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वाराणसीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संकाय में दिनांक 10-11 जनवरी को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘ भाषिक बहुलता,भारतीय भाषाएं और हिंदी’ के दोनों ही दिनों में विभिन्न सत्रों में गंभीर वैचारिक संवाद आयोजित हुए।
उद्घाटन के पश्चात दूसरे सत्र में भारत की बहुजातीय परस्परता और भाषिक बहुलता’ विषय पर विद्वानों ने अपनी बातचीत रखी।
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ आचार्य और संस्कृतिकर्मी प्रो. अवधेश प्रधान जी ने अपना कहा कि बहुभाषिकता की सबसे बड़ी जरूरत हमें स्वतंत्रता आंदोलन के समय हुई। देश को जानने के लिए उसकी बहुभाषिकता को जानना बहुत जरूरी है। बनारस एक बहुभाषी शहर है जिसमें एक भारत बसता है अपनी सब भाषाओं के साथ। उन्होंने बताया कि यूरोप ने एक देश एक भाषा का सिद्धांत दिया जबकि इंग्लैंड स्वयं में एक भाषाई राष्ट्र नहीं बन सका। हमने इस यूरोपीय ढांचे के अनुसार बहुभाषिकता को समस्या मान लिया जबकि वही हमारी शक्ति है।  है कि हमारे देशवासियों ने इतनी भाषाओं को बचा लिया।
हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आचार्य प्रो. प्रभाकर सिंह ने विभिन्न पुस्तकों के संदर्भ देते हुए  और अपने विचार रखते हुए कहा कि विभिन्न भाषाओं की बहुभाषिकता इस अर्थ में महत्वपूर्ण होती है कि भिन्न–भिन्न भाषाएँ अपनी चेतना के साथ उसकी सामूहिकता को बनाती हैं। हिन्दी के पूरे विकास का दायरा विभिन्न भाषाओं के साथ मिलकर बनता है। उन्होंने रेखांकित करते हुए कहा कि भारतीय भाषाओं में मौखिकता का महत्वपूर्ण स्थान है, लिखित साहित्य से ज्यादा वह साहित्य महत्वपूर्ण है जो मौखिक रूप से विभिन्न भाषाओं में मौजूद है।   बोलता है क्योंकि उसमें सबसे कम मिलावट की गुंजाइश होती है।
में हिन्दी भाषा पर महत्वपूर्ण लेखन कर रहे हिन्दी के वरिष्ठ आचार्य और आलोचक प्रो. राजकुमार ने बहुभाषिकता पर अपने विचार रखते हुए कहा कि पश्चिम के देशों के राष्ट्र की तरह पहचान बनने का सबसे बड़ा आधार उनकी भाषा है। उन्होंने भाषा की शुद्धता के बारे में बात करते हुए कहा कि भाषा का सबसे शुद्ध रूप वह है जिसे सबसे कम पढ़ा–लिखा व्यक्ति बोलता है क्योंकि उसमें सबसे कम मिलावट की गुंजाइश होती है। भारतीय विद्वानों ने जब भाषा की व्यापकता पर बात की तो उन्होंने भारतीय भाषाओं की सामूहिकता को रेखांकित किया और जब यूरोपीय विद्वानों ने हिन्दी की व्यापकता पर विचार किया तो भारतीय भाषाओं की सामूहिकता तो तोड़ने का प्रयास किया क्योंकि उनके लिए भाषा का क्षेत्र निर्धारण करना महत्वपूर्ण था। हिन्दी की परिकल्पना आप वैसे नहीं कर सकते जैसे अन्य प्रादेशिक भाषाओं की परिकल्पना करते हैं।सत्र का संयोजन और धन्यवाद ज्ञापन डॉ मानवेंद्र प्रताप सिंह ने किया
संगोष्ठी के दूसरे दिन तीसरे सत्र भारतीय समाजविज्ञान और देश भाषाएं’ विषय पर विचार–विमर्श से प्रारंभ हुआ। इस सत्र का संचालन और आभार ज्ञापन डॉ. रविशंकर सोनकर ने किया।
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में आचार्य और प्रमुख इतिहासकार प्रो. ध्रुव कुमार सिंह ने कहा कि आजादी के लगभग अस्सी साल बाद हमें यह खोजना चाहिए कि हमने अपनी भाषिक बहुलता को विकसित करने के क्या प्रयास किए। आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि विकसित तकनीकि दौर में हम अपनी भाषा को उसके अनुरूप कैसे बनाएं क्योंकि यही आज के दौर का यथार्थ है। भाषा में इतिहास को ढूंढने के लिए हमें उनके मूल स्रोतों के पास जाना चाहिए। सामाजिक तौर पर  हम हर प्रकार की गणना करते हैं लेकिन कभी भाषिक गणना पर हमारा ध्यान नहीं जाता। हमें तकनीकि से एक साहचर्य पूर्ण संबंध स्थापित करना होगा जिससे भाषाओं के मामले पर ध्यान दिया जा सके।
 इतिहासविद प्रो.ताबिर कलाम ने अपने विचार रखते हुए कहा कि मध्यकालीन इतिहास के लेखन में फारसी स्रोतों का इस्तेमाल किया गया। फारसी स्रोतों के आधार पर लिखा जा रहा इतिहास केवल उच्चवर्ग तक सीमित था इसके बरक्स संत और सूफी रचनाकारों ने आम जन की भाषा में आम जनता की बातें की। नए इतिहासकारों ने इन स्रोतों को अपने ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में उपयोग किया है।  उद्धृत करते हुए उन्होंने यह भी बताया कि मध्यकाल में मुगल शासन के पतन से स्थानीय भाषाओं को पनपने का रास्ता मिला।काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग में आचार्य प्रो. अर्चना शर्मा ने ’प्राचीन भारतीय भाषाओं में ऐतिहासिक स्रोत’ नामक विषय पर अपने विचार रखते हुए कहा कि बौद्ध साहित्य और अभिलेख प्राचीन ऐतिहासिक स्रोत के रूप में उपयोग किया जाता है। बुद्ध के परिनिर्वाण के सौ साल बाद उनके उपदेशों को संकलित करने के लिए एक ’प्राकृत हाइब्रिड संस्कृत’ जैसी भाषा का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें आगे चलकर अश्वघोष जैसे विद्वान ने अपना लेखन किया।
संगोष्ठी के चतुर्थ सत्र का आरंभ आमंत्रित वक्ताओं को पुस्तकें और अंगवस्त्र भेंट करके किया गया।
सत्र के विषय ‘भारतीय समाज चिंतन में नए क्षितिज : हाशिए के समुदाय और उनकी भाषाएँ’ पर बहस की शुरुआत करते हुए डॉ पार्वती तिर्की ने कहा,“मैं आदिवासी भाषा को जीवन के प्रतिनिधित्व करने वाले समूह की भाषा कहूँगी। मुंडा भाषा अपने इकॉलाजिकल चेंज के बारे में बात करती है।उन्होंने  जयपाल मुंडा को उद्धृत करते हुए कहा कि आदिवासी इतिहास को जानना है तो उनकी भाषा को जानना जरूरी है। जयपाल मुंडा भाषा के अनुवाद के लिए लड़ते हैं। भाषिक संरचना पर बहुत सी बातें हमें नामनक्लेचर से पता चलती हैं।
समाजशास्त्री और उच्च अध्ययन संस्थान में फेलो डॉ रमाशंकर सिंह ने अपनी बात रखते हुए कहा अब क्रिमिनल ट्राइब्स को क्रिमिनल नहीं कहा जाता। बनारस की बात करूँ तो भारत की ऐसी कोई जाति नहीं बची है जिसे ठग, डकैत, चोर नहीं कहा गया। भाषा का संसार हमें अनुशासित करता है। घुमंतू समुदाय की भाषा को सुनने का काम नहीं किया गया। इधर बीच पढ़ने के बरक्स सुनने की आदत धीरे-धीरे खत्म हो रही है। आपका पेशा अगर आपसे हट जाए तो आपकी कोई सामाजिक हैसियत नहीं रह जाएगी। सपेरों की भाषा, कलंदर की भाषा, महावतों की भाषा धीरे-धीरे खत्म हो रही है।अब हमें डेमोक्रेसी की जगह कास्मोक्रेसी की बात करनी होगी।”
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. सुप्रिया पाठक ने कहा कि हमें स्त्री के रूप में भाषा और भाषाविज्ञान की पूरी संरचना को समझना होगा। भाषा के व्याकरणिक और सामाजिक– सांस्कृतिक संदर्भों को नुक्ता नज़र( क्रिटिकल पर्सपेक्टिव) से देखा जाना चाहिए। हमारे समाज में कुलपति को मालिक के रूप में देखा जाता है जिसके साथ ’पति’ नाम जुड़ा हुआ है जबकि ’कुलपत्नी’ जैसा कोई शब्द नहीं है क्योंकि पति नामक संस्था के साथ अधिकार जैसे भाव को जोड़ दिया गया है। पति–पत्नी और स्त्री–पुरुष के बीच में सबसे ज्यादा समतामूलक स्थिति हमें आदिवासी और अन्य हाशिए की भाषाओं में मिलती है। हमें भाषा को मैक्सिमम स्तर पर जाकर न्यूट्रलाइज करना होगा।
महत्त्वपूर्ण आदिवासी कवि अनुज लुगुन ने जी एन देवी को उद्धृत करते हुए अपने वक्तव्य में कहा, “जब हम भाषा को बचाते हैं तो उसमें निहित इतिहास को भी बचाते हैं। हिन्दी को लोकतांत्रिक रूप में अन्य भाषाओं के पास जाना चाहिए था लेकिन जब–जब हिन्दी किसी आदिवासी भाषा के पास जाती है तो वह अपनी श्रेष्ठताबोध की छवि के साथ जाती है। जब एक कुड़ुख मातृ भाषाभाषी अपनी संस्कृति को हिन्दी भाषा में प्रस्तुत करता है तो वह हिन्दी से सम्पर्क बनाने का प्रयास करता है। आदिवासियों की व्यक्तिगत भाषा अलग–अलग हो सकती है लेकिन उन्होंने परस्पर संवाद के लिए एक ऐसी भाषा विकसित की है इससे वे एकदूसरे से जुड़े रह सकें।”
इस सत्र का संचालन डॉ प्रियंका सोनकर ने किया।

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