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वाराणसीः हिंदी विभाग बीएचयू की आचार्या प्रो. श्रद्धा सिंह के संयोजकत्व में एवं आचार्य रामचंद्र शुक्ल सभागार‚ हिंदी विभाग‚काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और प्रो. वासुदेव सिंह स्मृति न्यास के संयुक्त तत्वावधान में सुप्रसिद्ध शिक्षक, समीक्षक एवं साहित्यकार प्रो.वासुदेव सिंह जी की 17वीं पुण्यतिथि के अवसर पर ‘प्रो.वासुदेव सिंह स्मृति व्याख्यान 2024’ का आयोजन किया गया‚जिसका विषय था:-“ आदिवासी स्त्री-समाज और हिंदी कविता।”

विश्वविद्यालय की सांस्कृतिक परंपरानुसार महामना और आदरणीय प्रो.वासुदेव सिंह जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्ज्वलन के पश्चात मंच कला संकाय की शिष्या
सुश्री अर्पिता भट्टाचार्य और श्वेता राय ने कुलगीत “ मधुर मनोहर अतीव सुंदर यह सर्वविद्या की राजधानी”की श्रुतिमधुर प्रस्तुति की। कार्यक्रम के अगली कड़ी में इस कार्यक्रम की मुख्य वक्ता सुप्रसिद्ध कवि एवं चिंतक निर्मला पुतुल जी को स्मृति चिह्न और अंग वस्त्र प्रदान कर सभी वक्ताओं समेत सम्मानित किया गया।

स्वागत वक्तव्य देते हुए प्रो. वासुदेव स्मृति न्यास के प्रभारी डॉ. हिमांशु शेखर सिंह कहते हैं कि प्रो. वासुदेव सिंह जी की 17 वीं पुण्यतिथि पर उनको विनम्र श्रद्धांजलि देने हेतु हम सभी एकत्रित हुए हैं। साहित्य में तमाम तरह के वाद, सोच और विचाराधारा के बावजूद हम बिना किसी भाव में बंधे हुए एक ही भाव, साहित्यिक भाव से सभी विद्वानों को आमंत्रित करते रहे हैं। वासुदेव सिंह जी का मूल भाव साहित्य में भक्ति का था और भक्तिकालीन साहित्य पर इनकी पकड़ मजबूत थी।

कार्यक्रम की अगली कड़ी में यूजीसी की केयर लिस्ट में शामिल पत्रिका “नमन” जिसकी संपादक प्रो. श्रध्दा सिंह और डॉ. हिमांशु शेखर सिंह हैं,के नए अंक का लोकार्पण किया गया।

इस व्याख्यान का विषय प्रवर्तन करते हुए सुप्रतिष्ठित कवि एवं आलोचक प्रो. प्रभाकर सिंह ने बताया कि प्रो. वासुदेव सिंह विशेषकर आदिकाल और भक्तिकाल के ‘पाठ्यलोचक’ थे। लेखनी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर जी की परंपरा में आते हैं। इनकी लेखनी के तीन भाग हैं;
पहला इतिहास लेखन,दूसरा टीका एवं सम्पादन और तीसरा है आलोचना। इन्होंने हिंदी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास लिखा जो बाबू गुलाबराय की अध्यापकीय इतिहास लेखन की परंपरा में मुख्य इतिहास लेखन है।
इस विश्वविद्यालय में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने टीका और संपादन पर महत्वपूर्ण कार्य किया था इसी परम्परा में वासुदेव जी ने टीका और संपादन कार्य किया जिसको साहित्य परंपरा में कमतर आंका गया है; जबकि शोध के क्षेत्र में टिकाएं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
“कबीर साहित्य साधना और पंथ, मध्यकालीन काव्य साधना” इनकी मुख्य पुस्तकें हैं।

“हिंदी में आदिवासी साहित्य का प्रवेश द्वार निर्मला पुतुल खोलती हैं।”आदिवासी साहित्य को हमने कुछ पहलुओं में बांध दिया है;जल, जंगल और जीवन। कहा जाता है कि आदिवासी समाज में स्त्रियों को बहुत सम्मान दिया जाता हैं जबकि वे भी वहां पितृसत्ता की जकड़न से पीड़ित हैं।
“निर्मला पुतुल जैविक बुद्धिजीवी की तरह कविता लिखती हैं।” तेजस्वी एक्टिविस्ट हैं निर्मला पुतुल। इन्होंने आदिवासी महिलाओं के उत्पीड़न और विस्थापन की समस्या पर संस्थागत तौर पर कार्य किया है। आपने राजनीति में भी हस्तक्षेप किया और आप अपने इलाके की मुखिया हैं। इनकी मातृभाषा संथाली है। 2004 में आई इनकी पहली कविता संग्रह “अपनी घर की तलाश में” मातृभाषा संथाली और हिंदी दोनों में उपलब्ध है।

हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. वशिष्ठ अनूप ने बताया कि
वासुदेव जी कबीर को पढ़ाते हुए साखी आँखी ज्ञान की बातें करते थे। कबीर के यहाँ जो अनहद नाद था वह निर्मला जी के यहां नगाड़े की तरह बजता हुआ दिखाई देता है। इनकी कविताओं में आदिवासी लोक के आमजन की समस्याएँ वर्णित हैं।

इस संगोष्ठी की मुख्य वक्ता सुप्रसिद्ध कवि एवं चिंतक निर्मला पुतुल मूर्मू ने कहा कि आदिवासी स्त्रियां वाकई बहुत मेहनती होती हैं। श्रम के सौंदर्य से अभिसिक्त होती हैं आदिवासी स्त्रियां। काज व्यापार में,अपने घर दुनियां में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस योगदान को पुरुष समाज में कम आंका जाता है। वे लात घूंसे खाकर भी बंधी रहती हैं अपने बच्चों के मोह के कारण। पुरुषों का संसार स्त्रियां ही निर्मित करती हैं। सब्जी में,खाने में नमक कम या तेज होने जाने के कारण उन्हें पीटा जाता है हैवानों की तरह जैसे उन्होंने कोई भारी अपराध कर दिया हो। मैंने इन सब चीजों को देखते हुए कलम को हथियार बनाया, मैंने केस स्टडी के द्वारा अपनी लेखनी को धार दिया है। हम एक्सीडेंट (घटित) को लिखते हैं और आप उसे कविता का रूप देते हैं। आप जैसे पार्थिव दृष्टि वाले पुरुषों को हम नमन करते हैं कि आपने इस कार्य को आगे बढ़ाने का काम किया है। वंदना टेटे,विद्या मूर्मू, रमणिका गुप्ता को भी इन्होंने याद किया।
अनुपम सिंह की कविता;
“और खेतों मेड़ों से होकर
उड़ा जा रहा था मेरा मन बवंडर सा।

जंसिता केरिकेट्टा की कविता ;
जब लड़ता है मेरे भीतर का आधा पुरुष
मेरे भीतर की आधी स्त्री के लिए।
का पाठ भी किया।

इन्हीं प्रताड़नाओं की वजह से ही हम खड़े हुए हैं। हमारी सर्जना प्रताड़ना से उद्भूत हुई है।
इन्होंने अपनी मशहूर कविता छात्रों की मांग पर सुनाई

“उतनी दूर मत ब्याहना बाबा”
बाबा मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने के खातिर
घर की बकरियाँ बेचनी हो।
मत ब्याहना मुझे वहाँ जहाँ आदमी से ज्यादा ईश्वर बसते हों
जहाँ जंगल,वन,उपवन, न हो मत ब्याहना मुझे।
चुनना वर ऐसा जो बजाता हो बाँसुरी सुरीली
ढ़ोल, मांदल बजाने में हो पारंगत
जो वसंत के दिनों में लाए
मेरे जु़ड़े के लिए फूल
मेरे भूखे रहने पर जिससे खाया न जाय
उसी से ब्याहना मुझे।

निर्मला जी की प्रसिद्ध श्रम ,किसान जीवन के सौंदर्य और कर्मठता के प्रति झुकाव को स्थापित करती हुई एक कविता है;
उसके हाथ में मत देना
मेरा हाथ
जिसके हाथों ने
कभी पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने।

साहित्येतिहास लेखन में स्थापित पुरुष लेखनी के वर्चस्व का प्रतिकार करती निर्मला पुतुल की कविता,

स्त्रियों को इतिहास में जगह नहीं मिली
इसीलिए हम स्त्रियां लिखेंगे अपना इतिहास
हमारा इतिहास उन इतिहासों की तरह नहीं होगा
जिस तरह लिखे जाते रहें।
अब तक इतिहास
हम लिखेंगे खून से अपना इतिहास
हम समय की छाती पर पांव रखकर
चढ़ेंगे इतिहास की सीढ़ियाँ
और बुलंदियों पर पहुंचकर
फहराएंगे अपने नाम का झंडा।

क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकांत

घर-प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन
के बारे में बता सकते हो तुम ।

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता ।

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वंय को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री ।

सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तो के कुरुक्षेत्र में
अपने…आपसे लड़ते ।

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठे खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास

पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ
शब्दो की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को ।

उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ो को अपने भीतर ।

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा

अगर नहीं
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में….।

एक और कविता

“तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते है पेट हजारों
पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट
कैसी विडम्बना है कि
जमीन पर बैठ बुनती हो चटाइयाँ
और पंखा बनाते टपकता है
तुम्हारे करियाये देह से टप..टप..पसीना।”

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं बीएचयू की सामाजिक विज्ञान संकाय प्रमुख प्रो. बिंदा परांजपे ने नई शिक्षा नीति में शामिल पाठ्यक्रम के तहत आदिवासी हिंदी कविताओं को शामिल करने की बात कही। आदिवासी भाषाओं के विलुप्तीकरण पर चिंता जताते हुए कहती हैं कि किसी भाषा का विलुप्त होना उस भाषा के ज्ञान परंपरा के विलुप्त होने को दर्शाता है। उड़ीसा के महान साहित्यकार ने
“ परोजा” नामक उपन्यास में आदिवासी समाज के धड़े को विलुप्त होते दिखाया गया है। हमारा इनसे सरोकार कितना है, हम जमीनी धरातल पर इनके लिए क्या कार्य कर रहे हैं। वरना ऐसे कार्यक्रम मनोरंजन मात्र बनकर रह जाएंगे।
इन्होंने पाठ्यभेद पर भी बात की। मराठी में राधा के लिए राही शब्द है। आपको मराठी में राधा शब्द नहीं मिलेगा।
पुतुल शब्द कोंकणी में भी है, बांग्ला में भी बोला जाता है,बिहार में भी प्रचलित है। बच्चों को प्यार से संबोधित करने हेतु पुतुल शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द बहुत ही स्वीट है। कुछ आदिवासी समाजों में संभोग के लिए “तंबाकू बदलना” शब्द का प्रयोग होता है

इस आयोजन के संचालक‚कथा साहित्य के विशेषज्ञ प्रो. नीरज खरे बताते हैं कि प्रो. वासुदेव सिंह जी का आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी‚बच्चन सिंह‚शिवप्रसाद सिंह‚भोलाशंकर व्यास जैसे विद्वानों से घनिष्ठतम संबंध रहा।
धन्यवाद ज्ञापित करते हुए भक्तिकालीन साहित्य की मर्मज्ञ प्रो. श्रद्धा सिंह ने बताया कि 2007 में हमने अपने पिता को खो दिया। 27 जनवरी 2007 को “हैपी मॉडर्न स्कूल” से पहली पुण्यतिथि प्रारम्भ हुई। पिताजी की एक स्मृति में एक स्मृति ग्रंथ निकाला गया और इसी से उद्भूत हुई “नमन” पत्रिका और आज यह शोध पत्रिका में परिवर्तित हो चुकी है। उसे ISSN नंबर मिला और वह यूजीसी की केयर लिस्ट में चली गई। आल ओवर इंडिया से इतने लेख प्रकाशित करने हेतु आते हैं कि चयन करना मुश्किल हो जाता है। इस पत्रिका के सचिव डॉ. हिमांशु सिंह और कोषाध्यक्ष प्रो. श्रद्धा सिंह हैं।
इस कार्यक्रम में आरा विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. हरिकेश, महिला महाविद्यालय की प्रिंसिपल प्रो. रीता सिंह,प्रो. श्री प्रकाश शुक्ल, प्रो. आशीष त्रिपाठी, प्रो. आभा गुप्ता ठाकुर,डॉ.रामाज्ञा शशिधर, डॉ.अशोक कुमार ज्योति,डॉ.महेंद्र प्रसाद कुशवाहा डॉ. रवि शंकर सोनकर, डॉ. प्रीति त्रिपाठी,, डॉ. हरीश कुमार और पर्याप्त संख्या में शोधार्थी, छात्र-छात्राओं की उपस्थिति रही।

रिपोर्ट:-
रोशनी उर्फ धीरा
शोध छात्रा, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।

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