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वाराणसीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पुरा छात्र और भारत सरकार में पूर्व प्रधान मुख्य आयकर आयुक्त उमाकांत शुक्ल की आत्मकथा की पुस्तक ‘तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी’ का लोकार्पण भोजपुरी अध्ययन केंद्र के राहुल सभागार में किया गया। इस पुस्तक का प्रकाशन सेतु प्रकाशन समूह की ओर से किया गया है। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक प्रो.सुरेंद्र प्रताप ने की तथा मुख्य अतिथि के रूप में प्रसिद्ध संगीतज्ञ राजेश्वर आचार्य उपस्थित रहे। विश्वविद्यालय की ओर से सांख्यिकी विभाग के अध्यक्ष प्रो. ज्ञानप्रकाश सिंह ने पुरा छात्र के रूप में उमाकांत शुक्ल का अंगवस्त्र एवं पुष्पगुच्छ देकर सम्मान किया। कार्यक्रम का आयोजन मानस पत्रिका परिवार की ओर से किया गया।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो.सुरेंद्र प्रताप ने कहा कि ‘तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी’ की व्यथा, उसकी त्रासदी केवल उमाकांत शुक्ल की ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय समाज की है। प्रो सुरेंद्र प्रताप ने कहा कि पुस्तक बहुत सामाजिक है।सोचने के लिये मजबूर करती है। यह आत्म पीड़ा को सामाजिक स्वरूप देती है। यह जीवन की गहरी जिजीविषा की पुस्तक है।
पद्मश्री राजेश्वर आचार्य ने कि यह पुस्तक सहज तरह से लिखी गयी है जो आत्मकथा से आगे बढ़कर आत्मपठन है। यह पुस्तक आगत का स्वागत करने के लिए तैयार किया गया एक पाथेय है जो आने वाली पीढ़ी को जीवन संघर्षों में बिना डिगे आगे बढ़ने की प्रेरणा देगा। निरपेक्ष भाव से अपनी जीवनयात्रा में आगे बढ़ते हुए उमाकांत शुक्ल ने अमूर्त भाव से सांस्कृतिक गुणसूत्रों की पड़ताल की है जिसमें जीवन जीने का ढंग है कोई ढोंग नहीं।
अपने आत्मवक्तव्य में उमाकांत शुक्ल ने कहा कि हर व्यक्ति के जीवन में उतार चढ़ाव होता है लेकिन कभी-कभी व्यक्ति के जीवन में यह उतार-चढ़ाव इतने ज्यादा हो जाते हैं कि वह किताब की शक्ल ले लेते हैं क्योंकि यह इतने गहरे होते हैं कि व्यक्ति इनको लिखकर ही पार पा लेता है। अपने आत्मवक्तव्य में उमाकांत शुक्ल ने कहा कि संघर्ष के बिना कुछ पाने की इच्छा करना एक बेमानी जैसा है, इस दौरान आपने अपने जीवन और करियर से सम्बंधित अपनी कुछ यादों को भी साझा किया तथा पुस्तक की रचना प्रक्रिया के बारे में जानकारी दी।
मुख्य वक्ता व ख्यात न्यूरोचिकित्सक प्रो. विजयनाथ मिश्र ने कहा अपने जीवन के संघर्षों का जो अनुभव कोरोना की विकट परिस्थितियों में उमाकांत शुक्ल ने प्राप्त किया उसका लेखा-जोखा इस किताब भरा हुआ है। जीवन में मानवीय सम्बन्ध कैसे कमाए जाते हैं और कैसे उनसे बिना किसी उम्मीद के भी उनका निर्वाह किया जाता है इसे इस आत्मकथा से सीखा जा सकता है।
सांख्यिकी विभाग, बीएचयू के अध्यक्ष प्रो. ज्ञानप्रकाश सिंह ने कहा कि साहित्य के बाहर सांख्यिकी के विद्यार्थी होने के उपरांत भी जिस कला से साथ यह किताब लिखी गयी वह कला किसी भी दृष्टि से किसी अच्छे साहित्यकार से कम नहीं है।
स्वागत वक्तव्य देते हुए प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि यह पूरी पुस्तक शब्दों के उस आलोकपर्व की साक्षी है जो जीवन में, मनुष्य के शरीर में मानव का अनुराग जगाता है जिसमें जीवन के उत्तरार्ध में पहुँचे हुए व्यक्ति के स्मृतियों का भी आलोक भी है। इस पुस्तक में 1970 के गंवई संयुक्त परिवार के जीवन मूल्य और निरंतर समय के साथ उनका विघटन कैसे हुआ है इसकी पूरी कहानी दर्ज है।
प्रसिद्ध आलोचक कमलेश वर्मा ने कहा कि निर्ममता के साथ सच कहने की इच्छाशक्ति इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता है। समाज से आगे बढ़कर अपने परिवार के विषय में भी जो आलोचनात्मक दृष्टि उमाकांत शुक्ल ने अपनाई है वह दुर्लभ है। उमाकांत शुक्ल पुस्तक में कहीं भी आत्मकरुणा के शिकार नहीं हुए हैं और न ही आत्मप्रशंसा में लगते हैं जो लेखक के दृढ़ व्यक्तित्व का परिचायक है। किताब की बनावट भले साहित्यिक न हो लेकिन इसमें हमारे समाज के तमाम पहुलओं का दस्तावेजीकरण जाने-अनजाने हुआ है।
भोजपुरी अध्ययन केंद्र के समन्वयक प्रो. प्रभाकर सिंह ने कहा कि आम जनजीवन के जो सरोकार हैं उसकी गूँज पूरे किताब में सुनाई देती हैं। इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह पता चलता है कि जीवन की विषमताओं से रस कैसे ग्रहण किया जाता है और विपरीत से विपरीत परिस्थिति को भी कैसे साहस से साथ अपने जीवन के पक्ष में परिवर्तित किया जा सकता है।
डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने कहा कि यह आत्मकथा प्रचलित परिपाटी की आत्मकथाओं से भिन्न है और इसीलिए एक अलग रस पाठक को प्रदान करती है जिससे वह इसे पूरा पढ़े बिना छोड़ नहीं पाता। जीवन के समानधर्मा संघर्ष पाठक को गहरे से आकर्षित करते हैं, पारिवारिक संस्कारों से निर्मित भारतीय जीवन इस किताब का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।
डॉ. विंध्याचल यादव ने कहा कि यह आत्मकथा हर पाठक को कुछ न कुछ ऐसे सूत्र जरूर देती है जिससे वह जीवन को या अपने आपको भी इस आत्मकथा से जोड़ लेता है। संयुक्त परिवार में सम्बन्धों को निर्वाह कैसे किया जा सकता है और कैसे तमाम कड़वाहटों के बीच भी इन सम्बन्धों को बचाया जाता है वह इस किताब में देखने को मिलता है।
युवा आलोचक डॉ. जगन्नाथ दुबे ने कहा कि इस आत्मकथा में लेखकीय ईमानदारी का स्तर अपने उत्कर्ष पर है जिसमें आत्मकथा से आगे बढ़कर समाजकथा कही गयी है। यह एक प्रशासक की आत्मकथा है लेकिन इसमें प्रशासक एक तरीके से मौन है बल्कि एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में अपने जीवन और उसके शामिल तमाम लोगों के प्रति उमाकांत शुक्ल ने बेहद ही आलोचनात्मक दृष्टि अपनाई है। कोरोना के दौर में जिस प्रकार हमारी बनाई छद्म मनुष्यता के आवरण टूटे हैं उसके बड़ा सशक्त वर्णन इस किताब में है।
कार्यक्रम में अलका कुमारी एवं वसुधा ने कुलगीत की प्रस्तुति दी। संचालन डॉ. प्रीति त्रिपाठी ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन मानस पत्रिका के सम्पादक आर्यपुत्र दीपक ने दिया। कार्यक्रम में श्रीमती अर्चना शुक्ल, श्रीमती सुनीता शुक्ल, डॉ. प्रभात मिश्र, प्रो.देवेंद्र मिश्र, डॉ. शैलेन्द्र सिंह, तथा भारी संख्या में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति रही।