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जब मार चली शमसीरन की तो महाराज मैं नाई हूँ … का हो रितेश राय उर्फ रितेश विद्यार्थी, फूँक सरक गई। भाकपा-माओवादी की राजनीति का पक्षपोषण करने वाले रितेश विद्यार्थी मैदानी इलाकों में भी जब-तब जंगजू ऐक्टिविज्म करने की हिमायत करते रहते थे। राजसत्ता ने अपने बघनखे जरा सा क्या दिखाए कि सारी शेखी भूलकर शांतिपूर्ण जिंदगी जीने का महात्म्य बताने लगे। LIU वालों की अगर मानें तो जंगल के माओवादियों की ऐक्टिविस्ट इप्शिता इन दिनों दखल की इंदु पांडेय, आनंद मैथ्यू जैसे धार्मिक व्यक्ति और मास्टर नंदलाल जैसे छुटभैया एनजीओबाजों और राजसत्ता के आगे एकदम से घुटने टेक चुकी सरकारी कम्युनिस्ट पार्टी भाकपा-माले (लिबरेशन) की कुसुम वर्मा के साथ संयुक्त रूप से अभियान चला रही हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर स्त्रियों की दशा को सुधारने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए।
हमने बात शुरू की थी रितेश राय से। भावना से क्रांतिकारी ग्रुप का यह ऐक्टिविस्ट मार्क्सवाद की पढ़ाई-लिखाई के नाम पर एकदम से बकलोल है। बुर्जुआ सोसायटी में अलगाव की पीड़ा तो नहीं झेलता लेकिन आत्मिक-सांस्कृतिक संपदा के नाम पर फटकचंद गिरधारी ही है। इन महाशय को इनके ट्रेनरों ने बस यही सिखाया है कि दुनिया का हर मर्द अनिवार्य रूप से रंडीबाज और हर औरत जिगोलो खोजने वाली होती है। हालांकि इस आशय के विचार को इन्होंने शब्द नहीं दिया लेकिन तमीज के नाम पर इनकी समझ बस इतनी ही है।
इन्हीं के एक अन्य साथी का नाम है विनय शर्मा जो कि BSM के ऐक्टिविस्ट हैं। महाशय विनय, मनीष शर्मा नामक व्यक्तिवादी-आत्ममुग्ध चिलगोजे के लेफ्ट मूवमेंट में योगदान को वर्णन करते-करते आत्म-विस्मृति की हदों तक मोहित हो जाया करते थे। फेसबुक से पता चला है कि मनीष शर्मा नेपाल गया था WSF में हिस्सा लेने। अब इन बकलोलों को कौन समझाए कि WSF का गठन ही पूँजीवाद को अमरत्व प्रदान करने के लिए हुआ है। पिछले दिनों मनीष शर्मा इन पंक्तियों के लेखक को ज्ञान दे रहा था कि जैसे गाँव के लोग, जनचौक, जनज्वार और मीडिया विजिल आदि-आदि के लोग धन्नासेठों से पैसे लेकर पत्रकारिता में ऐक्टिविज्म कर रहे हैं, तुम भी करो और उसके आलेख छापकर उसकी शाम की दारू का जुगाड़ करने में सहायता करो।
इस चिलगोजे के हिसाब से धन के स्रोत की पवित्रता कोई मायने नहीं रखती, तभी तो WSF में अपनी क्रांतिकारिता बघारने गया था।
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आज मैं सापेक्षतः होश में हूँ और मुझे साफ तौर पर लग रहा है कि मेरा ट्रेनर शशिप्रकाश सापेक्षतः कम गलत है। अभी वह अगर ज्यादा रण-बांकुरा बनेगा तो उसका भी 151 में चालान हो जाएगा और बेचारा अपनी जमानत करवाने में ही परेशान हो जाएगा।
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नंगी-क्रूर सच्चाई यह है कि सत्ता-पक्ष के विरोध का सिर्फ स्वांग रचा जा रहा है। वास्तविक विरोध कहीं हो ही नहीं रहा है। पूँजी के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए बोल्शेविक उसूलों पर तपी-तपाई कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत है। अभी तक मैं इस भ्रम में जी रहा था कि जंगल के माओवादी अपनी विचारधात्मक कमजोरियों से उबरेंगे, जनदिशा को लागू करते हुए अकूत कुर्बानियाँ देकर मैदानी इलाकों में भी जनसंघर्ष की मिसाल कायम करेंगे। लेकिन, वे तो वक्त से पहले ही आत्मसमर्पण कर गए। धिक्कार है!!!
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अभी तक सिर्फ ऐपवा की कुसुम वर्मा ही व्यावहारिक थीं, लाजवाब संगठनकर्ता थीं पर अब तो माओवादियों को मास्टर नंदलाल और फादर आनंद मैथ्यू भी जन-सरोकारी लगने लगे हैं। शायद अब वह दिन दूर नहीं जब काशी के लेनिन से चंदा लेकर जंगल के माओवादी बनारस में क्रांति का बिगुल फूँकें। इस आलेख पर आने वाली समस्त टिप्पणियों को एप्रूव किया जाएगा बस माका-नाका न किया गया हो। 
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बनारस के समस्त मार्क्सवादियों की रीढ़ की हड्डी बेदम हो चली है। ज्यादातर तो पहले से ही सरकारी कम्युनिस्ट थे जो थोड़े से गैर-सरकारी मार्क्सवादी थे, योगी-मोदी ने उनकी हालत भी खराब कर दी है। लेकिन, उम्मीद पर दुनिया कायम है और मेरे लिए उम्मीद अभी भी जिंदा शब्द है, फिर यह वाक्यांश चाहे शशिप्रकाश का हो या किसी और का।
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कामता प्रसाद

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