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हर्बल, पारंपरिक और आयुर्वेदिक दवाओं का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता, यह नीम-हकीमों द्वारा प्रचारित वह झूठ है, जिस पर अधिकांश लोग विश्वास करते हैं।
असल में ट्रेडिशनल मेडिसिन सिर्फ आयुर्वेद तक सीमित नहीं है। पूरी दुनिया में प्राचीन काल से दवा के रूप जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल होता आ रहा है।
धन्वंतरि से लेकर चरक और सुश्रुत तक आयुर्वेद का विकास उसी दिशा में हो रहा था, जिस दिशा में आज आगे बढ़कर एलोपैथी ने स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांति की। मगर चरक और सुश्रुत के बाद आयुर्वेद के नाम पर सिर्फ नीम हकीम और बाबाओं का बोलबाला हो गया, जिन्होंने इसे धर्म के नाम पर वापस परंपरिक नुस्खों तक समेट दिया और इसका और विकास नहीं होने दिया।
धर्म और कट्टरता हमेशा विज्ञान पर भारी पड़ती है।
अब जबकि पूरी दुनिया की आबादी 7 अरब पार हो चुकी है, सभी के लिए उचित स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना आसान नहीं है। जब से निजी क्षेत्र ने स्वास्थ्य क्षेत्र में मोर्चा संभाला है उसने साफ कर दिया है कि स्वास्थ्य सेवा देना कोई परमार्थ का काम नहीं है, यह एक बड़ा व्यवसाय है और अकूत मुनाफाखोरी की संभावना से भरा धंधा है।
एलोपैथी में उपचार के लिए विशेष साल्ट और उपकरण चाहिए, इसके लिए वह पूरी तरह से फार्मास्युटिकल कंपनियों पर निर्भर है। एलोपैथी को इससे मतलब नहीं कि साल्ट कैसे बना, उसके लिए जरूरी है कि साल्ट का सही परीक्षण हुआ कि नहीं। इसके लिए लंबी वैज्ञानिक ट्रायल प्रक्रिया है, जो वर्षों चलती है। इस दौरान हजारों में से किसी एक मरीज में भी सामने आए हर साइड इफेक्ट को दर्ज किया जाता है।
यह इलाज का वैज्ञानिक तरीका है। वर्षों चलने वाले शोध और ट्रायल में फार्मा कंपनियों का काफी पैसा लगता है। इसके अलावा हर दवा के लिए उनकी जवाबदेही भी होती है। इस तरह यह महंगा और जवाबदेही वाला इलाज सभी 7 अरब लोगों को देना संभव नहीं।
ज्यादातर लोगों को तो एलोपैथी इलाज भी आयुर्वेद और होम्योपैथी की तरह मिलता है, बिना जरूरी परीक्षण डाक्टर अंदाज से लक्षणों के आधार पर दवा लिख देता है। कई बार अंदाजा गलत भी निकलता है, जिसकी कीमत मरीज चुकाता है और डॉक्टर की कोई जवाबदेही नहीं होती।
हर्बल और सारे पारंपरिक उपचार भी बिना जवाबदेही वाले हैं।
वैश्वीकरण की बयार के बीच दुनिया की ज्यादातर सरकारों ने कार्पोरेट जगत के दबाव में फैसले किए हैं। यह निजी क्षेत्र हमेशा ही जवाबदेही से मुक्त रहना चाहता है। यही वजह है कि पिछले तीस साल में दुनिया की अनेक दिग्गज कंपनियां हर्बल और ट्रेडिशनल मेडिसिन के धंधे में कूद गई हैं। इस धंधे में मरीज के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है, सिर्फ मुनाफा है।
मरीज पूरी दैवीय आस्था के साथ इन दवाओं को लेता है। कुछ दिन ठीक महसूस करता है। कभी जब हालत बिगड़ जाती है तो एलोपैथी के अस्पताल में जाकर भर्ती हो जाता है, वह कभी नहीं मानता कि उसे किसी जड़ी-बूटी से भी नुकसान हुआ होगा। इस तरह हर्बल और आयुर्वेदिक दवा उद्योग बिना जवाबदेही वाला मुनाफे का उद्योग है। इसमें किसी लंबी चौड़ी रिसर्च और ट्रायल की भी जरूरत नहीं। बस इतना बताना है कि आम ही नहीं गुठली भी गुणकारी है।
हर्बल, ट्रेडिशनल और आयुर्वेदिक दवाओं का दुनिया में 60 अरब डॉलर का कारोबार है। भारत, चीन और नाइजीरिया ट्रेडिशनल मेडिसिन में सबसे ज्यादा निवेश करते हैं। WHO पर ट्रेडिशनल मेडिसिन पर जान सी टिलबट और टील जे कैपचुक के एक शोध लेख के मुताबिक अफ्रीका की 80 फीसद आबादी ट्रेडिशनल मेडिसिन से ही अपना उपचार करती है। इनके साइड इफेक्ट से वे पूरी तरह अंजान हैं।
वहां नीम हकीम एक अफ्रीकी फूल से एड्स का इलाज करते हैं। अफ्रीकी सरकार ने इस फूल से एड्स का इलाज ढूंढने के लिए शोध में पैसा लगाया। इन विट्रो यानी परखनली परीक्षण में पाया गया कि फूल में ऐसे तत्व हैं जो वायरस के खिलाफ कुछ कारगर दिखते हैं मगर जब इसका एनिमल ट्रायल किया गया तो पाया गया इसकी बड़ी डोज सीधे लीवर को डेमेज करती है।
सिर्फ अफ्रीका ही नहीं अमेरिका में भी 2005 में नेशनल सेंटर फॉर कंपलीमेंटरी मेडिसिन ने हर्बल मेडिसिन के लिए शोध पर 330 लाख डॉलर निवेश किए। इससे एक साल पहले 2004 में नेशनल कैंसर इंस्टीट्यूट ने कैंसर के उपचार में ट्रेडिशनल दवा के शोध पर 890 लाख डॉलर लगाये। एक भारतीय मूल के वैज्ञानिक को हल्दी से कैंसर के इलाज पर शोध के लिए बड़ी रकम मिली। यह बात और है कि बाद में इसका नतीजा रिसर्च की दुनिया में सबसे बड़े फ्राड के रूप में दर्ज हुआ।
हमारे यहां भी पारंपरिक दवाओं के रूप में बाबा लोग ऐसी दवाएं बताते हैं, जिनके गंभीर साइड इफेक्ट होते हैं। डेंगू में प्लेटलेट्स बढ़ाने के लिए पपीते के पत्तों का रस बताते हैं। इस रस में मौजूद मुख्य तत्व पैपेन के प्रति हमारा इम्यून सिस्टम काफी संवेदनशील हो सकता है।
वर्ष 2008 में शोध के उपरांत अमेरिका के फूड और ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) ने ऐसे हर्बल दवा उत्पादों की बिक्री पर रोक का आदेश जारी किया था, जिनमें पैपेन होता है। पैपेन को हाइली एलर्जिक पाया गया था। एलर्जी उपचार काफी जटिल और महंगा होता है। इम्युनोलॉजिस्ट बहुत से टेस्ट कराते हैं।
इसी तरह अच्छी संतान के नाम पर और पुत्रजीवक के रूप में गर्भवती स्त्रियों को शिवलिंगी के बीज भी कुछ बाबा लोग बेचते हैं। चंडीगढ़ पीजीआई के एक शोध में शिवलिंगी के बीज में स्टेरॉइड की काफी उच्च मात्रा पाई गई। ये स्टेरॉइड गर्भवती पर तो असर डालते हैं, साथ ही गर्भस्थ शिशु के लिए भी नुकसानदेह हैं। इस तरह के स्टेरॉइड से गर्भ में शिशुओं के जननांग का विकास भी प्रभावित होता है और थर्ड जैंडर की संभावना बढ़ जाती है।
दवा कंपनियों को आयुर्वेद और एलोपैथी से कोई मतलब नहीं। वे पपीते के पत्तों के रस की गोलियां भी हकीमों वैद्यों के लिए बनाने लगी हैं। उन्हें अपना साल्ट बेचने से मतलब है। चाहे वह डाक्टरों को कमीशन लेकर बिके या बाबा के जरिए बिना जवाबदेही के और महंगे दाम पर।
यह आयुर्वेद और एलोपैथी की लड़ाई नहीं है। बाबा, डाक्टर और सरकार तीनों कारपोरेट के लिए एक फिक्स गेम खेल रहे हैं। ऐसी गेम जो उन्हें आयुर्वेद और पारंपरिक मेडिसिन के नाम पर हर जवाबदेही से मुक्त कर देगी।
किसी बाबा की पारद और स्वर्ण भस्म खाकर जब किडनियां जवाब दे देंगी तो वह दौड़कर किसी अस्पताल में ही तो भर्ती होगा।
इस तरह यह परस्पर निर्भरता का उद्योग है। झगड़ा तो सिर्फ ध्यान खींचने के लिए है। जिस तरह मादाओं को आकर्षित करने के लिए दो नर जानवर लड़ते हैं।