिविलियन का अपनी कमाई हुई राशि पर पूरा अधिकार होता है, वैसे ही सैनिक का भी अपनी कमाई हुई राशि पर पूरा अधिकार होता है। यह ऐसे ही नहीं होता, सेना की दो दशकों से चली आ रही एनओके (नेक्स्ट ऑफ किन यानी निकटतम रिश्तेदार) पॉलिसी के तहत होता है। यह पॉलिसी कोई आज ही नहीं लागू की गई है और न ही बिना सोचे-समझे लागू की गई है। जो लोग अपनी फ्लॉप राजनीति चमकाने के लिए आज कैप्टन अंशुमान के माता-पिता के बहाने उनकी पत्नी की भावनाओं से बर्बरतापूर्वक खेल रहे हैं, उन्हें बहुत अच्छी तरह पता है कि इसे ले आने और लागू कराने का श्रेय जनरल वीपी मलिक को दिया जाता है, जिनका कार्यकाल 30 सितंबर 2000 को ही संपन्न हो गया था। जिस ईवीएम को आज वे गालियाँ दे रहे हैं, उसी ईवीएम के दम पर बीच में दस साल उनकी सरकार रह चुकी है। उनकी सरकार रहते ऐसे कितने कैप्टन शहीद हुए और उनके परिजनों के साथ क्या व्यवहार हुआ, यह शायद अभी के ज्ञानचंद जी लोग भूल गए हैं। लेकिन, यह प्रश्न और इसका औचित्य समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस के ज्ञान की आवश्यकता नहीं है कि अपनी सरकार रहते उन्हें इस पॉलिसी में संशोधन की जरूरत क्यों नहीं महसूस हुई?

अब जब आप यह अमूल्य ज्ञान बिखेर रहे हैं कि उस राशि में माता का कितना हिस्सा होना चाहिए, पिता, या भाई, या बहन, या बुआ, या फूफा, या पत्नी, या बेटी, या बहू, या दामाद, या गर्लफ्रेंड, या पड़ोसन, या फिर किसी और का कितना अधिकार या हिस्सा होना चाहिए… तो प्रभु, आप उस हुतात्मा की इच्छा को ठेंगा दिखा रहे हैं, जो वह पहले ही सेना को अपनी वसीयत में लिखकर दे चुका है। इस वसीयत पर कुछ गवाहों के हस्ताक्षर भी होते हैं और वह चाहे तो उसे अंतिम क्षण तक बदल भी सकता है।

क्या आपको अच्छा लगेगा कि आपके कमाए हुए धन के लिए आपकी वसीयत तामील कराए जाने से पहले उस पर देश भर के ज्ञानचंदों से वोटिंग कराई जाए? अगर आपको वसीयत बनाने का अधिकार है और आप चाहते हैं कि उस पर बिना किसी चूं चपड़ के अमल किया जाए, तो किसी सैनिक से उसके न्यायसंगत मूलभूत नागरिक अधिकार आप क्यों छीनना चाहते हैं? केवल इसलिए कि उसने अपना घर-परिवार और सुख-सुविधाएं सब छोड़कर आपकी रक्षा की? क्या आपको नहीं लगता कि आपका यह ओवरफ्लोइंग ज्ञानचंदत्व उसकी वीरगति का घोर अपमान है? इन प्रश्नों से जूझते हुए यह भी ध्यान रहे कि बतौर सिविलियन आपके कमाने और एक सैनिक के कमाने में बहुत अंतर होता है।

अगर वाकई अपने ज्ञान का जनहित में कुछ सदुपयोग चाहते हैं तो कभी यह प्रश्न भी उठाइए कि देश की अर्थव्यवस्था पर ज्यादा भार किससे पड़ रहा है? आपकी या आप जैसों की पेंशन से या फिर माननीयों की पेंशन से, जिन्हें एक नहीं, तीन-तीन, चार-चार पेंशन मिल रही होती है? योग्यता और पात्रता तो आप जानते ही हैं। अगर उनकी पेंशन का भार उठाने लायक देश की अर्थव्यवस्था है तो आपकी पेंशन का भार क्यों नहीं उठाया जा सकता, जिसने पाँच नहीं, बीस-तीस-पैतीस साल तक देश की सेवा में दिए हैं? अगर आप उन्हीं माननीयों के हाथों की बेजान कठपुतली नहीं बनना चाहते जो आपको इस या उस तरह की निरर्थक बहस में झुलाते रहना चाहते हैं और आपके पास माननीयों से इतर थोड़ी सी अपनी समझ भी है तो फिर आपके अपने दिमाग में तो ये सवाल उठने चाहिए, जो कि आपके अपने ही जीवन से संबंधित हैं।

उठाइए प्रश्न कि अपनी सरकार रहते इन्होंने मानेक शा जैसे वीरों के साथ क्या किया? इनकी सरकार रहते जो फौजी रिटायर हुए और स्वाभाविक मृत्यु से मर गए, उनमें से कुछ के परिवार को आज तक फेमिली पेंशन नहीं मिली, उनकी अपनी की हुई वसीयत के ही अनुसार। क्यों? ऐसे फौजियों के परिवारों से मिलने, या उनके मुद्दे पर सवाल उठाने की जरूरत क्यों नहीं महसूस हुई? क्या हुआ उन भारतीय युद्धबंदियों का जिन्हें 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान ने कैद कर लिया था, जबकि उनके 93 हजार युद्धबंदी छोड़ दिए गए? सेना के शौर्य से मैदान में जीती गई लड़ाई राजनेताओं की समझदारी से टेबल पर एक तरह से हम हार गए। क्यों?

अगर ये प्रश्न आपके मन में उठते हैं और आप इनका जवाब चाहने का साहस रखते हैं तो समझिए कि आप अपनी ही बुद्धि से चल रहे हैं। वरना अपने क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के लिए समाज और देश के टुकड़े-टुकड़े करने का शौक रखने वालों की बुद्धि से तो मनुष्य रूप में तमाम कठपुतलियां चल ही रही है। बाकी ज्ञान तो आपके पास हइये है महराज। ओभरफ्लो करिए रहा है। ठेलिए न, जेतना ठेल सकते हैं।

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