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आज केरल के ‘वामपंथी’ मुख्य मंत्री और गुजरात के अरबपति दोनों ही रतन टाटा को श्रद्धांजलि दे रहे हैं। यह किसी भी इंसान के लिए बड़े गर्व की बात है, जब उनके निधन पर वैचारिक दुश्मन भी साथ आ जाएं, लेकिन यह कुछ और भी दर्शाता है।
नवउदारवाद के आगमन और सोवियत रूस तथा चीन में पूंजीवाद के पुनरुत्थान के बाद कई विद्वानों ने उल्लास मनाया था कि अब ‘विचारधाराओं के अंत’ हो गया। इसको देयर इज नो आल्टरनेटिव’ (टीना) भी बोला गया। पिछले तीन दशकों में टाटा – अडानी जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने वर्चस्व की ऐतिहासिक ऊचाईयां चूमी है तो वहीं दूसरी तरफ़ देश में कुपोषण, बेरोजगारी, विस्थापन, और साम्प्रदायिक – जातिवादी – पितृसत्तात्मक उन्माद में बढ़ोतरी हुई है। आंकड़ों के हवाले से माने तो, आज देश में अंग्रेज हुकूमत के समय से भी ज्यादा गैरबराबरी है। यह केवल मात्र एक संयोग नहीं है।
ओडिशा के कलिंगनगर में 13 शहीदों के स्मारक आज भी आदिवासी प्रतिरोध का गौरवशाली प्रतीक है। यह शहीद टाटा स्टील के खिलाफ़ तीर – कमान लेकर उठे थे, अपने संस्कृतिक और प्राकृतिक सम्पदा को बचाने के लिए। 2003 में सीपीआई (मार्क्सवादी) शासनकाल में जब देश के पहले ‘स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन’ बंगाल में स्थापित हुआ तो उसके पहले उपभोक्ता टाटा और इंडोनेशिया के सलेम ग्रुप थे। बंगाल के सिंगुर-नंदीग्राम में भूमिहीन और छोटे किसानों को उनके ज़मीन से बेदखल कर, लाल झण्डा को इन्हीं सरकार ने मिट्टी में मिलाया। टाटा नैनो का सिंगुर प्लांट, जिसको औद्योगिकरण का वाम मॉडल बताया गया था,जो बाद सानन्द गुजरात चला गया। उसकी हक़ीक़त यह है कि हज़ारों किसानों को बेदखल करके, सिर्फ 200 पक्के और 1800 ठेका मजदूरों को रोजगार दिया गया। 2015 में जब घटते असली वेतन दर के खिलाफ़ यूनियन की मांग उठी तो यूनियन नेतृत्व को गैर कानूनी ढंग से निकाल दिया गया। इस जनविरोधी ‘विकास’ का सच आज हमारे सामने बेनकाब हो चुका है जब पिछले दो दशक के आंकड़े बताते है कि निजी और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए बनाए गए भूमि बैंक और श्रम कानूनों में दी गयी छूट के बावजूद उत्पादन में रोज़गार बढ़ने के बजाय घटे हैं। टाटा टी को उगाने वाले चाय बगान श्रमिक आज दार्जिलिंग बँध करने के लिए पुलिस का मुकाबला कर रहे है। कश्मीर से लेकर मणिपुर – नागालैंड में टाटा ट्रक और ड्रोन केवल मिलिट्री शासन का दूसरा नाम है। एक तरफ अपने मुनाफ़ा-आधारित व्यवस्था के वैचारिक बचाव में शोषित तबके के एक छोटे हिस्से को खड़ा करने के लिए टाटा स्टील ने टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस (TISS) और टाटा एनवायरनमेंट रिसर्च इंस्टिट्यूट (TERI) जैसे संस्थाओं को अपने धनबल से स्थापित किया गया तो दूसरे तरफ़ शोषितों को आपस में भिड़ाने – भुनाने के लिए ऑपरेशन ग्रीन हंट और सलवा जुडूम जैसे निजी फ़ौज को भी टाटा – जिंदल जैसे घरानों ने चंदा देकर खड़ा किया। टाटा से भी बढ़कर आज केरल से लेकर तमिलनाड, महाराष्ट्र, बंगाल में मछुआरे अडानी पोर्ट के खिलाफ़ लड़ रहे है। सत्तापक्ष और विपक्ष – दोनों में ही इस अमानवीय ‘विकास’ माडल का कोई विकल्प नज़र नहीं आ रहा है।
कहते है कि जब आदमी मर जाता है तो उसकी आलोचना नहीं करना चाहिए। खैर रतन टाटा के जीवनकाल में भी हम उनके खिलाफ़ अपशब्द बोलते आए है और आगे भी बोलेंगे, पीढ़ी दर पीढ़ी ऐश-ओ-आराम में पलने से आदमी के चेहरे पर मुलायम संवेदनशीलता और उदारता झलकने लगती है। भूखा बच्चा पेट की आग से तिलमिलाकर अपने भाई को कॉलर पकड़ बोल सकता है ‘भात दे हरामजादे’। मार-काट करके, अपने समाज को पीछे छोड़कर भाग रहे नवजात पूंजीपतियों को यह मासूम छवि हासिल करने में कई शताब्दी और अरबों की दौलत लग जाती है।
लेकिन चेहरा जैसा भी हो, हज़ार व्यक्तिगत खूबियों के बावजूद, मुनाफ़े का कठोर नियम उनको हर रोज़ अपराध करने के लिए मजबूर करते है। इसके बिना इंसान से काम करवाकर, उसका पूरा दाम ना देना सम्भव नहीं है। वर्ग विभाजित समाज में मानवताबोध, इंसानियत, न्याय, कानून और नैतिकता की सर्वव्यापी परिभाषा सम्भव ही नहीं है। इसको सम्भव करने के लिए दुनियाभर में आम मेहनतकश जनता के भ्रूण में क्रांति की तैयारी चल रहीं है। यह कभी किसी तीखे संघर्ष में सामने आता है, कभी एक मुर्दा शांति का रूप लेता है। ऐसे में पक्ष चुनने के लिए हम बाध्य है, और मौन रहना घोर अपराध।

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